शनिवार, 1 सितंबर 2018

मीठे वादों से

*अंसबधा छंद*
222 221  111 112 22

मीठे वादों से गरल कम नहीं होते ।
तीखे भावों से नयन नम नहीं होते ।
खो जाते हैं वो सब सजल नहीं होते ।
 छूटे साथी भी जब सरल नहीं होते ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 5(131)
Blog post 1/9/18

अंस बधा छंद आ जाओ वामांगी

*अंसबधा छंद*
222 221  111 112 22

आओ वामांगी सुखद निशि सजाने को ।
सांसों सी साजो    सुर मधुर बनाने को ।
गीतों में ब्राजो   तुम घुल मिल जाने को ।
प्राणों की थापें    बनकर चल जाने को ।

वीणा तारों सी  बन सुर ढल जाने को ।
छेड़ो रागों को मन धुन खिल जाने को ।
आ जाओ वामा सज मिलन सजाने को ।
ये भावों के अक्षर   तुम पिघलाने को ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कनक मंजरी छंद मिलकर साथ सभी चलते

*कनक मंजरी छंद*

शिल्प~4लघु+6भगण(211)+1गुरु]=23 वर्ण
 चार चरण समतुकांत]
 {1111+211+211+211 
                      211+211+211+2}

मिलकर साथ सभी चलते , 
    नित सर्जन देश तभी सजते ।
खिलकर साथ तरु फलते, 
     नव पुष्पित बाग सभी सजते ।
बढ़कर राह रहें चलते,
     सत लक्ष्य सही तब ही मिलते ।
गढ़कर प्रीत नई गढ़ते ,
      नव गीत सदा जब ही मिलते । 

बढ़ चल तू चलता चल ,
     साथ सभी कम ही बढ़ते चलते ।
थक कर तू थमता कब ,
     पाँव नही अब ये मुड़ते चलते ।
पग पग उठा पथ पे रखना ,
      पथ पे पग चिन्ह यही बनते ।
अभय सदा चल तू चलना  ,
     भय ज़ीवन लक्ष्य नही बनते ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जलधर माला छंद पाते खोते

जलधरमाला छंद*

विधान~
[मगण भगण सगण मगण]
(222   211  112  222)
12 वर्ण,4 चरण,यति 4,8
दो-दो चरण समतुकांत]

पाते खोते, कुछ कुछ आते जाते ।
राहों से ये ,   मिलकर कैसे नाते ।
जीतें हारें ,    क़दम उठे ही पाते ।
जीने को ही, पुलकित जीने आते ।

खोते जाते , पल पल पाते जाते ।
पाते जाते , छण छण खोते जाते ।
रीतीं रातें , कसक रहीं हैं साँसे ।
बीतीं रातें , दिनकर के ही आते ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

चामर छंद रखी

चामर छंद
212 121  212 121   212
7गुरु लघु+गुरु

नेह बांधता सच्चा कच्चा 
 सु-सूत हाथ में ।
दे रहा अखंड मान प्राण  
   ज्ञात हाथ में।

 बांधती अटूट प्यार आज
    भ्रात रेशमी ।
 फैलती उजाल लाज 
   रक्ष पात रेशमी ।


दे रही अमोघ आन भान 
 वो सहोदरा ।
है मिला रही अपार मान
 वो सहोदरा ।

हे अटूट साथ प्राण का 
 अखंड आन सा ।
प्राण से निभात आन को 
 बना सु-प्रान सा।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....





चामर छंद रीत राग छोड़ तू

चामर छंद
212 121 212 121 212
7गुरु लघु+गुरु


रीत राग छोड़ तू जगा सभी अशेष को ।
आन मान प्राण से मिटा सभी कलेश को ।
पाथ साध पाँव से सजा सुरेश चाह को ।
प्रीत सींच हाथ से बना विशेष राह को ।

नाम काम त्याग दे सु-कर्म ही स-शेष हों ।
ज्ञान भाव साध ले स-कर्म का नरेश हो ।
जीत हार साधता सु-भाव का महेश हो ।
नाद प्यार पोषता दुलारता अशेष हो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 5(126)

बुधवार, 29 अगस्त 2018

मौसम रंग बदलता धीरे धीरे

मौसम रंग बदलता धीरे धीरे ।
चाँद चलता छलता धीरे धीरे ।

आस संजोए सँग चलती धरती ,
क्षितिज तले वो ढलता धीरे धीरे ।

युवा साँझ सँग हुई यामिनी  ,
अंबर तारों से भरता धीरे धीरे ।

देख यामिनी की श्यामल काया ,
उदित दिवाकर चलता धीरे धीरे ।

दौड़ रहीं है साँसे साँसों में ,
चलता ज़ीवन कटता धीरे धीरे ।

खोज रहा बातें कुछ बातों में ,
लुपता छुपता कुछ धीरे धीरे ।

बीता बचपन गुजरा यौवन ,
ज़रा चला ढलता धीरे धीरे ।

मौसम....
.... विवेक दुबे''निश्चल''@...

कुछ गलत भो चाहिए

524
कुछ गलत भी चाहिए , सही के लिए ।
हालात से बदल जाइए, ज़िंदगी के लिए ।

कटते नहीं अंधेरे, अश्क़ निग़ाह लिए हुए ।
एक तबस्सुम भी चाहिए, तिश्निगी के लिए ।

पड़ते नही हर क़दम, जीत लिए हुए ।
होंसला हार भी चाहिए,जीतने के लिए ।

उभरे अंगार नक्स कुछ, वर्फ़ से हुए ।
एक आग भी चाहिए, पिघलने के लिए ।

है हवा किनारे दरिया के, मौजें लिए हुए।
एक नशा भी चाहिए , मचलने के लिए ।

कटता नही सफ़र , गुमनामी लिए हुए ।
 शोहरतें भी चाहिए, "निश्चल"निखरने के लिए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

चल देख लें जरा

 चल देख लें जरा ।
 चल सोच लें जरा ।

  शब्द के  सँग क्यों  ,
  अर्थ रह गया धरा ।

 जीतकर इरादों से ,
  एक शेर था पढ़ा ।

 हारकर इशारों से ,
 काफ़िया था गढ़ा ।

ग़जल-ए-बहारों में,
तख़ल्लुस ना जुड़ा।

 रह गया अधूरा सा ,
 नशा ग़जल ना चढ़ा ।

 सोचता मैं रिंद क्युं ,
 साक़ीया ना मुड़ा ।

 रूठता ना रिंद जो ,
 झूमती मयकदा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.
Blog post 17/8/18
डायरी 5(106)

माता की व्यथा

माता की व्यथा ।
कभी न बनी कथा ।
जो लिख गए पुराण,
 माँ को न मिला वो स्थान।
जिसकी वो अधिकारी थी ।
हाँ वो तो एक दुखियारी थी ।
 क्या पाया की आशा से ,
 कोसों दूर रही बेचारी सी ।
 बस करती अपना काम ,
बिन जताए कोई अहसान ।
 कर के सबको आगे ,
 अपना सब कुछ है बांटे ।
बांट दिया तन मन को ,
कर दिया हवन जीवन को ।
 सींच  लहू से अपने ,
 आँगन की फुलवारी ।
करती अनन्त यात्रा की तैयारी ,
बस लेकर इस आशा को ,
फूलों के हर दम खिलने की ,
 एक अभिलाषा को ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(105)
Blog post 29/8/18

टूटती क़सम किनारों की

टूटती कसम किनारों की ।
छूटती पतवार सहारों की ।

है बेख़ौफ़ ना-नाख़ुदा वो,
डूबती कश्ती सहारों की ।

 है तर-ब-तर समंदर यूँ तो ,
 चाहतें वारिश-ए-बहारों की ।

 है सींचती रही अश्क़ दामन को ,
 चाहत नहीं निग़ाह नजारों की ।

 है रूठकर चला सफ़र पर वो ,
 कैसी नियत वक़्त की बयारों की ।

 है देखता नही मुड़कर जो ,
 चाहत नही कोई इशारों की ।

 है चल पड़ा आखिर वो "निश्चल" ,
चाहत नहीं  जिसे राहों की ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(102)

जार जार जो

जार जार जो हर बार चला है ।
 फिर वो जो एक बार चला है ।

 पी कर घूँट हलाहल मधु का ,
 जीवन के भी जो पार चला है ।

 निखर रहा है भोर तले भानु  ,
 किरण पथ को श्रृंगार चला है ।

  तम की अभिलाषा में भी,
 चँदा तारों का हार मिला है ।

 चलकर पथ जीवन पर ही ,
स्वीकारित प्रतिकार मिला है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 5(113)

मिट जाए वो सत्य कैसा

मिट जाए वो सत्य कैसा ।
अंनत अंतरिक्ष तम जैसा ।

जलता भानू अपने ही ताप से,
निशा बिन शशि शीतल कैसा ।

 मचली लहरें उसके आँचल में ,
 लहरों बिन पयोधी कैसा ।

 सरल नही  कभी ज़ीवन ,
 संघर्षो बिन ज़ीवन कैसा ।

सिंचित मन से मन की अनबन ,
 मन से मन का ये सौदा कैसा । 

 भाग रहा है अपने आप से ,
 आपस का ये धोका कैसा ।

धूम रही है धरा निरन्तर ,
फिर दिनकर का धोका कैसा ।

"निश्चल" रहा सदा ही वो तो ,
मिलता फिर भी चलते जैसा ।

सरल नही  कभी ज़ीवन ,
 संघर्षो बिन ज़ीवन कैसा ।


.. विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 5(93)

इंतज़ार कुछ ज्यादा सा लगता है

इंतज़ार कुछ ज्यादा सा लगता है ।
बे-करार हर वादा सा लगता है ।

  आ कर ही पास किनारों पर ,
  साहिल प्यादा सा लगता है ।

 छूटे जब ही हाथ किनारे से  ।
साहिल का अंदाज़ा सा लगता है ।

 पीता है आँसू अपनो की खातिर ,
 यूँ तो सागर खारा सा लगता है ।

 यहाँ जीत कहाँ है, है हार कहाँ ,
 नही कहीं अंदाज़ा सा लगता है ।

 आकर सागर से साहिल पर ,
 माँझी भी तो हारा सा लगता है ।

"निश्चल" रहा इन्ही राहों पर ,
 हर राह गुजारा सा लगता है ।

इंतज़ार कुछ ज्यादा सा लगता है ।
बे-करार हर वादा सा लगता है ।

... *विवेक दुबे"निश्चल"@*...

एक मन बादल सा

एक मन बादल सा ।
भींगे से बादल सा ।

     लहराता धीरे से ,
    चँचल आँचल सा ।

  रिसती बूंदों सँग ,
  वो मन घायल सा ।
  
     टकरा धरती से ,
    खनका पायल सा ।

 उतर बून्द धरा पर ,
 वो मन "निश्चल" सा ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...


अश्क़ "निश्चल" हुआ

     कोई घायल हुआ ।
     कोई कायल हुआ ।

     छोड़कर आँख को ,
    बहता काजल हुआ ।

    ढलक रुख़सार से ,
    ज़ज्ब आँचल हुआ ।

     उड़ गया बूंद सा ,
   आसमां बादल हुआ ।


    जीतकर हालात को ,
   अश्क़ "निश्चल" हुआ ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
  

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...