शनिवार, 21 अप्रैल 2018

जीत ले बस आज को

    पलट उस पृष्ठ को ।
   बदल जरा वक़्त को ।
   मिटा उन अल्फाज़ को ।
    लिखे लफ्ज़ सख़्त जो । 

        छोड़कर शाख को,
        वो पत्ता गिरा जो ।
       उड़ न सका हवा में ,
        रौंद गए कदम वो । 

          बैठा है फ़िक्र में,
           क्यों आज की ।
           तू ही लाया था ,
            कल आज को । 

      गुनगुनाता है वक़्त ,
      आहटें अंजाम की ।
      डरता है फिर क्यों ,
       तू नए आगाज़ को । 
   
       छोड़ फ़िक्र कल की ,
      जीत ले बस आज को ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 13

करता बातें जो इस पल की ।
 क्यों फिक्र नही उस पल की ।
संग सितारे चंचल चँदा के ,
  दीप्त रहे क्यों "निश्चल " सी ।
..
 स्वप्न बुने उसने इस पल के ।
 क्यों ज़िक्र नही उस पल के ।
संग सितारे चंचल चँदा के ,
 पर रहते क्यों  "निश्चल " से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक


होने को बहुत कुछ होता है ।
 जो दिखता वो कहाँ होता है ।
 छला जाता जन हर बार ही ,
 जो होता है वो कहाँ होता है ।
 .... 
वो मरहम लगाने आए हैं ।
 ज़ख्म कुदेरने आए हैं ।
 भीड़ है गाँव मे बहुत मेरे ,
 फिर चुनाव के जमाने आए हैं ।
 .... 
चलते चालें कुटिल नीत की ,
कलजुग का प्रताप निराला ।
चारों ओर जयकारे उनके ,
  हाथों में फरेब का प्याला ।
.....
चुप रहो ख़ामोश रहो ।
 दोषी को निर्दोष कहो ।
  असत्य सत्य जो जाए ,
 सत्य कैसे तब सिद्ध करो ।
   ...
जुर्म व्यापार हुआ ।
 फ़र्ज़ दाग़दार हुआ ।
  बैठा हुआ सड़क पर,
ईमान जार जार हुआ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

तू मेरी ग़ज़ल को

तू मेरी ग़जल को काफ़िया दे दे ।
 तू मेरे हर शेर के रदीफ़ ले ले ।

 रहे हर शेर में नाम तेरा ,
 तू बस उस शेर की रजा दे दे ।

 न लिखूँगा फिर ग़जल कोई ,
 तू इस ग़जल की वज़ह दे दे ।

 लिखूं एक मक़्ता तेरे नाम से ,
  शेर-ऐ-मतला में तू मुझे ले ले ।

 आया हूँ रिंद की मानिंद ऐ साक़ी ,
  ग़जल को काफ़िया ऐ नशा दे दे ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक

जो वृक्ष घना विशाल है ।
 फैला डाल डाल है ।
   आते जाते पाते पथिक ,
    शीतल पाते छांव हैं ।
 पनप सका न नीचे कोई ,
 उसके बीजों को मामल है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक

पाषाण हुए हृदय यहां सब ,
 खो गई है यहां मानवता ।
 सत्य कहां टिकता है अब ,
 जीत रही है दानवता ।
....
 झूठ के परदे उठते हैं ।
 सत्य के चेहरे दिखते हैं ।
 झूठ चलेगा तब तक,
 सत्य छुपा है जब तक ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..


घात के आघात से ।
 स्वार्थ के परमार्थ से ।
   लाभ हानि के खातों से ,
   मित्र आज रहे व्यापार से ।


 जान छिड़कते यूँ तो,
 गला काटते प्यार से ।
  मिला पग पग पग पे ,
 साथ चले प्रतिकार से ।


 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक

ख्वाहिशें न बने ऐ "विवेक" सज़ा ।
 ख्वाहिशों की हो इतनी सी बजह ।

चुराकर अहसास मेरे ,
 मुझसे अंदाज़ पूछते हैं ।
 जज़्ब कर जज़्बात मेरे ,
 मुझसे अल्फ़ाज़ पूछते हैं ।

 न देखें तासीर किरदार की ,
 तासीर किरदार की हम गढ़ें ।
 सज़ा न बने ख्वाहिशें"विवेक"
 ख्वाहिशों की बजह हम बनें ।

 गढ़ कर अपने आप को ,
 कर कुछ प्रयास तू ।
 रंग कोई तो चढ़ जाएगा,
 कहलाएगा कोरा न तू ।

 कभी अपने आप को ,
 आईने में रखना तुम ।
 खुद के अक्स से ,
 आईने में झकन तुम ।
 कहता है क्या फिर,
 अक्स तुम्हे देखकर ।
 बयां कर अल्फ़ाज़ में ,
 अपने लिखना तुम ।

 पाषाण हुए हृदय यहाँ सब ,
खो गई है यहाँ मानवता ,
 सत्य कहाँ टिकता है अब ,
 जीत रही है बस दानवता ।

 झूँठ के परदे उठते हैं ।
 सत्य के चेहरे दिखते हैं ।
 झूठ चलेगा तब तक ,
 सत्य छुपा है जब तक ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जाने कैसा वक़्त हो गया

न जाने कैसा वक़्त हो गया ।
 हर जुमला जात पे ठहर गया ।

 जंग ज़ुबानी तलवारों से पैनी ,
 चुनाव मैदान-ऐ-जंग हो गया ।

 हो रहीं पार हदें आज सारी ,
 जुमला विकास कही खो गया ।

 भूख है सत्ता की बड़ी भारी ,
 भूखा तो भूखा ही सो गया ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@..

किताब किताब बदलता गया

किताब किताब बदलता गया ।
 सफ़ा सफ़ा पलटता गया ।

       कुछ स्याह सफे खयाल के ,
      कुछ हंसीं सफे बे-मिसाल से ।

 कभी कुछ सम्हलता गया ।
 कभी कुछ बदलता गया ।

     यूँ कदम-दर-कदम चलता गया ।
    यूँ ज़िंदगी से ज़िंदगी बदलता गया ।

खामोश थीं वो खुशियाँ ,
 मगर दर्द बोलता गया ।
  
       तूफान के इशारे से ,
      समंदर डोलता गया ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


कुछ डायरियां

कुछ डायरियां यहाँ ।
 कुछ डायरियां वहाँ ।

   लिख गया हर पल को ,
   जीवन जाने कहाँ कहाँ ।

झड़ता पत्ता पतझड़ का ,
 रौंदता जिसे सारा जहां ।

 कभी एक मिसाल जो ,
 था वट वृक्ष विशाल वो ।

     रूठती है जब धरा ,
     सूखता खड़ा खड़ा ।

छोड़तीं जड़ें उसे ,
 घेरती जरा,  ज़रा ।

           धरा पर    धरा जो ,
           हुआ यूं कंगाल वो ।

कुछ डायरियां यहाँ  ।
 कुछ डायरियां वहाँ ।

  "विवेक" लिख गया हर पल को .....

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@..



माँ तु मझे याद आती है

ज़िंदगी जब भी, मुँह चिढ़ाती है ।
 माँ तु , मुझे, बहुत याद आती है ।

 वक़्त के, तूफान में, कश्ती डगमगाती है ।
 पतवार , याद तेरी ,       बन जाती है ।

 रूठता हुं , खुद से ही , में जो ,
 यादों में तु ,    मुझे मनाती है ।

 जागता हुं ,       जो रातों में कभी ,
 तेरी यादें , थपकियाँ , दे सुलाती हैं ।

 ज़िंदगी जब भी .... 

      गिर रोता हुं , चोट , से दुनियाँ की,
       याद तेरी,      गोद मुझे उठाती है ।

 गलतियाँ ,       होतीं    , आज भी मुझसे ,
  तेरी याद ने, आज भी, गलतियाँ सुधारी हैं ।

 ज़िंदगी जब भी ...

 सीखता ही , रहा था , हर दम तुझसे ,
 याद तेरी , आज भी , मुझे पढ़ाती है ।

 भूलता हुं , कहीं , रस्म दुनियाँ की ,
 तु यादों में ,      हर रस्म बताती है ।

 ज़िंदगी जब भी ...

     चलता हुं , आज भी , साए में तेरे ,
     तु आज भी , छाँव नजर आती है ।

 है नही तु ,    सामने ,        अब मेरे ,
 फिक्र तु, अपनी, आज भी बढ़ाती है ।

 ज़िंदगी जब भी मुँह चिढ़ाती है ।
 माँ तु , मुझे, याद बहुत आती है ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....


दुआएं माँ की

माँ की दुआओं के यूँ होते असर हैं ।
ठाँव खुद चल पास आते नजर हैं ।

 तपती धूप जब जीवन राहों की ,
 आँचल माँ का बन आते बादल हैं ।

 सूरज भी शीतल हो जाता चँदा सा ,
 माँ के आशीषों से होती हलचल है । 

  लालायित है स्वयं विधाता भी ,
 अवतार रूप पाता माँ आँचल है ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@......

वात्सल्य माँ का

..... वात्सल्य माँ का ...

चलती वो अँधियारों संग ,
 अपने अँधियारे लेकर ।

 चलती अथक भाव से ,
  उजियारों की ख़ातिर ,
 उजियारों से लड़कर ।

  पिसती ज़ीवन की ख़ातिर ,
   ज़ीवन में खुद घिसकर ।

  हँसती ही रहती हर दम ,
  अपने अश्रु स्वेद पीकर ।

  वात्सल्य मयी मूरत ममता की,
  सो जाती रातों को पानी पीकर ।

 खोती अपने सपनो को ,
 लोरी संग सपने देकर ।

सोई नही कितनी रातों को ,
 वो मुझको थपकी देकर ।

 चुनकर लाती फूलों को ,
 कांटो पर वो चलकर ।

  रहे  सदा ही पथ रोशन ,
 उजियारे खोती उजियारे देकर ।

 देती शीतल छाया आँचल की ,
 खुद अपनी छाया खोकर ।

 स्तब्ध निगाहें भर आतीं ,
 देखे जो हल्की सी ठोकर ।

 हँसती ही रहती हरदम वो,
 चुपके से रातों में रो कर ।

बहती हर पल सरिता सी ,
ममता की सरिता बनकर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..




शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

मुक्तक कुछ ख्याल 9


खर्च का हिसाब न रहा ।
 तेरा इतना इख़्तियार रहा ।
 सम्हालता रहा लम्हा लम्हा ,
 बे-इन्तेहाँ जो इंतज़ार रहा ।
..
मिटा कर मुझे मेरे वजूद से।
 देखते है मुझे बड़े ख़ुसूस से।
 उजड़ा चमन अपने अंदाज से,
देखते बागवां को क्यों क़ुसूर से ।
..... 
तेरी बेगुनाही से क्या फर्क पड़ता है ।
 सुबूत ही हर गुनाह को गढ़ता है ।
 बजह तलाश करो बेगुनाही की ,
 ग़ुनाह करने से फर्क़ नही पड़ता है ।

 ..... विवेक दुबे "निश्चल"©..
Blog post 12/2/18
डायरी 3

मुक्तक कुछ ख्याल 8

सत्य में बड़ा सतित्व है।
 असत्य बड़ा विचित्र है।
 आता बढ़चढ़ कर सामने,
 सत्य होता नही भृमित है।
.. 

 बस कर्म ही हमारा साथ है ।
 भाग्य तो विधाता के हाथ है ।
खोया सुख चैन और कि चाह में  ,
जो प्राप्त है वो भी अपर्याप्त है ।
    ......
ज़मीन बिछाता आसमां ओढ़ता मैं ।
इस तरह खुद को खुद से जोड़ता मैं ।
 बयां कर हक़ीक़तें खुद मैं अपनी ,
हसरतों को हक़ीक़त से तोड़ता मैं ।
   .....
कहते हैं न कतरा मेहनत से ,
मेहनत का फल मीठा होता है ।
बहा पसीना मेहनत के माथे से ,
 आखिर वो क्यों खारा होता है ।

...

 विवेक दुबे"निश्चल"@....


मुक्तक कुछ ख्याल 7

मुक़ाम बहुत है शहर में मेरे ।
 क़याम न हुआ मगर कोई ।
 उजड़ रहा है मेरे शहर से ,
 चैन-ओ-शुकूँ गोई ।
....
अपनो की इस भीड़ में ,
तन्हा नही कभी कोई ।
कमी इस बात की,
के,अपना चुना नही कोई ।
...
  कुसूर बस इतना रहा ।
  बे-कुसूर मैं अदना रहा ।
  न बढ़ा क़द फ़रेब का ,
  सच तले मैं चलता रहा ।
 .... 
वो नुक़्स निकालता रहा ।
 मैं ख़ुद को सम्हालता रहा ।
 उतारकर शीशे में ख़ुद को,
 मैं संग से सम्हालता रहा ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"©....

चित्र चिंतन वो हारता नही

     वो हारता नही हालात से ।
    वो जीतता सच्चे प्रयास से । 
    नर्म फिजाओं की पुकार से ।
    फूट पड़ा अंकुर इस्पात से ।

   जीवन भी कुछ ऐसे ही चलता है ।
   सौ सौ तालों से जम जकड़ता है । 
    कोशिश हर पल प्रतिकार की । 
   चाहत एक ठंडी सी फुहार की । 

  निकल दुर्गम जीवन राहों से ।
  सजती सृष्टि रचना संसार की । 
   चाहत एक जीवन की ख़ातिर ,
   कोशिश फौलाद पर प्रहार की ।

 ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्तक कुछ ख्याल 6

बे-वाक हूँ बेईमान नही ।
 भोला हूँ नादान नही ।
 पढ़ लेता हूँ निगाहों को ,
 हाँ चेहरों की पहचान नही ।
....
खुद्दार हूँ तल्ख मिज़ाज़ रखता हूँ ।
 जुबां हाज़िर जवाब रखता हूँ ।
भूलता नही कभी दोस्ती मैं ,
 पाई पाई का हिसाब रखता हूँ ।
.... 
मार्च क्लोजिंग  में कुछ हिसाब देख लूँ।
 कितना नगद रहा कितना उधार देख लूँ ।
  लिख लूँ  रोकड़ खाते आज फिर नए ,
 जो है मुनाफा उसे अपने पास देख लूँ ।
...
करता हूँ मंजूर हक़ीक़त को ।
 नही इल्ज़ाम देता कुदरत को ।
  स्याह के बाद आते हैं उजाले  ,
  देखता हूँ  आते दिनकर को ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक कुछ ख्याल 5

जलती रेत झुलसते पत्थर ,
          नीर उबलता सागर का ।
 प्यासा है टुकड़ा भी अब ,
         देखो सावन के बादल का ।
      .... 

लोग निग़ाह तोलते थे ।
         वो पत्थर भी बोलते थे ।
 चले न कभी साथ मेरे ,
          क्यों मेरे राज खोलते थे । 
 .... 
वहम सा पाला मुझको ।
       निगाहों में ढाला मुझको ।
 अपनों की महफ़िल में ,
         गैर बता डाला मुझको ।
.... 
दवा वो दर्द हो गया ।
          इश्क़ रुस्वा हो गया ।
 दुआएँ भी काम न आई ,
        फ़र्ज़ उसका अदा हो गया।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


मुक्तक कुछ ख्याल 4

जलती रेत झुलसते पत्थर ,
          नीर उबलता सागर का ।
 प्यासा है टुकड़ा भी अब ,
         देखो सावन के बादल का ।
      .... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

लोग निग़ाह तोलते थे ।
         वो पत्थर भी बोलते थे ।
 चले न कभी साथ मेरे ,
          क्यों मेरे राज खोलते थे । 
 .... 
वहम सा पाला मुझको ।
       निगाहों में ढाला मुझको ।
 अपनों की महफ़िल में ,
         गैर बता डाला मुझको ।
.... 
दवा वो दर्द हो गया ।
          इश्क़ रुस्वा हो गया ।
 दुआएँ भी काम न आई ,
        फ़र्ज़ उसका अदा हो गया।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


मुक्तक कुछ ख्याल 3

कुछ यादों को ताजा कर ले ।
 आज शरारत सांझा कर लें ।
 जीते हैं मरने की ख़ातिर ,
 जीने का आज इरादा कर लें ।
... 
  तू इतर नही मुझसे ।
   क्यूँ बे-जिकर तुझसे ।
   मैं धुंध हूँ गुबार का ,
   तू अब्र कहे किससे ।
.... 
इरत-भिन्न - दूसरा
...
हँसी लबों पे बेहिसाब रखो ।
 पर हर हँसी का हिसाब रखो ।
 मुस्कुरा दें ख़यालों में भी हम,
 तासीर रिश्ता यूँ इख़्तियार रखो ।
 .... 
वो साथ चला अँधियारों सा । 
 अहसास लिए उजियारों का ।
 चमक उठा वो जब जब ,
 जो ख़ौफ़ लगा अँधियारों का ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.

मुक्तक कुछ ख्याल 2


1...
  अतृप्ति यह भावों की ।
 संतृप्ति यह हालतों की ।
 आदि अनादि की परिधि से,
  सृष्टि चलती विस्तारों की ।

  .2..

जिव्हा शब्द से लद जाती है।
  मीठे कड़वे से फल लाती है ।
  सींच रहे है हम जिन भावों से ,
  मन की माटी फ़सल उगाती है ।
3.

      शब्द सरोवर हो जाते हैं ।
       सारंग नयन खिल जाते हैं ।
      तुहिन कण बिखेर भावों के  ,
      अर्थ कमल दल खिल जाते हैं ।
    .... विवेक दुबे"निश्चल"@.
        रायसेन(म.प्र.)



मुक्तक कुछ ख़्याल

सूरज हुआ अस्तांचल है ।
  गगन नही कोई हलचल है ।
  साथ सितारों के चँदा भी,
 "निश्चल" चलता बोझिल है ।
   .... 
   साँझ ढले तू आजा चँदा ।
   तारों के सँग छा जा चँदा ।
   निहार कण बिखरा कर ।
   मुझको तर कर जा चँदा ।
....   निहार (ओस)

 अब दिन गया गुजर ।
  कर कल की फ़िकर ।
         डूब ले तू कान्हा में ,
         छोड़ आज का जिकर।
   .......

अपने ईस्वर को मना लें जरा ।
 भूंखे को एक निवाला दें जरा ।
 आस्था के थाल में अपने भी,
 जल जाएं दिये सेवा के जरा ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"©...

मुक्तक सामयिक 3

जब जब उसमे दोस्त देखा ।
 तब तब उसने ख़ंजर फेका  ।
 जख्म दिए हैं गहरे गहरे से ,
 वो ना-पाक नियत है कैसा ।
...
   अब क्या समझे क्या समझाएं ।
   अब तो आर पार ही हो जाए ।
   मरते है अब आम नागरिक भी ,
  रात अँधेरे गोली गोले चल जाए ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक सामयिक 2

वो हर मौत से मज़हब जोड़ते हैं ।
 यूँ वो धर्म से मज़हब जोड़ते हैं ।
 करते हैं राजनीति हर मौत पर,
 मुर्दों में यूँ सियासत खोजते हैं ।
  .....
 मरते रहे लाल भारत के भाल पे ।
 बस एक मातृ भूमि के सवाल पे ।
 भला क्या जाने वो आन देश की ,
 चलते रहे हैं जो थैले सम्हाल के ।
... 
सिंदूर उजड़ते , सूनी राखी ।
 सूनी कोख , छाया की लाचारी ।
 कुटिल नीतियाँ सत्ता की ।
 सैनिक की छाती गोली खाती ।
 .... 
  नैतिकता पढ़ी कभी किताबों में ।
  नैतिकता मिलती नही बाज़ारों में ।
  सुनते आए किस्से बड़े सयानों से,
 यह मिलती घर आँगन चौवरो में ।
  ......
आज फिर मुद्दों के कुछ भूचाल उठे ।
आरक्षण कहीं मज़हब के भाल उठे ।
 खोतीं मर्यादाएँ फिर सारी की सारी ,
 बे-कसूर के आज फिर शीश कटे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

मुक्तक सामयिक


वही हुआ जिसका डर था ।
 प्यादे का बड़ा असर था ।
 शह खा बैठा प्यादे से वो ,
 चालों का जो माहिर था ।
... 
आज बदले से हालात हैं ।
 नही  रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
 धर्म मजहब के नाम पर ,
 बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
.... 
भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
 बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
 छूटते अब हाथ से हाथ हाथ के ,
  उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
 ... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
 मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
 था रंग लहू का एक सा सभी ,
 फिर यह लहू किसने फेंका था ।
 .....
 धर्म बिसात पर पांसा जात खेला था ।
  बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
   ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
   वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
    ...
 सांप निकल गया अब क्या होगा ।
 पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
 देश बंट चुका जात मजहब में ,
 खोखले वादों से अब क्या होगा ।
.....
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
 अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
 लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
 तुम अपनों से ही फिर हारोगे । 
..... 

  ... विवेक दुबे"निश्चल"@.

बुधवार, 18 अप्रैल 2018

शेर 133 से 151

133
इश्क़ में रूहें करम अता फ़रमाती है ।
लोग बुतों की सूरत पर मरा करते है ।
134
पाकीजगी को जो सम्हाला हमने ।
नापाकी के इल्जाम लगाए जमाने ने ।
135
नियति ने "विवेक" कुछ तो तय किया होगा ।
जो घट रहा है वो तेरे लिए सही होगा ।
136
यह मंजिल नही मेरी सफ़र वांकी है ।
मक़ाम अभी और भी आएंगे ।
137
अलग होता नही कुछ जमाने मे ।
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
138
एक दुआ की ख़ातिर टूटता सितारों सा ।
कुछ यादों की ख़ातिर मैं अधूरे वादों सा ।
139
हुनर वो नही जो लेना जाने ।
हुनर वो है जो देना जाने ।
140
भीड़ बहुत थी पास मेरे मुस्कुराने बालों की ।
मेरी हर शिकस्त पर जश्न मनाने बालों की।
141
कवि देखता दुनियाँ को दुनियाँ की नजर से।
कवि देखता दुनियाँ की बस अपनी नजर से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
डायरी 3
142
मिले तेरे मुकद्दर से वो सब तुझे ।
मिला न मेरे मुक़द्दर से जो मुझे ।
143
हूँ होश में , मैं मदहोश हूँ मगर ।
जिंदगी तेरे अंदाज़ से,हैरां हूँ मगर ।
144
लाभ हानि के खाते लिखते सब ।
मिलते नही लोग बे-मतलब अब ।
145
ख़्वाब सहेजे कुछ ख़्वाब समेटे ।
कुछ संग उठ खड़े कुछ अध लेटे ।
146
नियति ने कुछ तो तय किया होगा ।
जो घट रहा है वो तेरे लिए सही होगा ।
147
हुनर वो नही जो लेना जाने ।
हुनर वो है जो देना जाने ।
148
भीड़ बहुत थी पास मेरे मुस्कुराने बालो की
मेरी हर शिकस्त पर जश्न मनाने बालो की
149
कोशिश की हार कहाँ ।
प्रयास है प्रतिसाद जहाँ ।
150
ख्वाहिशें न बने "विवेक"सज़ा ।
खुशियों की हो इतनी सी बजह।
151
समंदर में तूफान छुपे होते है ।
साहिल अक्सर खामोश होते है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

शेर 118 से 132

 118
लकीरें मुक़द्दार की बदलती नही ।
 लोग फिर भी तक़दीर गढ़ा करते है ।
119
मेरी यह आदतें आदत बनती गई।
शब्द जागते रहे कलम चलती रही ।
120
हम छपते रहे अखवारों में कभी कभी ।
यूँ बिकते रहे शहर शहर कभी कभी ।
121
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।
122
बाद मेरे याद रहे मेरे अल्फ़ाज़ में ।
बस यही दौलत कमाना चाहता हूँ ।
123
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों में ।
हारते रहे शर्त-दर-शर्तो में ।
124
कुछ नुक़्स भी नायाब होते है ।
रुख़सार चाँद पर दाग होते है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3
125
ज्यों ज्यों ज़ीवन की साँझ ढली ।
त्यों त्यों तुझसे मिलने चाह बड़ी ।
126
कदम बेताब मंजिल छूने को ।
जमीं बैचेन असमां होने को ।
127
वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
हँसी ले दे रहा सब कुछ ।
128
तमाशा ही है आज हर जिंदगी ।
करता नही कोई किसी से बंदगी ।
129
लो टूटकर फ़लक से वो चला ।
गुमां था जिसे असमां पे चमकने का ।
130
रूह से रूह जहां मिल जाती है ।
ज़िस्म वहां ख़ुदा हो जाते है ।
131
जिंदगी कटती अपने ही तरीके से ।
हारते हम हर बार अपनो के तरीकों से ।
132
तक़दीरें ही तक़दीर तय किया करती है ।
रास्ते वही मंजिल बदल दिया करती है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@.
Blog post 18/4/18

डायरी 3



शेर 104 से 117

104
भर गया दामन , दुआओं के फूलों से ।
खुशबू दुआओं की,जा मिली रसूलों से ।
....105
 निगाह नजारों की भी न चाहत रही  ।
 जहां साँसों की भी न आहट रही ।
 ...106
रोशन रहे शमा सुबह के उजालों तक ।
  आ जाएं वो आने के किए वादों तक ।
...107
 चाहत रात की , खातिर उजाले की ।
 मयकदा रिंद की ,  मय प्याले की ।
.....108
जिंदगी न समझ सकी हालात को ।
 बुझती गई प्यास फिर प्यास को ।
... 109
न मिला निग़ाह जमाने से ख़ातिर अपनी ।
चल नजर बचा जमाने से ख़ातिर अपनी ।
 110
  निग़ाह शक से देखता है जमाना अक़्सर ,
   भुलाकर वो तेरा   मेहनतकश मुक़द्दार ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
18/4/18
डायरी 3
111
मुसाफ़िर हमसे कहा राह पाते है ।
 हम जुगनूं रातों को टिमटिमाते है  ।
   ..112
तारा टुटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।
ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।।
..113
 फूल सा जो महकता सा रहा है ।
  यूँ वो रिश्ता वा-खूब सा रहा है ।
  ..114
अक़्स पर अक़्स चढ़ाया उसने ।
 खुद को बा-खूब सजाया उसने ।
....115
ख्वाहिशें न बनें "विवेक"सज़ा ।
खुशियों की हो इतनी सी बजह।
...116
सजा लीजिए या सज़ा दीजिए ।
बस दिल मे इतनी सी जगह दीजिए ।
117
नही कोई भी शेर मेरा मुकम्मल है ।
जो छूटता पीछे आज वही सामने कल है ।


   ...... विवेक दुबे "निश्चल"@...
18/3/18

डायरी 3




शेर 89 से 103


89
शेर ज़िंदगी ऐ दख़ल होते रहे ।
लफ्ज़ लफ्ज़ ग़जल होते रहे ।
...90
मस्त है ज़िंदगी पस्त है ज़िंदगी ।
 अक्षर अक्षर बिखरी है ज़िंदगी ।
....91
रहा गाफ़िल ज़िंदगी के इख़्तियार में ।
 ले डूबी मौत इंसा को अपने प्यार में ।
.....92
इस सच को मान न मानो अपनी हार ।
 यह जोश ज़िंदगी का ही दौलत अपार ।
...93
  टूटता रहा ऐतबार ऐतबार से ।
  लड़ता रहा   यूँ इख़्तियार से ।
...94
   मुस्कुरा ऐतबार इजहार किया उसने ।
   लगा ठहाका बे-ऐतबार किया उसने ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....
  18/4/18
डायरी 3
 .95
ज़िंदगी भी , एक किताब है ।
   दो लाइन का, बस हिसाब है ।
...96
कुछ लिखें अपना , कुछ कहें अपना।
 सत्य नही ज़ीवन , ज़ीवन एक सपना।
...97
   ज़ीवन की बस , इतनी परिभाषा है। 
    ज़ीवन तो बस , कटता ही जाता है। 
....98
पतझड़ नही वसंत हो ज़िंदगी ।
 अन्त नही आरम्भ हो ज़िंदगी ।
---99
लाभ हानि के खाते , लिखते सब ।
 लोग नही मिलते ,  बे-मतलब अब ।
---100
होता रहता हरदम , कुछ न कुछ।
 वक़्त सीखाता हरदम , कुछ न कुछ।
---101
यह सफर विकल्प से , संकल्प तक का ।
 लगता सारा जीवन , सफर दो पग का।
..102
तपता रहा उम्र भर , कुंदन सा हो गया ।
 भाया न दुनियाँ को , खुद भी खो गया ।
..103
पथिक थक जाएगा ,मंजिल पा जाएगा ।
 छोड़े पद चिन्हों का,इतिहास बनाएगा ।
....
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
29/3/18
डायरी 3

शेर 81 से 88

 ..81
पढ़ता जो नजर सा ,लफ्ज़ रूठ जाते ।
 पढ़ता जो लफ्ज़ सा ,इशारे रूठ जाते ।
..82
 किताब खुली खुली जो बन्द सा मगर ।
  सफ़े सफ़े पर क्यु चिलमन सा असर ।
.... 83
अक़्स पर अक़्स चढ़ाया उसने।
 खुद को बा-खूब सजाया उसने।
            .
...84
 एक मुख़्तसर ग़जल कही मैंने ।
 एक निग़ाह नजर कही मैंने ।
  9/4/18
डायरी 3
 ...85
नजर का खेल , बड़ा अजीब है ।
 नज़र अंदाज़ वही , जो अज़ीज है ।
.... 86
इल्म वो नही जो ख़ामोश रह गया ।
 इल्म वो जो में दुनियाँ बयां हो गया ।
...87
बदले मेरे शहर के हालात हैं ।
 संग निग़ाह खँजर हाथ है ।
....88
 सैय्यदों के शहर में,  हैं परिंदे कहर में ।
 उड़ें तो उड़ें कैसे,  हैं फंदे हर नजर में ।
...
 ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

 18/4/18

डायरी 3

शेर 66 से 80


66
तू मेरा हक़ीम हुआ ,
           होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
 थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
                  तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)
...67
तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
 कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।
...68
 अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
 गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।
...69
आइना तू सवार दे मुझे ।
  मैं कुछ निहार लूँ तुझे ।।
  ....70
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
 यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
...71
खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।
....72
 समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
 टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।
......73
  तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
 भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।
...74
 दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
 उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।
...75
हुनर वो नही ,   जो लेना जाने ।
हुनर वो है ,      जो देना जाने ।
---76
तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
 रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।
..77
जज़्ब कर उस अस्र अक़्स को ,
   जो कहूँ मैं दुआ तुझको ।
अस्र .. समय
...78
वो यूँ दुआ का करम फ़रमाती है ।
बद्दुआएं अब बेरुखी फ़रमाती है ।
....79
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
...80
कैसी अदावत है आज महफ़िल की ।
खिड़कियां खुलती नही अब दिल की ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@....
 18/4/18

डायरी 3

शेर 61 से 65

...61
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
..62
 माँगकर अश्क़ मेरे हँसी बाँटने आए है ।
 वो हमें खुद से खुद यूँ काटने आए हैं ।
  ...63
ले हाथ रंग गुलाल ,
            निग़ाह मलाल लाए हैं।
  रहे बेचैन आज हम ,
             वो बहुत सवाल लाए हैं ।
...64
 धुल जाएगी रंगत शूलों की ,
                         टीस साथ निभाएगी ।
आती होली साल-दर-साल ,
                         होली फिर आएगी ।
....65
बेताब कदम मंजिल छूने को ।
जमीं बैचेन आसमां होने को ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
 19/3/18
डायरी 3

शेर 47 से 60

47
वक़्त ने यूँ आजमाया मुझे ।
वक़्त पे ही अपनाया मुझे ।
....48
बदलता ही रहा वक़्त से वक़्त भी ।
 बे-वफा ही रहा वक़्त से वक़्त भी ।
----49
तदवीर से न बदल वक़्त की फितरत को ।
बदल वक़्त क्या कहेगा तू  किस्मत को ।
..50
लफ्ज़ लिखता मिटाता रहा मैं ।
 यूँ वक़्त अपना बिताता रहा मैं ।
...51
 जाने वो क्या वक़्त की, अधूरी चाह रही ।
 कलम चलती रही,  ख़ामोश निग़ाह रही ।
..52
हौंसलो से हुनर,  मुक़ाम पता है ।
मुसाफ़िर अकेला , थक जाता है ।
..53
घोर निराशा जब तिमिर गहराती है ।
सूरज की आभा छाया गढ़ जाती है ।
.... 54
साहिल को ही सागर हांसिल है ।
सहता जो सागर की हलचल है ।
 ...55
देते रहे साथ मेरा वक़्त वक़्त पर वो ।
 साथ चले थे लफ्ज़ किताबो से जो
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
18/4/18
डायरी 3
...56
तपते रहे अल्फ़ाज़ तपिश अहसास से ।
 आते रहे जाते रहे ,वो अपने अंदाज से ।
.... 57
 हर जवाब से सवाल निकालता रहा।
 वो इस तरह मुझे खुद में ढालता रहा ।
.....58
 हक़ीम था वो कुरेद गया  जख्मों को ।
 उधेड़ गया वो कुछ याद जख्मों को ।
....59
सिया जब भी जिगर को अपने ।
 निशां रहे पैबंद दिखे जिगर पे ।
...60
  सवाल उठते रहे निग़ाह में ,
  निग़ाह से गुजरते हर शख्स के ।
.... 
 
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
18/4/18
डायरी 3

शेर 41 से 46


41
तारा टूटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।
ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।।
..42
सितारे की चाह है ,चाँद से इक़रार है ।
 चाँदनी आई साँझ ढले,शबनम बेकरार है ।
....43
  खामोशी ओढ़कर इजहार रहा ।
  बे-इंतहां  उसका कुछ प्यार रहा ।
....44
कोई खामोशी अपनी भी बयां करो ।
 कुछ लफ्ज़ अपने ज़िगर जुदा करो ।
...45
खोजते सभी  रास्ते यहीं कही हैं ।
चूकती निग़ाह,फासला दो पग नही है ।
... 45
 कैसे छोड़ दूँ मै शहर अपना ।
 अभी शहर में अजनबी बहुत है ।
....46
ख़ातिर खुशी की ,हँसता रहा बार बार ।
  मेरा आईना भी ,मुझसे रहा बे-ऐतवार ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
18/4/18
डायरी 3

शेर 35 से 40


  35
मेरे अश्क़ सामने गिरे मेरे अपनों के ही ।
 मुस्कुराहट गेरों में वफ़ा तलाशती रही ।
.36
 वो ज़मीं थी हरी भरी , मैं आसमाँ वीरान था ।
 कलरव थे दामन में उसके, मैं ख़ामोश सुनसान था ।
37
शब्दो के सफर में हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश मंजिल की ज़िंदगी गुजर जाती है ।
38
न समझ सका मैं वक़्त के मिजाज को ।
एक कल की खातिर भूलता आज को ।
39
 कहला सका न आदमी वो कभी ,
 वो भी तो आखिर एक इंसान था ।
40
"निश्चल" चला न चाह में   जिसकी ,
 मंजिल न थी दूर सामने जहान था ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
 18/4/18
डायरी 3

शेर 19 से 34

19
बस इतनी सी जुस्तजू (खोज)है ।
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।
20
  लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
   दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।
21
दूरियाँ नही दरमियाँ के,
                 अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
                   बिन शमा रोशनियों के ।
22
  उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
  देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है । 
23
मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
24
टूटता रहा ऐतवार से,
लड़ता रहा इख़्तियार से ।
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों से, 
हारते रहे शर्त-दर-शर्तो से ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@.....
 21/3/18
डायरी 3
25
ज़माने का रिवाज , कुछ बिगड़ा बिगड़ा है ।
देख सादगी हमारी हर शख़्स उखड़ा उखड़ा है ।
    ....26
जो भागे सत्य से , वो साहित्य कैसा।
 आईना दिखाता वही , जो है जैसा।
... 27
विवेक यह सफर विकल्प से संकल्प तक का ।
लगता सारा ज़ीवन "निश्चल" सफर दो पग का ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"©...
18/4/18

डायरी 3
28
खुशी न मिली, रंज के बाजार में ।
 लुटते हैं हम ,   यूँ ही बेकार में ।
.... 29
 न सजाओ ख़्वाब वफाओ के ।
 ख़्वाब मुसाफ़िर नही सुबह के ।
....30
ज़िंदगी यूँ भी करबट बदलती है।
 दुआओं से ही दुआएँ मिलती हैं ।
....31
वक़्त बदला वक़्त ने बदलकर ।
 साथ रहा न वो साथ चलकर ।
....32
कुछ यादों के ख़ंजर चुभते यादों में ।
घनघोर निशा रोइ "निश्चल" रातों में ।
...33
अभिलाषा अंबर की धरती छूने की ।
एक धुंधली साँझ तले स्वप्न संजोने की ।
....34
आवाज़ में मेरी कोई कशिश तो नही ।
फिर भी गुनगुनाता हूँ मैं कभी कभी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
18/4/18
डायरी 3



शेर 1से 18

1
डूबा न कभी मै बस तैरता रहा ।
 तिनके सा बजूद अखरता रहा ।
......2
 जुबां न कह सकी वो लफ्ज़ कह गए ।
 अल्फ़ाज़ मेरे अश्क़ से बहकर गए ।
.... 3
  संग पड़ा था जमीं गड़ा था ।
  तरकश कर खुदा कहा था ।
....4
शिद्दत से पुकारा इल्म सा सराहा उसने ।
 गढ़कर निगाह से बुत कह पुकारा उसने।
.....5
 सबब परेशानियों का ,फ़क़त इतना रहा ।
   तू परेशां न रहा ,    मैं भी परेशां न रहा ।
......6
   मोल न रहा मेरा कुछ इस तरह ।
 बेमोल कहा उसने कुछ जिस तरह ।
....7
मैं तेरे इस जवाब का क्या हिसाब दूँ ।
जिंदगी तुझे जिंदगी का क्या हिसाब दूँ ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
8
उठा दिया अपने घर का ,
 रौशनी दिखाने चला था । 
  उजियारे वो अपने  ,
   यूँ मिटाने चला था ।
....9
दिए जले जो रातों को ,
                  खोजते अहसासों को ।
  जलाकर अपनी बाती ,
                    टटोलते अँधियारों को ।
....10
एक मेरा भी अंदाज़ है , राख होने का ।
 सुलग आखरी कश तक,ज़िंदा रहने का ।
  ..11
 हराकर उम्र शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
 बुझे चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।
....
   .....विवेक दुबे"निश्चल"©....
12/2/18
डायरी 3

   12
मैं तेरे इस सवाल का , क्या ज़वाब दूँ ।
ज़िंदगी तुझे ज़िंदगी का , क्या हिसाब दूँ ।
...13
 छुअन की उसको , दरिया की चाह थी   ।
 बहता गया बस वो , निग़ाह में उसकी ।
...14
देख संग दिली दुनियाँ की, हैरां है बुत ।
  सोचता है खड़ा वो, मैं बुत या ये बुत ।
   ....15
लोटता है वो निग़ाह भर देख मुझे ।
 क्यों बुत समझ बैठता है वो मुझे ।
  ...... 16
उजाला जब भी चला है अंधेरों ने छला है
  ।
 रोशनी की चाह में ,सूरज तो बस जला है ।
  ....17
 मेरी प्रेरणा हो या नही ,नही जानता मैं।
 हाँ इतना पता है तुम से सीखा बहुत है ।
 ...18
हाँ मैं कुछ कहता हूँ कुछ लिखता हूँ ।
 बात कभी कभी किताबों से आंगे कहता हूँ ।
  ....... विवेक दुबे"निश्चल"@...
18/4/18
डायरी 3


मुक्तक जलती रेत

जलती रेत झुलसते पत्थर ,
          नीर उबलता सागर का ।
 प्यासा है टुकड़ा भी अब ,
         देखो सावन के बादल का ।
      .... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

लोग निग़ाह तोलते थे ।
         वो पत्थर भी बोलते थे ।
 चले न कभी साथ मेरे ,
          क्यों मेरे राज खोलते थे । 
 .... 
वहम सा पाला मुझको ।
       निगाहों में ढाला मुझको ।
 अपनों की महफ़िल में ,
         गैर बता डाला मुझको ।
.... 
दवा वो दर्द हो गया ।
          इश्क़ रुस्वा हो गया ।
 दुआएँ भी काम न आई ,
        फ़र्ज़ उसका अदा हो गया।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मुक्तक अतृप्ति भावों की


1...
  अतृप्ति यह भावों की ।
 संतृप्ति यह हालतों की ।
 आदि अनादि की परिधि से,
  सृष्टि चलती विस्तारों की ।

  .2..

जिव्हा शब्द से लद जाती है।
  मीठे कड़वे से फल लाती है ।
  सींच रहे है हम जिन भावों से ,
  मन की माटी फ़सल उगाती है ।
3.

      शब्द सरोवर हो जाते हैं ।
       सारंग नयन खिल जाते हैं ।
      तुहिन कण बिखेर भावों के  ,
      अर्थ कमल दल खिल जाते हैं ।
    .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
        रायसेन(म.प्र.)


.
  

मुक्तक ब-वाक हूँ

बे-वाक हूँ बेईमान नही ।
 भोला हूँ नादान नही ।
 पढ़ लेता हूँ निगाहों को ,
 हाँ चेहरों की पहचान नही ।
....
खुद्दार हूँ तल्ख मिज़ाज़ रखता हूँ ।
 जुबां हाज़िर जवाब रखता हूँ ।
भूलता नही कभी दोस्ती मैं ,
 पाई पाई का हिसाब रखता हूँ ।
.... 
मार्च क्लोजिंग  में कुछ हिसाब देख लूँ।
 कितना नगद रहा कितना उधार देख लूँ ।
  लिख लूँ  रोकड़ खाते आज फिर नए ,
 जो है मुनाफा उसे अपने पास देख लूँ ।
...
कर मंजूर हक़ीक़त को ।
 न इल्ज़ाम दे कुदरत को ।
  स्याह के बाद उजाले हैं ,
  देख तू आते दिनकर को ।
 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुक्तक यादें

कुछ यादों को ताजा कर ले ।
 आज शरारत सांझा कर लें ।
 जीते हैं मरने की ख़ातिर ,
 जीने का आज इरादा कर लें ।
... 
  तू इतर नही मुझसे ।
   क्यूँ बे-जिकर तुझसे ।
   मैं धुंध है गुबार का ,
   तू अब्र कहे किससे ।
.... 
इरत-भिन्न - दूसरा
...
हँसी लबों पे बेहिसाब रखो ।
 पर हर हँसी का हिसाब रखो ।
 मुस्कुरा दें ख़यालों में भी हम,
 तासीर रिश्ता यूँ इख़्तियार रखो ।
 .... 
वो साथ चला अँधियारों सा । 
 अहसास लिए उजियारों का ।
 चमक उठा वो जब जब ,
 जो ख़ौफ़ लगा अँधियारों का ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..

कुछ मुक्तक तात्कालिक

वही हुआ जिसका डर था ।
 प्यादे का बड़ा असर था ।
 शह खा बैठा प्यादे से वो ,
 चालों का जो माहिर था ।
... 
आज बदले से हालात हैं ।
 नही  रंग-ऐ-ज़ज्बात हैं ।
 धर्म मजहब के नाम पर ,
 बंट रहा वो लहू , जो साथ है ।
.... 
भागती हर गली सड़क मेरे शहर की ।
 बदली कुछ यूँ नियत मेरे शहर की ।
 छूटते अब हाथ से हाथों हाथ के ,
  उठतीं थीं बाहों में बाहँ विश्वास की ।
 ... ..
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
 मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
 था रंग लहू का एक सा सभी ,
 फिर यह लहू किसने फेंका था ।
 .....
 धर्म बिसात पर पांसा जात का खेला था ।
  बहा फिर जो लहू वो नहीं अकेला था।
   ले गया संग बहाकर जो बहुत कुछ,
   वो सब कुछ अपनों का मेला था ।
    ...
जब जब उसमे दोस्त देखा ।
 तब तब उसने ख़ंजर फेका  ।
 जख्म दिए हैं गहरे गहरे से ,
 वो ना-पाक नियत है कैसा ।
...
   अब क्या समझे क्या समझाएं ।
   अब तो आर पार ही हो जाए ।
   मरते है अब आम नागरिक भी ,
  रात अँधेरे गोली गोले चल जाए ।
.....
होने को बहुत कुछ होता है ।
 जो दिखता वो कहाँ होता है ।
 छला जाता जन हर बार ही ,
 जो होता है वो कहाँ होता है ।
 .... 

वो मरहम लगाने आए हैं ।
 ज़ख्म कुदेरने आए हैं ।
 भीड़ है गाँव मे बहुत मेरे ,
 फिर चुनाव के जमाने आए हैं ।
 .... 

 सांप निकल गया अब क्या होगा ।
 पीछे लाठी पीटे अब क्या होगा ।
 देश बंट चुका जात मजहब में ,
 खोखले वादों से अब क्या होगा ।
...
आज फिर मुद्दों के कुछ भूचाल उठे ।
आरक्षण कहीं मज़हब के भाल उठे ।
 खोतीं मर्यादाएँ फिर सारी की सारी ,
 बे-कसूर के आज फिर शीश कटे ।
....
चलते चालें कुटिल नीत की ,
कलजुग का प्रताप निराला ।
चारों ओर जयकारे उनके ,
  हाथों में फरेब का प्याला ।
  ...
किस किस के नक़ाब उतारोगे ।
 अपनों को ही गैरत से मारोगे ।
 लगा मुखोटे बैठे सिंहासन पर ,
 तुम अपनों से ही फिर हारोगे । 
..... 
चुप रहो ख़ामोश रहो ।
 दोषी को निर्दोष कहो ।
  असत्य सत्य जो जाए ,
 सत्य कैसे तब सिद्ध करो ।
   ...
जुर्म व्यापार हुआ ।
 फ़र्ज़ दाग़दार हुआ ।
  बैठा हुआ सड़क पर,
ईमान जार जार हुआ ।
  ... विवेक दुबे"निश्चल"@..
Blog post 16/4/18

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...