रविवार, 25 सितंबर 2022

वो ये जानते है शेर मुक्तक

 1047

वो ये जानते है कि हम नादान से है ।

उनकी साजिशों से हम अंजान से है ।


रिवाज़ नही बेहूदगी का मेरी दुनीयाँ में,

उस्ताद साजिशों के हम भी ईमान से है।


 लगते साजिशों में वो बड़े मुकम्मिल,

 इरादे उनके नजर आते शैतान से है ।


 करते है बातें वो दिलो में फाँसले की,

 न जाने किस बात के उन्हें गुमान से है।


  कायम है वो ज़ख्म तीर जुवान के ,

 ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ दिल में निशान से है ।



आये है तेरे घर में एक उम्र के वास्ते,

अब नही हम यहाँ तेरे मेहमान से है ।


.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

ब्लॉग स्पॉट 24/9/22

डायरी 7

 

रविवार, 18 सितंबर 2022

आस

 1046

*आस*


खो गए निग़ाह में अहसास हो कर ।

रात के साथ दिन की आस हो कर ।

 

मैं खोजता रहा क़तरा क़तरा वो , 

 जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।


  न मिल सका समंदर से वो दरिया ,

  आया था बड़ी दूर से सफ़र जो कर।


  जो चलता था उजालों के साये में ,

  खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।


  हँसता ही रहा हर हाल पर जो,

  हँसता है वो आज भी रो कर ।


"निश्चल" न चल राह पर और आंगे ,

 मंजिल मिले नही राह को खो कर ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@.

डायरी 7

ब्लॉग पोस्ट 19/9/22

आस

 1046

*आस*


खो गए निग़ाह को अहसास दे कर ।

रात के साथ दिन की आस दे कर ।

 

मैं खोजता रहा क़तरा क़तरा वो , 

 जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।


  न मिल सका समंदर से वो दरिया ,

  आया था बड़ी दूर से जो तर हो कर ।


  जो चलता था उजालों के साये में ,

  खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।


  हँसता ही रहा हर हाल पर जो,

  हँसता है वो आज भी रो कर ।


"निश्चल" न चल राह पर और आंगे ,

 मंजिल मिले नही राह को खो कर ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@.

डायरी 7

ब्लॉग पोस्ट 19/9/22

शनिवार, 10 सितंबर 2022

एक विस्तृत नभ सम

 1045

एक विस्तृत नभ सम ।

 भू धरा धरित रजः सम ।

         आश्रयहीन अभिलाषाएं ।

        नभ विचरित पँख फैलाएं ।

निःश्वास प्राण सांसों में ।

लम्पित लता बांसों में ।

         बस आशाएँ अभिलाषाएं ।

         ओर छोर न पा पाएं ।

   मन निर्बाध विचारों में ।

  जीवन के सहज किनारों में ।

   

          एक विस्तृत नभ सम ।

          भू धरा धरित रजः सम ।


   जब शशि गगन में आए ।

    निशि तरुणी रूप सजाए ।

          विधु भरता बाहों में ।

          विखरें दृग कण आहों में ।     

   प्रफुल्लित धरा शिराएं ।

    तृण कण जीवन पाएं ।

            अचल रहा दिनकर राहों में ।

             नव चेतन भर कर प्रानो में ।  

 नित माप रहे पथ की दूरी को ।

 छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।

        ये सतत नियति निरन्तर सी ।

        काल तले करती न अंतर सी ।     

    एक विस्तृत नभ सम ।

    भू धरा धरित रजः सम ।

            

  .. विवेक दुबे"निश्चल"@....

Blog post 18/7/18

डायरी 5(62)

यक्ष प्रश्न

1044

जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।

एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।


होश निग़ाहों से दुनियाँ  देखो ,

हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।

 

रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,

फिर भी मैखाने में मौन बड़ा है ।


फूल चमन में खूब खिले देखो ,

अंग अंग पर रंग,बे-रंग चढ़ा है ।


गले मिलें सब आँख मींचकर ,

साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।


अपनो की अपनी दुनियाँ में ,

अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।


ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,

"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 7

बुधवार, 7 सितंबर 2022

दर्या

 

1
जितना तू बे-ज़िक्र रहेगा ।
उतना तू बे-फ़िक्र रहेगा ।

चल छोड़ दे फिक्रें कल की ।
न छीन खुशियाँ इस पल की ।

न कर रश्क़ अपने रंज-ओ-मलाल से ।
कर तर खुदी को ख़ुशी के गुलाल से ।

दर्या हूँ वह जाऊँगा समंदर की चाह में ।
मिलेगा बजूद मेरा कही किसी निगाह में ।
.....
सहारे गर्दिश-ऐ-फ़रियाद में ,
रिश्तों की बुनियाद हुआ करते हैं ।
....विवेक दुबे निश्चल"@..
2
मिरी याद में जो रवानी मिलेगी।
  उसी आह को वो कहानी मिलेगी ।

मिली रूह जो ख़ाक के उन बुतों से ,
जिंदगी जिस्मों को दिवानी मिलेगी ।

मुझे भी मिला है जिक्र का सिला यूँ ,
नज़्मों में मिरि भी कहानी मिलेगी ।

  जहाँ राह राही मुसलसल चलेगा ,
  जमीं पे कही तो निशानी मिलेगी ।

  बहेगा तु हालात के दर्या में ही ,
   नही मौज सारी सुहानी मिलेगी ।

  सजाता रहा मैं जिसे ख़्वाब में ही ,
   उम्र वो किताबे पुरानी मिलेगी ।

   कहेगा जिसे तू निगाहे जुबानी,
  "निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
   
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(146)
2
सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।
बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।

होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,
होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।

बह गया दर्या ,  वक़्त का ही वक़्त से ,
करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।

थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,
ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।

"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,
झरते रहे निग़ाहों से ,  मलालात कुछ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(140)
3
जाने कैसी यह तिश्नगी है ।
अंधेरों में बिखरी रोशनी है ।

मचलता है चाँद वो फ़लक पे ,
बिखरती जमीं ये चाँदनी है ।

डूबता नहीं सितारा वो छोर का ,(उफ़्क)
मिलती जहाँ फ़लक से जमी है

सिमटा आगोश में दर्या समंदर के ,
जहाँ आब की नही कहीं कमी है ।

खिलता है वो बहार की ख़ातिर ,
बिखरती फूल पे शबनम नमी है ।

   चैन है नही मौजूद-ओ-मयस्सर ,
"निश्चल"मगर मुसलसल ये जिंदगी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

तिश्नगी/प्यास/तृष्णा /लालसा
डायरी 6(147)
4
भुलाए भूली , नही जाती वो रात ।
जेठ की तपिश ,चाँदनी का साथ ।

थी बड़ी हसीं वो ,पहली मुलाकात ।
ज़िस्म जुदा,लेकर रूहों को पास ।

दमकती बूंदे ,थरथराते लब पर ,
झिलमिल सितारों सा, अहसास ।

बहता सा दर्या , ज़ज्बात का ,
किनारों पे, बुझती नही प्यास ।

सिमेट कर , खुद में ही खुद को ,
  साथ डूब जाने को,   बेकरार ।

डूबता रहा,  न रहा बजूद कोई ,
उभरने की ,  न रही कोई आस ।

ज़ज्ब हुआ , समंदर में दर्या सा,
न रहा दर्या का,  कोई आभास ।

भुलाए भूली,  नही जाती वो रात ।
जेठ की तपिश ,चाँदनी का साथ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(150)
5
ये फूल गुलाब से ।
नर्म सुर्ख रुआब से ।

नादानियाँ निग़ाहों की ,
नजर आतीं नक़ाब से ।

कशमकश एक उम्र की ,
उम्र पे पड़े पड़ाव से ।

गुजरते रहे वाबस्ता ,
राहों के दोहराव से ।

थमता दर्या हसरत का ,
"निश्चल" बहता ठहराब से ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(155)
6
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का  दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
7
रूबरू ज़िंदगी ,घूमती रही ।
रूह की तिश्नगी, ढूँढती रही ।
रहा सफ़र दर्या का, दर्या तक,
मौज साहिल को ,चूमती रही ।
8
कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।
कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।
ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,
मगर नज़्र के मलाल से रहे।
......
9
मिटते रहे निशां निशानों से ।
बहते रहे दर्या अरमानों से ।
रुत बदलते ही रहे मौसम ,
लाते रहे बहारें दीवानों से ।
10
कुछ फैसले कुदरत के ।
मोहताज़ रहे शोहरत के ।
बहता रहा दर्या वक़्त का,
ग़ुम हुये पल मोहलत के ।
11
हर नया कल आज सा रहा  ।
ख़याल गुंजाइशें तलाशता रहा ।
डूबती उबरती कश्ती हसरतों की ,
दर्या-ए-सफ़र साहिल राबता रहा ।
..
12
मिलता ही रहा दर्या को ,
साथ किनारे का हरदम ।
छोड़ बहता ही चला दर्या ,
हाथ किनारे का हरदम ।
..
13
पाले जो ख्वाब छोड़ चल जरा ।
रुख हवाओं सा मोड़ चल जरा ।
बहता है दर्या किनारे छोड़कर ,
नाता साहिल से तोड़ चल जरा ।
14
751
ये बेचैन है मन ,और खामोश निगाहें ।
सांसों की सरगम पे, सिसकती हैं आहें ।

कैसे रहे कब तलक, कोई जिस्म जिंदा ,
मिलती नहीं अब ,जब जमाने से दुआएं ।

चला था सफर ,हसरतों को सिमटे हुए ,
चाहतों के दर्या ,सामने डुबाने को आयें ।

हो गई कातिल मेरी , वफाएं ही मेरी ,
न आ सके काम,जो अरमा थे लुटाए ।

बेचैन रहा खातिर, जिसके हर घड़ी जो,
"निश्चल" वो दर्द दिल,  किसको दिखाएं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6
Blog post 30/10/19
15
ग़म के दर्या में रंग खुशी का मिलाया जाये ।
क्युँ न इंसान को इंसान से मिलाया जाये ।
दूर हो जाये अदावत तब कोई बात बने ,
क्युँ न सभी को अब अपना बनाया जाये ।
एक टीस है दिलों में के मिटती ही नही ,
क्युँ न प्यार का अब मरहम लगाया जाये ।
....."निश्चल"@..
डायरी 7
Blog post 10/2/21
16
रुख हवा के साथ चला चल ।
खुद फ़िज़ा से हाथ मिला चल ।
बहकर सँग दर्या की धार में ,
जीत ज़ज्बात को दिला चल ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
17
764 ग़ज़ल

122-122-122-122

बहारों ने तुझको पुकारा भी होगा ।
मिलाने निग़ाहें संवारा भी होगा ।

झुकाकर निग़ाहें बड़ी ही अदा से ,
इशारों में दिल को हारा भी होगा ।

चढ़ा इश्क़ परवाज़ राहे ख़ुदा में ।
हुस्न आइने में उतारा भी होगा ।

चला हूँ डगर पे तुझे साथ ले के ,
कहीं तो मुक़द्दर पुकारा भी होगा ।

नही है सफर पे मुसाफ़िर अकेला,
मुक़ा मंजिल पे इक हमारा भी होगा ।

रहेंगे जहाँ पे सफर में अकेले ,
वहाँ पे दुआ का सहारा भी होगा ।

बहा है सदा साथ "निश्चल" दर्या के ,
कही तो युं मेरा किनारा भी होगा ।

     ....विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 4/2/20
डायरी 7

रिश्ते

 

1
अपने ही अपनो को जब ठगते है ।
मंजिल पर जाकर तब थकते है ।
जीवन में सम्बन्धों के गुलदस्तों में ,
रिश्ते नाते फ़िजूल से अब लगते है ।
2
बार बार प्रतिकार मिला है ।
अपनो से ये उपहार मिला है ।
संघर्षित इस जीवन पथ पर ,
पारितोषित बस हार मिला है ।
स्वार्थ भरे रिश्ते नातों में ,
कुटिल नयन दुलार मिला है ।
अपनो से अपनो के संवादों में,
शब्द शब्द व्यापार मिला है ।
हर कांक्षित आकांक्षा में ,
अस्वीकारित स्वीकार मिला है ।
पार चला जब मजधारो के ,
तब तट पर इस पार मिला है ।
बार बार प्रतिकार मिला है ।
अपनो से ये उपहार मिला है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
3
मैं चलता रहा ।
वो चलाता रहा ।
जीवन से बस कुछ,
इतना ही नाता रहा ।
हँसता रहा हर दम ,
दर्द होंठों पे सजाता रहा ।
बाँट के खुशियां दुनियाँ को ,
दर्द दिल में छुपाता रहा ।
होती रही निगाहें नम ,
अश्क़ दरिया बहाता रहा ।
जाता रहा दर पे रिश्तों के
पर न किसी को भाता रहा ।
हो सके न मुकम्मिल रिश्ते ,
रिश्तों को रिश्तों से मनाता रहा ।
"निश्चल" बस बास्ते  दुनियाँ के ,
अपनो को अपना दिखाता रहा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
4
खत्म हुआ अब सब ,
बस फ़र्ज निभाना बाँकी है ।
जीवन के मयखाने में तू ,
खुद ही खुद का साकी है ।
मदहोश नही है रिंद यहाँ  ,
फिर भी उसको होश नही ,
सुध खोई रिश्तों की मय पीकर ,
बस इतना ही ग़ाफ़िल काफी है ।
सोमपान सा रिश्तों का रस ,
जिस मद के अपने ही साथी है ।
आती मयख़ाने में रूह रात बिताने को,
लगती जिस्मों में रिश्ते नातों की झाँकी है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@....
5
रिश्ते भी जब न टिकते हो ।
स्वार्थ तले ही सब बिकते हो ।
मर्यादा कैसी तब सम्बन्धों की,
स्वांग सभी जब लिखते हो ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
6
रिश्ते खून के कभी दूर नही होते ।
रिश्तों में कभी क़सूर नही होते ।
झुकतीं है शाखें फूलों के बजन से,
दरख़्तों को गुमां मंजूर नही होते ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
7
..
रिश्ते तो अब मजबूरी है।
दिल से दिल की दूरी है ।
..निश्चल...
8
जो समझता होता ,आदमी को आदमी ।
बिगड़ते न  रिश्ते , क़ायम रहते लाज़मी
......निश्चल...
9
- राज़-ऐ-वक़्त ---

2122 , 12 12 ,22

दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।

छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।

ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।

खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।

रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।

जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।

राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

10
बदल रहीं है रीते सारी ,
आज नही कल जैसा है ।

रिश्ते नातों के कागज पर ,
उम्मीदों की रेखा है ।

ढ़लता है दिन धीरे-धीरे ,
  आते कल की आशा में ,

पर गहन निशा के आँचल में ,
कल को किसने देखा है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 7/3
Blog post 30/10/19
11
कुछ फर्ज निभाऊं कैसे ।
कुछ कर्ज चुकाऊं कैसे ।
दौड़ रहा लहुँ जो रग में ,
वो रिश्ते ज़र्द बनाऊं कैसे ।
....
12
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते है ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते है ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्ते में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते है ।
... ....
13
पिघलते गये  कुछ रिश्ते वो धीरे धीरे ।
निकलते गये ज़िदगी से जो धीरे धीरे ।
चलते  गये अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब के  ,
बदलते गये नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे ।
14
वो कुछ रिश्ते धीरे धीरे पिघलते रहे।
जो ज़िदगी से धीरे धीरे निकलते रहे ।
चलता रहा अंदाज़ नाज़ुक फ़रेब का ,
नर्म निग़ाहों को धीरे धीरे बदलते रहे ।
....
15
बर्फ बन तपिश झेलते रहे ।
खामोशी से रिश्ते फैलते रहे ।
होते रहे ज़ज्ब रुख़सार पर ,
अश्क़ निग़ाहों से खेलते रहे ।
....
16

(एक मुसल्सल ग़जल)

रास्ते मंजिल-ए-जिंदगी, जो दूर नही होते ।
ये सफ़र जिंदगी , इतने मजबूर नही होते ।

खोजते नही , रास्ते अपनी मंजिल को ,
जंग-ए-जिंदगी के,ये दस्तूर नही होते ।

साथ मिल जाता गर, कदम खुशियों का ,
ये अश्क़ पहलू-ए-ग़म ,मशहूर नही होते ।

जो बंट जाते रिश्ते भी, जमीं की तरह ,
रिश्ते अदावत के, ये मंजूर नही होते ।

"निश्चल" न करता , यूँ कलम से बगावत  ,
ये अहसास दिलों से, जो काफूर नही होते ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
17
है सब कुछ खेल नसीबों में ।
उलझे फिर भी तरकीबों में ।
सिमट रहे है अब रिश्ते नाते ,
राजा सब मन की जागीरों में।
18
चलती राहों का एक मुहाना होना है ।
गहरी रातों का भोर सुहाना होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहसासों की इन उलझी डोरों में ,
डोर कोई अब नई नही पिरोना है ।

जीवन के मनके मन के धागों से ,
अब जीवन मन में ही पिरोना है ।

चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहंकार के इस बियावान वन में ,
अब स्वाभिमान तुझे संजोना है ।

हार रहा तू नाते रिश्ते चलते चलते ,
जीत तले स्वयं को स्वयं का होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

राग नही हो कोई द्वेष नही मन में ,
अब राग रहित ही तुझको होना है ।

खोकर दुनियाँ को दुनियाँ में ही ,
अब ख़ुद को ख़ुद में ही खोना है ।

भटक रहा जो मन चलते चलते ,
"निश्चल"मन अब तुझको होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
19

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।

उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।

शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।

लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।

सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।

बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।

हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।

टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।

भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
20
इतना ही कर्ज़ रहा ।
के मैं बे-अर्ज़ रहा ।

      निभाता रहा रिश्ते ,
      यह मेरा फ़र्ज रहा ।
..
बदलता रहा तासीर ,
यह कैसा मर्ज़ रहा ।

       आया नही नज़र जो ,
       अश्क़ निग़ाह दर्ज रहा ।

हर ख़ुशी की ख़ातिर ,
हंसता एक दर्द रहा ।

  हर एक मुब्तसिम लब ,
  असर बड़ा सर्द रहा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

तबस्सुम/मुब्तसिम/मुस्कान
21
अल्फ़ाज़ के रहे यूँ असर ।
  मायने रहे क्युं बे-असर ।

     रात सर्द स्याह असरात की ,
    होती नही क्युं अब सहर ।

छोड़कर बुनियाद अपनी ,
मकां आज क्युं रहे बिखर ।

     चलते रहे एक राह पर ,
     रहे रिश्ते पर तितर बितर ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
22
शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

         सरल नही अब कोई कहीं ,
         अब पलते छल छंदों से रिश्ते ।

स्नेहिल महक उठे नही कोई ,
अब षडयंत्रो की गंधो से रिश्ते ।

      शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
      टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

स्वत्व तत्व की अभिलाषा में ,
अहम तले दबे द्वन्दों से रिश्ते ।

        स्वार्थ भाव की तपन तले ,
        उड़ते अपने रंगों से रिश्ते ।

शेष रहे अनुबंधों से रिश्ते ।
टूट रहे तटबंधों से रिश्ते ।

      ..विवेक दुबे"निश्चल"@...
(स्वत्व-अधिकार)
23
वो खमोशी के मंजर भी,
        गहरे से हो जाते है ।

मेरे आँसू जब जब उसकी,
       आँखों में आ जाते हैं ।

दर्द छुपे इस मन के ,
      उन आँखों में छा जाते है ।

रिश्ते अन्तर्मन से ,
    पुष्पित पूजित हो जाते हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
24
धूमिल धरा ,रश्मि हीन दिनकर है ।
अरुणिमा नही,अरुण की नभ पर है ।

तापित जल,नीर हीन सा जलधर है ।
रीती तटनी ,माँझी नहीं तट पर है ।

व्योम तले दबी अभिलाषाएं ,
आशाओं को डसता विषधर है ।

सीख चला वो अब धीरे धीरे ,
नियति लेती कैसे करवट है ।

रिक्त हुए रिसते रिसते रिश्ते ,
प्यासा सा अब हर पनघट है ।

  काल कला की चौखट से ,
"निश्चल" सी आती आहट है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
25
क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

बे-वफ़ा रहे है मुसलसल रिश्ते  ,
क्युं रिश्तों से वफ़ा दिखलाते हो ।

चलते तुम अपनी ही राह पर ,
चौराहों पर घुल मिल जाते हो ।

मिले आपस मे कुछ कदम को ,
कुछ साथ फिर ज़ुदा हो जाते हो ।

जाते तुम राह नई मंजिल को ,
तुम राह नई फिर कहलाते हो ।

नही मुक़म्मिल कभी कहीं कोई ,
मंजिल मंजिल रिश्ते गढ़ते जाते हो ।

छूट गया फ़िर पीछे कल को वो ,
आज मुक़ाम नया जो पा जाते हो ।

क्युं रिश्तों को अपना बनाते हो ।
क्युं दर्द अपना जुबां पर लाते हो ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
25
चल आज किनारा करते हैं ।
नजर अश्क़ सहारा करते है ।
तोड़कर रिश्ते पुराने सारे ,
हम इश्क़ दुवारा करते हैं ।
...
हसरत नही इरादा करते हैं ।
एक अधूरा वादा करते हैं ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले ,
जज्बात-ए-बहारा करते है ।
....
एक हसरत रही इरादों में ।
छूटता रहा कुछ वादों में ।
उकेरकर लफ्ज़ कलम तले,
हम बैठे जज्बा-ए-बहारों में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
26
मूल्य नही अब भावों के ,
हृदय शून्य विचारो से ।

होते मतलब तब तक,
तब तक मिलते यारों से ।

हित साधन शेष रहे ,
रिश्ते नाते दारों से ।

क्या मित्र क्या आँख के तारे,
स्वार्थ भरे सब उजियारे ।

रिश्ते बिकते बाज़ारो में ,
फिरते मारे मारे गलियारों में।

... विवके दुबे"निश्चल"@.
27
ना रहे याद हम ,
आज अंजानों से ।

       हसरतों की चाहत में ,
        खो गए पहचानों से ।

रीतते ज्यों नीर से ,
नीरद असमानों से ,

         बरसने की चाह में ,
         ग़ुम हुए निशानों से ।

  घिरती रही जिंदगी ,
अक़्सर उल्हानो से ।

           लाचार ही रही ,
          घिरकर फ़सानो से ।

घटते नही आज,
फांसले दिल के ,

            रिश्ते रहे आज "निश्चल" ,
            होकर म्यानों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
28
शब्द गिरे है कट कट कर ,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी ।

     धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
    सूखी अर्थो की फुलवारी ।
    अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
    शब्दों से शब्दों की लाचारी ।

मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
क्यों अब प्यार नहीं ।

       इंसानों की बस्ती में,
     यह कैसी आग लगी ।

अपनों ने अपनों को ,
शब्दों से ही भरमाया  ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया  ।

       सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
        रिश्तों का मान नहीं ।
        रिश्तों की नातों से अब ,
        पहले सी पहचान नही ।

   शब्द गिरे है कट कट कर,
   कविता लहूलुहान पड़ी ।
   इंसानो की बस्ती में ,
    यह कैसी आग लगी। .

         ...विवेक दुबे"निश्चल"@....
29
शब्द छूटते ,कुछ शब्द टूटते ।
फिर भी हम , शब्द कूटते .।

शब्दों में कुछ ,रिश्ते ढूंढते ।
भावों से नाते , सींचते ।

बस शब्दों से ,शब्द खींचते ।
अपनेपन के , बीज़ सींचते ।

अंकुरित हो कोई बीज ,बन वृक्ष विशाल ।
कर जाये कमाल हुए हम मालामाल ।

  वृक्ष पर मीठे ,फल आयें जब ।
  पंक्षी डाल डाल नीड़ बनाये तब ।

हुए शब्द सार्थक तब ।
             ....विवेक दुबे "निश्चल"@..
  30
यादों में बिखर जाते हैं ।
  रिश्ते यूँ निखर जाते हैं ।
         कटती उम्र ख़यालों सँग ,
          जो आगोश भर जाते हैं ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
31
शेष नही अब आज समर्पण,
होता है कुछ शर्तों पर गठबंधन ।
रिश्ते नाते सूखे तिनको से ,
एक चिंगारी से जलता घर आँगन ।
   ..32
रिश्तों की गर कोई जुवान होती ।
रिश्तों की कुछ और पहचान होती ।
न होते फिर दिल से दिल के रिश्ते ।
बाज़ारो में रिश्तों की दुकान होतीं ।
    ....विवेक दुबे "निश्चल"©...
33
  इस अर्थ युग मे अर्थ बोल रहा ।
रिश्तों का बस इतना मोल रहा ।
रिश्ते बस अब लाभ हानि के,
सोने सा रिश्तों का तोल रहा।
.......विवेक दुबे "निश्चल"©..

जीवन नही सरल है

 1021

जीवन नही कही सरल है ।

चलना ही जिसका हल है ।

घटता कुछ व्योम अंतरिक्ष में भी,

सागर तल में भी होती हलचल है ।

घूम रही है ,वसुंधरा धूरी पर ,

परिपथ में,जाने कैसा बल है ।

आई रजनी दिनकर के जाते ही,

चंदा सँग तारों की झिलमिल है ।

नव प्रभात की ,आशा में ,

रजनी से भी, होता छल है ।

बदल रहे है दिन, दिन से ही ,

यूँ होता, हर दिन का कल है ।

जीवन नही कही सरल है ।

चलना ही जिसका हल है ।

  ....."निश्चल"@..

डायरी 7


प्रणय मिलन

 1037

प्रणय मिलन की वेला में ,*

 *आलिंगन में तुम बंध जाओ ।*

 *साँसों के स्पंदन से तुम ,*

  *नव सृजन के भाव जगाओ ।*

*सिंचित कर स्वर अपने*

*सम्पूर्ण समर्पण से ,*

 *ये क्रम मधु मासों में ,*

 *बार बार तुम दोहराओ ।*

*प्रणय मिलन की वेला में ,*

 *आलिंगन में तुम बंध जाओ ।*

.... *विवेक दुबे"निश्चल"@* ....

डायरी 7

बार बार प्रतिकार मिला

 1040

बार बार प्रतिकार मिला है ।

अपनो से ये उपहार मिला है ।

संघर्षित इस जीवन पथ पर ,

पारितोषित बस हार मिला है ।

स्वार्थ भरे रिश्ते नातों में ,

कुटिल नयन दुलार मिला है ।

अपनो से अपनो के संवादों में,

शब्द शब्द व्यापार मिला है ।

 हर कांक्षित आकांक्षा में ,

अस्वीकारित स्वीकार मिला है ।

पार चला जब मजधारो के ,

तब तट पर इस पार मिला है ।

बार बार प्रतिकार मिला है ।

अपनो से ये उपहार मिला है ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 7


ये भी एक दौर है

 1041

वो भी एक दौर था ,

ये भी एक दौर है ।

वो न कोई और था ,

ये भी न कोई और है ।

 जिंदगी के हाथ में ,

चाहतों की डोर है 

जीतने की चाह में ,

 अदावतों का शोर है ।

 उम्मीदों के पोर पे ,

  हसरतों के छोर है ।

   छूटते आज में ,

  कल नई भोर है ।

 वो भी एक दौर था ,

 ये भी एक दौर है ।

..."निश्चल"@....

डायरी 7

कुछ फर्ज़

 1042

कुछ फ़र्ज़ निभाये जाते है ।

कुछ कर्ज़ चुकाये जाते है ।

रिश्तों के कंटक पथ पर ,

कुछ शूल हटाये जाते है ।

बनते है फिर मिटते है ,

 फिर खूब सजाये जाते है ।

 पास नही दिल के कोई ,

 पर पास बताये जाते है।

कुछ फ़र्ज़ निभाये जाते है ।

कुछ कर्ज़ चुकाये जाते है ।

सहज चले रिश्ते रिश्तों को,

वो एक आस लगाये जाते है ।

जिनमें है भाव समर्पण का ,

कुछ वो खास बनाये जाते है ।

देकर कुर्वानी खुशियों की ,

रिश्तों के कर्ज चुकाये जाते है ।

..."निश्चल"@...

डायरी 7

पहचानो की मोहताज

 1043

पहचान पहचानो की मोहताज रही ।

शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।

कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,

जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।

लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में  ,

पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।

निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,

दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।

  न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,

  मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।

   बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,

  "निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।


डायरी 7




सोमवार, 15 अगस्त 2022

आजादी

 लहर लहर लहराए तिरंगा ।

जन गण मन जब गाये जनता ।


अजर अमर कुर्बानी जिनकी ,

गीतों में वो गाथा गाये जनता ।


बलिदानी वीरों की यादों में ,

नयन सुमन सजाये जनता ।


... विवेक दुबे "निश्चल"@...

नील गगन में उठा स्वाभिमान से माथा ।

लिपट तिरंगे में सुना रहा वीरों की गाथा ।

रानी के जोहर की भस्म सहजकर ,

 उन बलिदानों की ये याद दिलाता ।

     ...."निश्चल"@....

डायरी 7

आजादी जब से मिली ,पाये दिन अनमोल ।

जो प्राणों को हुत किये, उनकी जय जय बोल ।।

उनकी जय जय बोल , करो यादों को ताजा ।

गाओ गीतों संग, अमर वीरों की गाथा ।।

फिजां हुई रंगीन , महकती है अब वादी।

पाए दिन अनमोल , मिली जब से आजादी ।

...."निश्चल"@...

ये परचम जो लहराया है

 


ये परचम जो लहराया है ।

राष्ट्रबाद लेकर आया है ।


भोर सुनहरी किरणो सँग,

सूरज भी इतराया है ।

नवल धवल पवन चले ,

मकरंद भरा झोंका आया है ।


ये परचम जो लहराया है ।

राष्ट्रबाद लेकर आया है ।


चमक रहीं किरणें चँदा की ,

निशि ने खुद को बौराया है ।

दमक रहा हिमालय भी ,

सागर को आँचल में लाया है ।


ये परचम जो लहराया है ।

राष्ट्रबाद लेकर छाया है ।


नव चेतन जन मन में ,

जन ने जन को जगाया है ।

हर घर पर फहराता तिरंगा ,

चहु और तिरंगा छाया है ।


ये परचम जो लहराया है ।

राष्ट्रबाद लेकर छाया है ।


बड़ा नही कुछ मातृभूमि से ,

ये संदेशा आज सुनाया है ।

एक साथ खड़े हम दृणता से ,

दुनियाँ को आज दिखाया है ।


 ये परचम जो लहराया है ।

राष्ट्रबाद लेकर आया है ।


...विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 7


अमृत महोत्सव

स्वाभिमानी की लालिमा,

दमक रही है भारत के भाल पे ।

प्रफुल्लित है जन गण मन,

   बदले से इस हाल पे ।

 कर करता है अब यह बातें अपनी ,

आंखों में आंखें डाल के।

 स्वाभिमान की लालिमा,

 दमक रही है भारत के भाल पे।

सहम रहा है हर शत्रु,

 इसकी शेरों जैसी चाल से ।

कुचल रहा है अब सारे विषधर ,

आस्तीन में जो रखे थे पाल के ।

 मूक नहीं है अब यह माटी ,

गर्जन करती विपुल विशाल से ।

निरीह ही नहीं है अब हम ,

जीते हैं हम अपने ही ख्याल से ।

सहम रहा है हर शत्रु "निश्चल"",

 इस भारत माता के लाल से ।

स्वाभिमान की लालिमा ...

विवेक दुबे निश्चल







गुरुवार, 9 जून 2022

आँख ,,,, शेर


 

1
गिरा चश्म अश्क़,  हेफ बेमतलब ।
सिमटी निग़ाह में, सिसकियाँ कही ।
.... ..हैफ़ / अफसोस
1
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
1
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
2
आँख बंद करने से अंधेरा घटता नहीं ।
आता भोर का सबेरा अंधेरा टिकता नही ।
3
एक दोष रहा मेरे होने का ।
कुछ पाकर कुछ खोने का ।
साँझ ढ़ले बोझिल आँखें ,
भोर तले स्वप्न पिरोने का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
3
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
3
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने 
4
वो इल्म क्यूँ भार सा रहा ।
वो हुनर से ही हारता रहा । 
क़तरे थे आब के आँखों मे ,
वो खमोश नज़्र निहारता रहा ।
4
यह निश्चल नयन सजल से ।
बह जाते थोड़े से अपने पन से।
कह जातीं यह आँखे सब कुछ ,
बरसी जब जब सावन बन के ।
5
एक यही कमी रही मुझमे ।
आँखों की नमी रही मुझमे ।
कहता जमाना संग के माफ़िक ,
  निग़ाह न उसने पढ़ी  मुझमे ।
....5
समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
6
कह जातीं कुछ कह जातीं आँखे ।
  अहसासों को झलकातीं आँखे ।
   बह कर झर झर निर्झर निर्झर ,
  कह जातीं सब कह जातीं आँखे ।
.......
6
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का  दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
7
जागती आँखों से ख़्वाब देखता हूँ ।
ऐ चाँद मैं तुझे बे-हिसाब देखता हूँ ।
उतरता नही तू क्यों जमीं पर कभी,
तुझे निग़ाह-ऐ-आस- पास देखता हूँ ।
... 7
ख़्वाबों के तसब्बुर में कुछ जज्बात लपेटे हुए। 
अहसासों के तन पे वक़्त के हालात लपेटे हुए ।
गुज़र गए इस बारिश से उस बारिश तक ,
आँखों में अश्कों की सौगात लपेटे हुए ।
       ......विवेक दुबे"निश्चल"@...
8
वक़्त ही वक़्त को ,हालात से ठेलता है ।
आज ये कौन,आँख मिचौली खेलता है ।
बहा आब क़तरा ,दरिया से समंदर तक ,
ठोकरे यह ज़िस्म, तन्हा तन्हा झेलता है।
9
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने ।
9

हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का  दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
......
9
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
---
10
दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।

फैलते रहे दरिया से किनारे पे  ,
दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।
.... 
11
ग़ुम हुए साये भी यहाँ इस कदर ।
पराया सा लगता है अपना शहर ।
है नही आब आँख में अब कोई ,
बेअसर सा हुआ हर निग़ाह असर ।
12
आँखों में भरे अश्क़ बहाये न गये ।
रूठ कर आज अपने मनाये न गये ।

कह गये बात तल्ख़ लहज़े में वो ,
नर्म अल्फ़ाज़ जुवां पे सजाये न गये ।

उठाते रहे हर नाज़ बड़े सलीक़े से ,
अहसास फ़र्ज़ कभी दिलाये न गये ।

हो गये गैर अपने गैर की ख़ातिर ,
अपने कभी मग़र भुलाये न गये ।

सह गये हर चोट बड़े अदब से हम ,
ज़ख्म "निश्चल" कभी दिखाये न गये ।
...."निश्चल"@.
13
687

सच हर किसी को बताया नही जाता ।
बे-बजह कहीं मुस्कुराया नही जाता ।

मेरे न आने की शिकायत न करना ,
बिन बुलाये कहीं जाया नही जाता ।

माना के हैं बड़ी रौनकें तेरी इस महफ़िल में ,
यूँ मगर सामने से शमा को उठाया नही जाता ।

बह कर जाने दे आँख अश्क़ क़तरों को ,
रोककर इन्हें निग़ाह में सताया नही जाता ।

कहता हूँ हर ग़जल खुशियों की ख़ातिर,
दर्द दिल में अब और बसाया नही जाता ।

लूटती ही रही मुझे दुनियाँ अहसानों से ,
ईमान कोई मुझसे अब लुटाया नही जाता ।

छूटता नही दामन भलाई का "निश्चल"
सिला नेकी का असर ज़ाया नही जाता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
14
बह्र -- 212 212 212

रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा  ।

मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा  ।

उधड़ते ख़्याल ख्वाब तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।

आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
फ़िक़्र से देख नज़्र हिल जरा  ।

खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास वो मंजिल जरा ।

हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत अब "निश्चल"जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
15
कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।

उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।

शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।

लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।

सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।

बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।

हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।

टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।

भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
16
हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।

उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।

आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
    
     खो गया क़तरा सा समंदर में ,
    बस इतनी ही एक दखल मेरी ।

मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।

     मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
     हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
17
वो खमोशी के मंजर भी,
        गहरे से हो जाते है ।

मेरे आँसू जब जब उसकी,
       आँखों में आ जाते हैं ।

दर्द छुपे इस मन के ,
      उन आँखों में छा जाते है ।

रिश्ते अन्तर्मन से ,
    पुष्पित पूजित हो जाते हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
18
610
उसे देख देख वो ठहर गया ।
देकर जो यूँ कुछ नजर गया ।

दूर था कल तक निग़ाह के ,
धड़कन बन आज उतर गया ।

सजाकर महफ़िल दिल की ,
क़तरा क़तरा सा निखर गया ।

गिरा न क़तरा आँख से कभी ,
एक अश्क़ निग़ाह सँवर गया ।

करता रहा फरियाद मुंसिफ़ भी ।
दौर ज़िरह का यूँ मुकर गया ।

ग़ुम हुए हर्फ़ हर्फ़ किताबों से ,
रफ्ता रफ्ता लफ्ज़ असर गया ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@..
19
599
निखर चला चल , मन भीतर से ।
श्रृंगारित छण बन , मन भीतर से ।

आत्म भाव गुन , मन भीतर से ।
अवचेतन धुन सुन, मन भीतर से ।

बैर रहे न , राग द्वेष रहे कोई ,
"निश्चल" बन जा , मन भीतर से ।

ज्योत जलेगी तब , अन्तर्मन में ,
प्रगट हरि जब , मन भीतर से ।

न मचल लहरों पे ।
डूब जा किनारों पे ।

कर यक़ीन इतना ,
डूबने के इरादों पे ।

मिल जाएगी मंजिल ,
छोड़ते ही सहारों  के ।

है निग़ाह तू हरदम ,
है उसके दुलारों में ।

तू आँख तो मिला ,
बस उसके नजारों से ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
20
589
शांत साँझ सुप्त निशा है ।
दिनकर भी लुप्त हुआ है ।

टूट रहे तारे भी अब अंबर से ,
अंधियारों ने अभिमान छुआ है ।

बस उठे हुए है हाथ हवा में ,
आँखों में अब नही दुआ है ।

धरती की आशाओं को ,
धीरे धीरे बैराग्य हुआ है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
21
580
ठहर जरा इनायत का करार है ।
क्युं नज़्र निग़ाहों को इंतज़ार है ।

ठहर जरा, इनायत का इतना करार है ।
क्युं निग़ाहों का,निग़ाहों को इंतज़ार है ।

है सँग निग़ाह, संग सा सख्त जो ,
क्युं दिल को, उसका इख़्तियार है ।

जला है जो, मेरे वास्ते अंधेरों में ,
क्युं यही उसका, इश्क़ इक़रार है ।

सुखाता रहा , आब आँख में अपनी ,
क्युं करता नही ,दर्द अपना इज़हार है ।

चलता है जो, साथ सख़्त राहों पर ,
क्युं मंजिल का, वो भी तलबगार है ।

लिखता रहा , सफ़े वास्ते जिसके,
क्युं सुनता,वो मुझे मेरे अशआर है ।(दोहे)

करती रही ,  बयां,हालात को सूरत  ,
"निश्चल" नही , चेहरा-ए-असरार है ।(रहस्मय)

... विवेक दुबे"निश्चल"@..
22
557
कुछ शब्दों की सिकुड़न सी ।
कुछ भावों की जकड़न सी ।
आश नही कोई आँखों में ,
भूखी आंतो की कतरन सी ।
.
सिहर उठा हिमालय भी ,
धड़की जब धड़कन सी ।
नींद नही अब आँखों में ,
निग़ाह थमी तड़फन सी ।

रीत रहा दिनकर दिन से ,
सांझ नही अब दुल्हन सी ।
उठतीं लहरें सागर तट से ,
लौट चली अब बेमन सी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
23
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा,तापित तन ।

भोली सी इन आँखों से ,
खोता है क्यों चंचलपन ।

वांट रहे हैं,जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।

रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।

ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।

इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।

भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।

खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।

छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा, तापित तन ।

लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।

झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।

राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।

छुब्ध हृदय , शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
24
खो गए निग़ाह से अहसास दे कर ।
रात के साथ दिन की आस दे कर ।

खोजता रहा क़तरा क़तरा वो , 
जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।

  ना मिल सका समंदर से वो दरिया ,
  आया था बड़ी दूर से जो बह कर ।

  वो चलता था उजालों के साये में ,
  खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।

हंसता ही रहा हर हाल पर जो ,
  हँसता है वो आज भी हँसकर ।

"निश्चल" ना चल राह पर और आंगे ,
मंजिल मिले नही राह को खो कर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.
25
     कोई घायल हुआ ।
     कोई कायल हुआ ।

     छोड़कर आँख को ,
    बहता काजल हुआ ।

    ढलक रुख़सार से ,
    ज़ज्ब आँचल हुआ ।

     उड़ गया बूंद सा ,
   आसमां बादल हुआ ।

    जीतकर हालात को ,
   अश्क़ "निश्चल" हुआ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
26
तृष्णा मन की आज,
उजागर कर दी,आँखों ने ।
         सकल ब्रम्हांड सरीखी,
         झलकी इन आँखों से ।
.
प्रारम्भ शून्य अंत शून्य है ,
  तुझमे ही रहना है ।
बस तुझमे ही तो खोना है ।
.
  मिथ्या सब कुछ है यह ,
  जगत सपन सलोना है ।

         निकल शून्य से ,
         शून्य ही फिर होना है ।
        .....विवेक दुबे...
27
खामोशी कहतीं अक्सर ।
  लिखता मिटता सा अक्षर ।

       सजाकर रात सुहाने तारों से  ,
       आँख चुराता चँदा अक्सर ।

देख रहा वो आँख मिचौली ,
दूर छिपा नभ बैठा दिनकर ।

        चाहत में झिलमिल तारो की,
         वो आ जाता अक्सर ।

दिन के उजियारों में भी ,
चाँद नजर आता अक़्सर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
28
जीवन की इस
मृग मरीचिका का ,आकर्षण।
तेरा मन, मेरा मन,यह पागलपन ।

कैसी यह ,
मन की ,मन से उलझन ।
उठती गिरती साँसे ,
घटती बढ़ती धड़कन ।

सूनी आँखे ,नेह भरी आँखे ।
कैसे सुलझे यह उलझन 
तेरा मन, मेरा मन ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
29
खुशियों के गीत लिखूं ।
............. यादों के संगीत लिखूं ।
विरह भरी वो रात लिखूं ।
........मधुर मिलन की याद लिखूं ।
.
स्वप्न संजोती साँझ लिखूं ।
.... भुंसारे की अलसाई आँख लिखूं ।
अहसासों के हर अहसास लिखूं। 
..............खासों में तू खास लिखूं ।
.
तुझ पर फिर एक गीत लिखूं ।
......हृदय बसा हर एहसास लिखूं।
स्वप्न सलोनी वो याद लिखूं।
......... प्रियतम से फ़रियाद लिखूं।
.
तुझको मन मीत लिखूं ।
...............कैसी यह प्रीत लिखूं।
खुशियों के गीत लिखूं  ।
..............यादों के संगीत लिखूं  ।
   ....विवेक..
30
  समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
..31
हालात दिलों के तुम दिखा क्यों नही देते ।
येअश्क़ निगाहों से तुम गिरा क्यों नही देते ।

उठता है समंदर में तूफान जो कोई ,
साहिल से उसे तुम मिला क्यों नही देते ।

अरमान उठा जो आज उस दिल में ,
इस ज़िस्म में तुम गला क्यों नही देते ।

छेड़कर नग़मे प्यार के फिर कोई ,
जज़्बात दिलों के तुम जगा क्यों नही देते ।

ठहरा हूँ साहिल पर समंदर की चाह में ,
आँखों से अपनी दरिया पिला क्यों नही देते ।
आज बरस जाऊँ बून्द बून्द सा मैं ,
बारिश सा तुम मुझे सिला क्यों नही देते ।

"निश्चल" ही रहा हूँ अब तलक मैं ,
मुसाफ़िर तुम मुझे बना क्यों नही देते ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
32
बदलते रहे वक़्त अहसास के ।
चलते रहे ज़िस्म सँग सांस के ।

थमती रहीं निगाहें  बार बार ,
अपनी कोरों में अश्क़ लाद के ।

किनारे भी रूठे रहे अक्सर,
दरिया भी जिनके साथ के ।

न क़तरा था वो शबनम का ,
थे अश्क़ वो किसी आँख के ।

लो खो रही सुबह फिर ,
हो साथ अपनी शाम के ।

  सँग सा था वो तो "निश्चल"  ,
बरसे अश्क़ क्युं जज़्बात के ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
33
आँख की नमी से समंदर नम था ।
होंसला इतना चट्टानों सा दम था ।

वो था अकेला काफ़िला मुकम्मल ।
हारता हर घड़ी जीतने धरता कदम था ।

राह की ठोकरों को बनाता मरहम ।
वो न था कोई और मेरा हम था ।
  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ..
34
मेरी तीरगी-ऐ-रोशन उजाले न हुए ।
सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।

छोड़ गए वो दामन लम्हा लम्हा ,
वो अश्क़ आँख के निवाले न हुए ।

  ख़ामोश है अब आज लब भी ये  ,
तबस्सुम के जिनको सहारे न हुए ।

न रहा रंज भी पास अब कोई ,
जो ग़म के हम हवाले न हुए ।

  छुपता नही रोशनी की ख़ातिर ,
  यह अँधेरे ही मेरे पुराने न हए ।

  गुमां न था मुझे मेरे ऐतवार पर ,
  हालात मगर  मेरे दीवाने न हुए ।

सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
35
स्वप्न सलोने , जागे कुछ सोए से ,
यादों के बदल , खोए खोए से ।

पोर नयन तन , कुछ मोती ढलके ,
कुछ हँसते से,  कुछ रोए रोए से ।

जीत लिया सब , जिसकी खातिर ,
उसकी ही ख़ातिर , हार पिरोए से ।

  सँग सबेरे उठ , फिर चलना होगा ,
रात अँधेरी , आँखे भर रोए रोए से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
36
चुप रहने का भी ,
हुनर सिखाती आँखे।

                  चुप रह कर भी,
                   सब कह जातीं आँखे।

  शब्द गुंजातीं साँसों में ।
  नज़र आते आँखों में ।

               उठती पलकें ,गिरती पलकें ।
               भींगी पलकें, सूखी पलकें ।

शून्य में कुछ लिखती आँखें।
  भावों को बरसाती आँखें ।

       .....विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
37
भेद भाव करतीं आँखें।
मन भरमातीं आँखें ।
           साँझ तले के मौन से ,
           निशा गहरतीं आँखे ।

भेद भाव करती आँखे ।
भावों में बंट जातीं आँखे।
            दर्द घनेरे बादल से,
           पीर नीर छलकाती आँखे।

भेद भाव करतीं आँखे ।
पल में भेद बतातीं आँखे।
                गहन निशा तम संग,
                जुगनू बन जाती आँखे ।

भेद भाव करतीं आँखे।
  सब कह जाती आँखें।
               खुशियों के झोंकों में,
              मौन तले मुस्काती आँखे।

भेद भाव करतीं आँखे ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
38
आशा के गीत सुनाती आँखें ।
खुशियों के भाव सजतीं आँखें ।

सोच खुश हो जातीं आँखें ।
जो कुछ पा जातीं आँखें  ।

मोती फ़ूल झराती आँखें।
सब कह जातीं आँखे ।

यादों मे खो जातीं आँखे ।
भर तर हो जातीं आँखे ।

खुशियों से मुस्काती आँखे ।
जब स्वप्न सजाती आँखे ।

ठेस लगी सूनी हो जातीं आँखें ।
निराशा बादल बरस जातीं आँखें ।

यह आँखे तेरी आँखे ।
यह आँखे मेरी आँखें ।
      ....विवेक दुबे"निश्चल"@..
   39

आईने आईना

 

1
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।
2
ख़ातिर खुशी की ,हँसता रहा बार बार ।
  मेरा आईना भी ,मुझसे रहा बे-ऐतवार ।
3
जो भागे सत्य से , वो साहित्य कैसा।
आईना दिखाता वही , जो है जैसा।
4
तपिश  निग़ाह से पिघल उठे  ।
शाम तले चराग़ हम जल उठे ।
भूलता नही मैं उस अंदाज को ।
  चुपके से तुम ख़्वाब मचल उठे  ।
  लौटना है एक दिन बून्द सा उसे ,
  जो अहसास-ऐ-समंदर बदल उठे ।
चमके सितारे आसमाँ पे नाज से ,
हो ख़ाक एक दिन जमीं से मिल उठे ।
सुकूँ न खोज तू और कि निगाहों से ,
देख आईना जो तुझे देख खिल उठे ।
    . विवेक दुबे"निश्चल"@.
5
तलाश सी फुर्सत की ।
वक़्त की ग़ुरबत सी ।

देखते ही रहे आईना ,
निग़ाह से हसरत की ।

आरजू-ऐ-जिंदगी रही ,
वक़्त की करबट सी ।

चाहकर भी न मिली ,
चाहत सी मोहलत की ।

तलाशता रहा सफ़ऱ ,
शोहरत की दौलत सी ।

.... *विवेक दुबे"निश्चल"*@...
6
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
  मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।

        सजा लूँ मैं अपने आप को ,
         ज़ज्व कर चुभती फ़ांस को ।

ज़ख्म मेरा भी भरा होगा ।
कल मेरा भी सुनहरा होगा ।

           जीतूँगा मैं भी आकाश को ,
           न हार कर अपने विश्वास को ।

जमाना नजर भर रहा होगा ।
  जो मुकाम मेरा रहा होगा ।

     मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
      मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।

           ....विवेक दुबे "निश्चल"@..
7
सफ़ल न हो सका मैं हालात से ।
लिपटा रहा विफ़लता के दाग से ।

  जीत न सका जंग अल्फ़ाज़ की ,
  हारता ही रहा मैं अपनी जात से ।

दिखाते जो आईना मुझे अक़्सर ,
दूर हैं क्यों निग़ाह-ऐ-ऐतवार से ।
 
छुपा कर रंजिशें दिल में अपने ,
मिलते रहे वो बड़े आदाब से ।

  रंज न कर कोई तू ऐ "निश्चल" ,
   हारते अपने अपनों के वार से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
8
हर चेहरा शहर में नक़ली निकला ।
  एक आईना ही असली निकला ।
  लिया सहारा  जिस भी काँधे का ,
   वो काँधा भी  जख़्मी निकला ।
... "निश्चल"@...
9
रौनकें जिंदगी आईने बदलती है ।
जैसे जैसे जिंदगी साँझ ढलती है ।
गुजरता कारवां मक़ाम से मुक़ाम तक ,
  तब जाकर ही मंजिल मिलती है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
10
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
..."निश्चल"@....
11
ये उम्र जब पलटने लगती है ।
निगाहों से झलकने लगती है ।
होते है तजुर्बों के आईने सामने,
चश्म इरादे चमकने लगती है ।
....."निश्चल"@.....
12
मैं आईने सा हुनर, पा, न पाया ।
जो सामने आया, दिखा, न पाया ।
मैं छुपाता रहा, अक़्स, दुनियाँ के ,
मैं ख़ुद को ख़ुद में, छिपा, न पाया ।
....निश्चल"@.
13
रख जरा तू सामने आईने अपने ।
तू पूछ जरा खुद से मायने अपने ।
पाएगा खुद में ही खुद आपको ,
अपनी निगाहों के सामने अपने ।
...."निश्चल"@.....
14
हुए जब आईने के हवाले हैं ।
दिए आईने ने हमे सहारे हैं।
  सहारा दे सच के दामन को ,
झूठ के सारे नक़ाब उतारे है।
...."निश्चल"@.....
15
कभी अपने आप को ,
               आईने में रखना तुम ,
खुद को अक़्स से ,
                आईने में झकना तुम ।
कहता है क्या फिर,
                 अक़्स तुम्हे देखकर ।
  वयां कर अल्फ़ाज़ में,
                  अपने लिखना तुम ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
...... "निश्चल"@...
16
अक़्स आईने में देखो यदा क़दा ।
खुद को पहचानते रहो यदा कद ।
न ऐब लगाओ दुनियाँ को कभी ,
ऐब अपने तो खोजो  यदा कदा ।
........ "निश्चल"@...
17
आइनों ने भी आईने दिखाए हमें ।
यूँ अक़्स अपने नज़र आए हमें ।
दूर रखकर दुनियाँ की निगाहों से,
तन्हा होने के अहसास कराए हमें।
....... "निश्चल"@...
18
आइनों ने भी भृम पाले हैं ।
रात से साये दिन के उजाले हैं ।
निग़ाह न मिला सका खुद से वो,
ऐब दुनियाँ में उसने निकले हैं ।
......... "निश्चल"@...
19
आइनों ने अक़्स उतारे हैं ।
जब आइनों में झाँके हैं।
जिंदा रखते है ज़मीर यूँ,
  खुद को आइना दिखाते हैं ।
..... ... "निश्चल"@...
20
हर चेहरा शहर में नक़ली निकला ।
  एक आईना ही असली निकला ।
  लिया सहारा  जिस भी काँधे का ,
   वो काँधा भी  जख़्मी निकला ।
... "निश्चल"@...
21
काश! आइनों के लव न सिले होते ।
काश! आईने भी बोल रहे होते।
तब,आईने में झांकने से पहले ।
हम,सौ सौ बार सोच रहे होते ।
....... "निश्चल"@...
22
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने ।
...... "निश्चल"@...
23
सफ़र-ऐ-तलाश हम ही ।
  सफर-ऐ-मुक़ाम हम ही ।
रख निगाहों को आईने में,
  ख़्वाब-ऐ-ख़्याल हम ही ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
24
ये जिंदगी कब कहाँ गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स ख़्वाब के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
25
आइनों में नुक़्स निकाले न गये ।
ऐब हमसे कभी सम्हाले न गये ।
कहते रहे हर बात बे-वाकी से ,
इल्ज़ाम बे-बजह उछाले न गये ।
..... .
26
आइनों से खुद को मैं छुपाता रहा ।
बस अक़्स उसको मैं दिखाता रहा ।
छुपाकर सलवटें अपने चेहरे की ,
आइनों से निग़ाह मैं मिलाता रहा ।
....
27
अक़्स आईने में देखो यदा क़दा ।
खुद को पहचानते रहो यदा कद ।
न ऐब लगाओ दुनियाँ को कभी ,
ऐब अपने तो खोजो  यदा कदा ।
.....28
आइनों ने भी आईने दिखाए हमें ।
यूँ अक़्स अपने नज़र आए हमें ।
दूर रखकर दुनियाँ की निगाहों से,
तन्हा होने के अहसास कराए हमें।
....29
आइनों ने भी भृम पाले हैं ।
रात से साये दिन के उजाले हैं ।
निग़ाह न मिला सका खुद से वो,
ऐब दुनियाँ में उसने निकले हैं ।
......30
आइनों ने अक़्स उतारे हैं ।
जब आइनों में झाँके हैं।
जिंदा रखते है ज़मीर यूँ,
  खुद को आइना दिखाते हैं ।
..... 31
हर चेहरा शहर में नक़ली निकला ।
  एक आईना ही असली निकला ।
  लिया सहारा  जिस भी काँधे का ,
   वो काँधा भी  जख़्मी निकला ।
... 32
काश! आइनों के लव न सिले होते ।
काश! आईने भी बोल रहे होते।
तब,आईने में झांकने से पहले ।
हम,सौ सौ बार सोच रहे होते ।
....33
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने ।
...34
सफ़र-ऐ-तलाश हम ही ।
  सफर-ऐ-मुक़ाम हम ही ।
रख निगाहों को आईने में,
  ख़्वाब-ऐ-ख़्याल हम ही ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
35
आइनों ने अक़्स उतारे हैं ।
जब आइनों में झाँके हैं।
जिंदा रखते है ज़मीर यूँ,
  खुद को आइना दिखाते हैं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....



रविवार, 5 जून 2022

शेर

 

1
विवेक यह सफर विकल्प से संकल्प तक का ।
लगता सारा ज़ीवन "निश्चल" सफर दो पग का ।
2
डूबा न कभी मै बस तैरता रहा ।
तिनके सा बजूद अखरता रहा ।
......3
जुबां न कह सकी वो लफ्ज़ कह गए ।
अल्फ़ाज़ मेरे अश्क़ से बहकर गए ।
......4
शिद्दत से पुकारा इल्म सा सराहा उसने ।
गढ़कर निगाह से बुत कह पुकारा उसने।
.....5
सबब परेशानियों का ,फ़क़त इतना रहा ।
   तू परेशां न रहा ,    मैं भी परेशां न रहा ।
......6
   मोल न रहा मेरा कुछ इस तरह ।
बेमोल कहा उसने कुछ जिस तरह ।
....7
मैं तेरे इस जवाब का क्या हिसाब दूँ ।
जिंदगी तुझे जिंदगी का क्या हिसाब दूँ ।
..
8
उठा दिया अपने घर का ,
रौशनी दिखाने चला था ।
  उजियारे वो अपने  ,
   यूँ मिटाने चला था ।
....9
दिए जले जो रातों को ,
                  खोजते अहसासों को ।
  जलाकर अपनी बाती ,
                    टटोलते अँधियारों को ।
....10
एक मेरा भी अंदाज़ है , राख होने का ।
सुलग आखरी कश तक,ज़िंदा रहने का ।
  ..11
हराकर उम्र शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
बुझे चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।
....
   12
मैं तेरे इस सवाल का , क्या ज़वाब दूँ ।
ज़िंदगी तुझे ज़िंदगी का , क्या हिसाब दूँ ।
...13
छुअन की उसको , दरिया की चाह थी   ।
बहता गया बस वो , निग़ाह में उसकी ।
...14
देख संग दिली दुनियाँ की, हैरां है बुत ।
  सोचता है खड़ा वो, मैं बुत या ये बुत ।
   ....15
लोटता है वो निग़ाह भर देख मुझे ।
क्यों बुत समझ बैठता है वो मुझे ।
  ...... 16
उजाला जब भी चला है अंधेरों ने छला है
  ।
रोशनी की चाह में ,सूरज तो बस जला है ।
  ....17
मेरी प्रेरणा हो या नही ,नही जानता मैं।
हाँ इतना पता है तुम से सीखा बहुत है । 
...18
हाँ मैं कुछ कहता हूँ कुछ लिखता हूँ ।
बात कभी कभी किताबों से आंगे कहता हूँ ।
.......19
बस इतनी सी जुस्तजू (खोज)है ।
मुझे लफ्ज़ की आरजू (कामना)है ।
20
  लफ्ज़ बन सँग किताबों के हम हुए ।
   दफ़न किताबों में कुछ यूँ हम हुए ।
21
दूरियाँ नही दरमियाँ के,
                 अहसास खामोशियों के ।
सजती रही महफ़िल ,
                   बिन शमा रोशनियों के ।
22
  उतरे वीरानों में ,चैन की खातिर हम ।
  देखा वीरानों में बैचेनी बिखरी पड़ी है ।
23
मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
24
टूटता रहा ऐतवार से,
      लड़ता रहा इख़्तियार से ।
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों से,
       हारते रहे शर्त-दर-शर्तो से ।
....
25
ज़माने का रिवाज , कुछ बिगड़ा बिगड़ा है ।
देख सादगी हमारी हर शख़्स उखड़ा उखड़ा है ।
    ....26
जो भागे सत्य से , वो साहित्य कैसा।
आईना दिखाता वही , जो है जैसा।
... 27

  35
मेरे अश्क़ सामने गिरे मेरे अपनों के ही ।
मुस्कुराहट गेरों में वफ़ा तलाशती रही ।
.36
वो ज़मीं थी हरी भरी , मैं आसमाँ वीरान था ।
कलरव थे दामन में उसके, मैं ख़ामोश सुनसान था ।
37
शब्दो के सफर में हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश मंजिल की ज़िंदगी गुजर जाती है ।
38
न समझ सका मैं वक़्त के मिजाज को ।
एक कल की खातिर भूलता आज को ।
39
कहला सका न आदमी वो कभी ,
वो भी तो आखिर एक इंसान था ।
40
"निश्चल" चला न चाह में   जिसकी ,
मंजिल न थी दूर सामने जहान था ।
...
41
तारा टूटा फ़लक से जमीं नसीब न थी ।
ख़ाक हुआ हवा में मुफ़लिसी केसी थी ।।
..42
सितारे की चाह है ,चाँद से इक़रार है ।
चाँदनी आई साँझ ढले,शबनम बेकरार है ।
....43
  खामोशी ओढ़कर इजहार रहा ।
  बे-इंतहां  उसका कुछ प्यार रहा ।
....44
कोई खामोशी अपनी भी बयां करो ।
कुछ लफ्ज़ अपने ज़िगर जुदा करो ।
...45
खोजते सभी  रास्ते यहीं कही हैं ।
चूकती निग़ाह,फासला दो पग नही है ।
... 45
कैसे छोड़ दूँ मै शहर अपना ।
अभी शहर में अजनबी बहुत है ।
....46
ख़ातिर खुशी की ,हँसता रहा बार बार ।
  मेरा आईना भी ,मुझसे रहा बे-ऐतवार ।
.....
47
वक़्त ने यूँ आजमाया मुझे ।
वक़्त पे ही अपनाया मुझे ।
....48
बदलता ही रहा वक़्त से वक़्त भी ।
बे-वफा ही रहा वक़्त से वक़्त भी ।
----49
तदवीर से न बदल वक़्त की फितरत को ।
बदल वक़्त क्या कहेगा तू  किस्मत को ।
..50
लफ्ज़ लिखता मिटाता रहा मैं ।
यूँ वक़्त अपना बिताता रहा मैं ।
...51
जाने वो क्या वक़्त की, अधूरी चाह रही ।
कलम चलती रही,  ख़ामोश निग़ाह रही ।
..52
हौंसलो से हुनर,  मुक़ाम पता है ।
मुसाफ़िर अकेला , थक जाता है ।
..53
घोर निराशा जब तिमिर गहराती है ।
सूरज की आभा छाया गढ़ जाती है ।
.... 54
साहिल को ही सागर हांसिल है ।
सहता जो सागर की हलचल है ।
...55
देते रहे साथ मेरा वक़्त वक़्त पर वो ।
साथ चले थे लफ्ज़ किताबो से जो
...
...56
तपते रहे अल्फ़ाज़ तपिश अहसास से ।
आते रहे जाते रहे ,वो अपने अंदाज से ।
.... 57
हर जवाब से सवाल निकालता रहा।
वो इस तरह मुझे खुद में ढालता रहा ।
.....58
हक़ीम था वो कुरेद गया  जख्मों को ।
उधेड़ गया वो कुछ याद जख्मों को ।
....59
सिया जब भी जिगर को अपने ।
निशां रहे पैबंद दिखे जिगर पे ।
...60
  सवाल उठते रहे निग़ाह में ,
  निग़ाह से गुजरते हर शख्स के ।
....
...61
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
..62
माँगकर अश्क़ मेरे हँसी बाँटने आए है ।
वो हमें खुद से खुद यूँ काटने आए हैं ।
  ...63
ले हाथ रंग गुलाल ,
            निग़ाह मलाल लाए हैं।
  रहे बेचैन आज हम ,
             वो बहुत सवाल लाए हैं ।
...64
धुल जाएगी रंगत शूलों की ,
                         टीस साथ निभाएगी ।
आती होली साल-दर-साल ,
                         होली फिर आएगी ।
....65
बेताब कदम मंजिल छूने को ।
जमीं बैचेन आसमां होने को ।
.....
66
तू मेरा हक़ीम हुआ ,
           होंसला-ऐ-यक़ीन हुआ ।
थामकर नब्ज़ सफ़र-ऐ-ज़िंदगी ,
                  तू मेरा मतीन हुआ ।
(मतीन/निर्धारित/ ठोस)
...67
तलाश-ए-ज़िंदगी में गुम हुआ।
कुछ यूँ ज़िंदगी का मैं हुआ ।
...68
अर्श पे अना लिए चलता रहा ।
गैरत-ऐ-अहसास चुभता रहा ।
...69
आइना तू सवार दे मुझे ।
  मैं कुछ निहार लूँ तुझे ।।
  ....70
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
...71
खबर नही के तू बेखबर सा है ।
कदम कदम तू हम सफर सा है।
....72
समझते हैं समझौता जिसे एक हार है वो ।
टूटता सामने "निश्चल"जिसके प्यार है वो ।
......73
  तेरी हर दुआ , रज़ा खुदा हो जाए ।
भटकी कश्ती का, तू नाख़ुदा हो जाए।
...74
दुआ के ताबीज को तरकीब बना लूँ मैं ।
उस तरकीब से तक़दीर सजा लूँ मैं ।
...75
हुनर वो नही ,   जो लेना जाने ।
हुनर वो है ,      जो देना जाने ।
---76
तक़दीर ही तकदीरें तय किया करती हैं ।
रास्ते वही मंज़िले बदल दिया करती हैं ।
..77
जज़्ब कर उस अस्र अक़्स को ,
   जो कहूँ मैं दुआ तुझको ।
अस्र .. समय
...78
वो यूँ दुआ का करम फ़रमाती है ।
बद्दुआएं अब बेरुखी फ़रमाती है ।
....79
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
...80
कैसी अदावत है आज महफ़िल की ।
खिड़कियां खुलती नही अब दिल की ।
... ..
..81
पढ़ता जो नजर सा ,लफ्ज़ रूठ जाते ।
पढ़ता जो लफ्ज़ सा ,इशारे रूठ जाते ।
..82
किताब खुली खुली जो बन्द सा मगर ।
  सफ़े सफ़े पर क्यु चिलमन सा असर ।
.... 83
अक़्स पर अक़्स चढ़ाया उसने।
खुद को बा-खूब सजाया उसने ।         
...84
एक मुख़्तसर ग़जल कही मैंने ।
एक निग़ाह नजर कही मैंने ।
....
...85
नजर का खेल , बड़ा अजीब है ।
नज़र अंदाज़ वही , जो अज़ीज है ।
.... 86
इल्म वो नही जो ख़ामोश रह गया ।
इल्म वो जो में दुनियाँ बयां हो गया ।
...87
बदले मेरे शहर के हालात हैं ।
संग निग़ाह खँजर हाथ है ।
....88
सैय्यदों के शहर में,  हैं परिंदे कहर में ।
उड़ें तो उड़ें कैसे,  हैं फंदे हर नजर में ।
...
89
शेर ज़िंदगी ऐ दख़ल होते रहे ।
लफ्ज़ लफ्ज़ ग़जल होते रहे ।
...90
मस्त है ज़िंदगी पस्त है ज़िंदगी ।
अक्षर अक्षर बिखरी है ज़िंदगी ।
....91
रहा गाफ़िल ज़िंदगी के इख़्तियार में ।
ले डूबी मौत इंसा को अपने प्यार में ।
.....92
इस सच को मान न मानो अपनी हार ।
यह जोश ज़िंदगी का ही दौलत अपार ।
...93
  टूटता रहा ऐतबार ऐतबार से ।
  लड़ता रहा   यूँ इख़्तियार से ।
...94
   मुस्कुरा ऐतबार इजहार किया उसने ।
   लगा ठहाका बे-ऐतबार किया उसने ।
....
  .95
ज़िंदगी भी , एक किताब है ।
   दो लाइन का, बस हिसाब है ।
...96
कुछ लिखें अपना , कुछ कहें अपना।
सत्य नही ज़ीवन , ज़ीवन एक सपना।
...97
   ज़ीवन की बस , इतनी परिभाषा है।
    ज़ीवन तो बस , कटता ही जाता है।
....98
पतझड़ नही वसंत हो ज़िंदगी ।
अन्त नही आरम्भ हो ज़िंदगी ।
---99
लाभ हानि के खाते , लिखते सब ।
लोग नही मिलते ,  बे-मतलब अब ।
---100
होता रहता हरदम , कुछ न कुछ।
वक़्त सीखाता हरदम , कुछ न कुछ।
101
भर गया दामन , दुआओं के फूलों से ।
खुशबू दुआओं की,जा मिली रसूलों से ।
....102
निगाह नजारों की भी न चाहत रही  ।
जहां साँसों की भी न आहट रही ।
...103
रोशन रहे शमा सुबह के उजालों तक ।
  आ जाएं वो आने के किए वादों तक ।
...104
चाहत रात की , खातिर उजाले की ।
मयकदा रिंद की ,  मय प्याले की ।
.....105
जिंदगी न समझ सकी हालात को ।
बुझती गई प्यास फिर प्यास को ।
... 106
न मिला निग़ाह जमाने से ख़ातिर अपनी ।
चल नजर बचा जमाने से ख़ातिर अपनी ।
..107
  निग़ाह शक से देखता है जमाना अक़्सर ,
   भुलाकर वो तेरा   मेहनतकश मुक़द्दार ।
..108
तपता रहा उम्र भर , कुंदन सा हो गया ।
भाया न दुनियाँ को , खुद भी खो गया ।
..109
पथिक थक जाएगा ,मंजिल पा जाएगा ।
छोड़े पद चिन्हों का,इतिहास बनाएगा ।
....
110
लकीरें मुक़द्दार की बदलती नही ।
लोग फिर भी तक़दीर गढ़ा करते है ।
111
मेरी यह आदतें आदत बनती गई।
शब्द जागते रहे कलम चलती रही ।
112
हम छपते रहे अखवारों में कभी कभी ।
यूँ बिकते रहे शहर शहर कभी कभी ।
113
मैं कौन हूँ जमाना तय क्या करेगा ।
मेरा हुनर ही तो मेरा आईना होगा ।
114
बाद मेरे याद रहे मेरे अल्फ़ाज़ में ।
बस यही दौलत कमाना चाहता हूँ ।
115
खुलते रहे पर्त्-दर-परतों में ।
हारते रहे शर्त-दर-शर्तो में ।
116
कुछ नुक़्स भी नायाब होते है ।
रुख़सार चाँद पर दाग होते है ।
...
117
ज्यों ज्यों ज़ीवन की साँझ ढली ।
त्यों त्यों तुझसे मिलने चाह बड़ी ।
118
कदम बेताब मंजिल छूने को ।
जमीं बैचेन असमां होने को ।
119
वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
हँसी ले दे रहा सब कुछ ।
120
तमाशा ही है आज हर जिंदगी ।
करता नही कोई किसी से बंदगी ।
121
लो टूटकर फ़लक से वो चला ।
गुमां था जिसे असमां पे चमकने का ।
122
रूह से रूह जहां मिल जाती है ।
ज़िस्म वहां ख़ुदा हो जाते है ।
123
जिंदगी कटती अपने ही तरीके से ।
हारते हम हर बार अपनो के तरीकों से ।
124
तक़दीरें ही तक़दीर तय किया करती है ।
रास्ते वही मंजिल बदल दिया करती है ।
.....
125
मिले तेरे मुकद्दर से वो सब तुझे ।
मिला न मेरे मुक़द्दर से जो मुझे ।
126
हूँ होश में , मैं मदहोश हूँ मगर ।
जिंदगी तेरे अंदाज़ से,हैरां हूँ मगर ।
127
लाभ हानि के खाते लिखते सब ।
मिलते नही लोग बे-मतलब अब ।
128
ख़्वाब सहेजे कुछ ख़्वाब समेटे ।
कुछ संग उठ खड़े कुछ अध लेटे ।
129
नियति ने कुछ तो तय किया होगा ।
जो घट रहा है वो तेरे लिए सही होगा ।
130
हुनर वो नही जो लेना जाने ।
हुनर वो है जो देना जाने ।
131
भीड़ बहुत थी पास मेरे मुस्कुराने बालो की
मेरी हर शिकस्त पर जश्न मनाने बालो की
132
कोशिश की हार कहाँ ।
प्रयास है प्रतिसाद जहाँ ।
133
ख्वाहिशें न बने "विवेक"सज़ा ।
खुशियों की हो इतनी सी बजह।
134
समंदर में तूफान छुपे होते है ।
साहिल अक्सर खामोश होते है ।
..136
वो यूँ दुआ का करम फरमातीं है।
  वद्दुआएँ अब बेरुखी फरमातीं हैं।

136
अहसान ज़िंदगी का इतना सा मुझ पर ।
करम फ़रमाया हर अहसास का मुझ पर ।

137
  कैसी अदावत है आज मेहफिल की ।
खिड़कियाँ खुलती नही अब दिल की।
...
155
अभिलाषा अम्बर की धरती को छूने की ।
एक धुंधली साँझ तले स्वप्न संजोने की ।
... 156
घोर निराशा जब तिमिर गहराती है ।
सूरज की आभा छाया गढ़ जाती है।
... 156
  आवाज में मेरी कोई कशिश तो नही ।
फिर भी गुनगुनाया,करता हूँ कभी कभी ।
.... 157
    साहिल को ही सागर हाँसिल है ।

सहता जो सागर की हलचल है ।
........158
लकीरें मुक्कदर की बदलती नहीं।
फिर भी लोग तक़दीर गड़ा करते हैं ।
..

159

डूबता रहा साँझ के मंजर सा ।

सफ़र जिंदगी रहा समंदर सा । 

160

कुछ टूटे ख्वाब ,ख़यालों से निकले ।

कुछ उलझे ज़वाब ,सवालों से निकले ।

 .....

161

वक़्त से इतना ही मरासिम रहा ।

वक़्त मेरे वक़्त का कासिम रहा ।

.... मरासिम-रिश्ता

  कासिम- विभाजित करने बाला

.....

162

हर फ़र्ज़ निभाए ,

बड़ी शिद्दत से ज़िंदगी के मैंने।

 यह और है रास न आया मैं,

  ज़िंदगी-ए-मुक़द्दार को ।

....

163

तराशने की चाह में , 

शाख-दर-शाख छटते रहे ।

इस तरह कुछ हम  ,

 अपनी ही छाँव से घटते रहे ।

....

164

हालात ने उम्र दराज बना दिया मुझे ।

यूँ तो शौक बचकाना अभी भी है मेरे ।

..

165

महकने दे , कुछ बहकने दे ।

इन रिश्तों को,बस चहकने दे ।

.......

166

वो सौदा मुफ्त का खूब हुआ ।

ये दर्द मेरा ही मेहबूब हुआ ।

... .

167

न था कसूर कोई किसी का ।

फलसफा यही जिंदगी का ।

.....

168

तलाशता निग़ाह से निग़ाह को रहा ।

ढूंढता एक लफ्ज़ इख़्तियार को रहा ।

.......

169

क्यूँ नाख़ुदा किनारों पे बिखरे पड़े है ।

 क्यूँ कश्तियाँ समंदर जकड़े खड़े है ।

....

170

नज़र को नज़र का गुमां हो गया ।

निग़ाह-ए-नशा ईमान हो गया ।

........

171

 एक झोंका हवा का है वो भरोसा कहाँ ।

दिखता वही जो सामने है वो धोका कहाँ ।

...

172

गुमनाम सा जिया , बेनाम सा जिया ।

खत बंद लिफाफा , पैगाम सा जिया ।

......

..... *विवेक दुबे"निश्चल"*@.....

      173

ये शुकूँ , शुकूँ तलाशता रहा ।

यूँ सफ़र , जिंदगी राब्ता रहा ।

 (contect)

....

174

     मैं मानता रहा, मनाता रहा ।

     ज़िस्म जिंदगी , सजाता राह ।

.. .....

175

 हुआ नासमझ तब, कुछ समझ आया ।

 चलता रहा कारवां ,सफ़र तन्हां पाया ।

      .....

176

    छूटता रहा सब , व्यर्थ बेकार सा ।

   जिंदगी रहा तेरा ,इतना ऐतवार सा ।

....

177

छुपते रहे अश्क़ पलको की कोर में ।

छूटते रहे अपने अपनो की दौड़ में ।

.........

178

     गिरा चश्म अश्क़, हैफ़ बेमतलब ।

     सिमटी निग़ाह में, सिसकियां कही ।

     (हैफ़ / अफसोस)

.....

179

अपने अपनो को , ही छलते हैं ।

छाँव तले ही तो ,कांटे पलते है ।

.....

180

     खाता वक़्त ही वक़्त से ठोकर है ।

    शायर तो कुछ कहता ही खोकर है ।

.... 

181

जो समझता होता ,आदमी को आदमी ।

बिगड़ते न  रिश्ते , क़ायम रहते लाज़मी 

......

182

यूँ मेरी नज़्म पढ़कर , ख़ामोश रहने बाला ।

यक़ीनन पाता है कुछ, निग़ाहों में अपनी ।

...

183

अंदाज़-ए-बयां कुछ और है , दर्द मेरा बयां करने का ।

लफ्ज़-ए-दवा तामीर किया करते है ,ज़ख्म बड़ा भरने का ।

.. ...

184

शान-ओ-शौकत में ,किसी से कम नही जरा सा।

है नही पास कुछ , और मगर गम नही जरा सा ।

....

185

लफ्ज़ आते नही जुबां पर शोहरत पाने को ।

"निश्चल"मचलता है दिल दिल बहलाने को ।

..

186

ख़्याल बुनकर,  ख़ामोश हो जाते है ।

रूह के समंदर में, साहिल हो जाते है ।

.....

187

 न देना पनाह    ,     ख़्वाबो को कभी ।

है नही पास इनके,  हक़ीक़त की जमीं ।

.... ..

188

होता रहा शरीक, सम्त* ख़याल ख़्वाब सा ।

टकरा कर साहिल से, समंदर मिजाज सा ।

.......(रस्ता)

189

इश्क़ ये भी है , एक इश्क़ वो भी है ।

है हांसिल साहिल , नाख़ुदा को ही है ।

.... ....

190

ख़्याल में ही सही, हक़ीक़त को समझ पाये है ।

ग़रज़ की,बारिश में ही,रिश्तों के बादल छाए है ।

 .....

191

बिन तस्बीरों के , पहचान कहाँ होती है ।

एक स्याह जिंदगी , ईमान कहाँ होती है ।

....

192

जिसने भी जो बोया बस वो ही काटा है ।

भाग्य कहाँ कब किसने किससे बाँटा है ।

....

193

तक़दीर से ही तदबीर  खिला करती है ।

तक़दीर तो रब-ए-रजा मिला करती है ।

....

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

194

जीवन तो एक आनंदोत्सव है ।

 समय से मिलता सबको सब है ।

..195

  तू क्यों चिंता करता है ।

 जब वो तेरी चिंता करता है।

....196

उसी उत्साह से तू फिर जुटना ।

चाहता है   तू   तुझे जितना ।

...197

ठंडक चाँद की तपिश घोलती है ।

क्यूँ बिन कहे निग़ाह बोलती है ।

....198

 हिचकिचाहट की भी आहट है।

     "निश्चल" यूँ मुझे इसकी आदत है।

...199

उम्र ज्यों पकती है,तन तपिश घटती है।

  हाँ इस पड़ाव पर, ठंड तो लगती है ।

...200

   उम्र पकती रही रौनकें घटती रहीं।

   तजुर्बा-ऐ-ताव में हयात तपती रही। 

         

हयात (जीवन ज़िंदगी)

...201

टूटते है सपने और बिखरते है ख़्वाब ।

भोर की आहट में जो जागते है आप ।

      ..."निश्चल"@...

202

"निश्चल"तदवीर से तक़दीर भी हारी है ।

हो होंसला तो तेरी ये दुनियाँ सारी है ।

...203

 सफ़ा सफ़ा जिंदगी मैं स्याह कर गया ।

 मैं अपने आपको यूँ गुमराह कर गया ।

    ...204

जिसने मेरा अहसान पाया कभी ।

हाँ वो मेरे काम न आया कभी ।

....205

बीता दिन अपना कल की फ़िकरों में ।

छूटा गया आज हम से ही जिकरों में ।

  ....206

 ऐ विवेक सोचता है तू क्यों कुछ ।

 सोच रखा है जब उसने सब कुछ ।

        .. 207

 रिश्ते तो अब मजबूरी है। 

दिल से दिल की दूरी है ।

..208

 बिखेरकर अपने आप को ,सिमेटता गया ।

नम निगाहों से जिंदगी तुझे मैं देखता गया ।

....209

 नम निगाहों से इश्क की तमिरदारी कर लेते है ।

कुछ यूँ खुद से खुद की हम यारी कर लेते है ।

....210

नादानियां कुछ उम्र की उम्र भर चलती रही ।

चाँदनी सँग चाँद के फिर भी चलती रही ।

.....211

किस्मत वक़्त पर सबको आवाज देती है ।

चलना हमे है साथ किसके अहसास देती है ।

....212


ये उम्र एक मुक़ाम खोजती सी ।

ज़िंदगी का पयाम खोजती सी ।

.....

213

मोहलत न मिली वक़्त से मोहब्बत के वास्ते ।

तय होते रहे यूँ तन्हा तन्हा जिंदगी के रास्ते ।

214

कुछ पूछ कर सवाल, 

वज्म महफ़िल के सामने ,

"निश्चल"साहिल से , 

समंदर के न हालात पूछिये ।

....

 215

लहरों से ही जिसकी ,

 भींगते जो किनारे रहे ।

 निग़ाह लिए आस की ,

 साथ वो बे-सहारे रहे ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

.Blog post 9/2/21

216

जिंदगी तो लौट कर फिर आती है ।

खुशियों को नज़र क्यों लग जाती है ।

217

वक़्त कुछ इस तरह गुजरता रहा ।

 वक़्त से वक़्त बे-असर सा रहा ।

..218

मुझे सराहा नहीं कभी संवारा नहीं ।  

 तुझे ज़िंदगी इश्क़ मेरा गवारा नही । 

 ....

219

ना कर तज़किरा तू रंज-ओ-मलाल पर ।

छोड़ वक़्त को तू   वक़्त के ही हाल पर ।

...220

वो चाहतों की चाहत, ना रही कोई मलालत ।

खोजतीं रहीं निगाह मेरी नज़्म-ए-ज़लालत ।... 

221

हुनर वो नही जो लेना जाने ।

हुनर वो है जो देना जाने ।

222

भीड़ बहुत थी पास मेरे मुस्कुराने बालों की ।

मेरी हर शिकस्त पर जश्न मनाने बालों की।

223

कवि देखता दुनियाँ को दुनियाँ की नजर से।

 दुनियाँ देखती कवि को बस अपनी नजर से ।

224

यह नसीब भी आदत बदलता रहा ।

बदल बदल कर साथ चलता रहा ।

.... 225

मुक़ाम की तलाश को तलाशता रहा ।

वो हर दम हारते से हालात सा रहा ।

... 226

अपने आप से यूँ भी सौदा रहा।

ज़िन्दगी का यूँ भी मसौदा रहा।

....227

 अपने ही आप को ढालता रहा ।

 ज़ज्ब जज्बात को पालता रहा ।

..228

   सच में झूठ का साथ देता राह ।

  कुछ यूँ सच का साथ देता रहा  ।

...229

मेरे फ़लसफ़े का भी सफ़ा होता ।

मुंसिफ मुझसे यूँ ना ख़फ़ा होता ।

...230

चलती ही रही कशमकश बड़ी ।

जिंदगी साथ जिंदगी के यूँ खड़ी ।

.... 231

उसे जिंदगी से मोहलत नही मिली ।

मुझे जिंदगी से तोहमत यही मिली ।

....232

उसे जिंदगी से मोहलत यदि मिलती ।

मुझे जिंदगी से तोहमत नही मिलती ।

 ....233

झूँठ नही तनिक भी, है यही सही ।

जिसे कहा सही, है वही नही सही ।

..234

आँख बंद करने से अंधेरा घटता नहीं ।

आता भोर का सबेरा अंधेरा टिकता नही ।

.... 235

जागता रहा , कुछ हम राज सा रहा ।

 छूटता किनारा , दरिया साथ सा बहा ।

....236

बुझना बुझदिली , जलना मुहाल सा रहा ।

तूफ़ान के दिये सा,  ही मेरा हाल सा रहा ।

...237

सिखाता वक़्त , हालात से हरदम रहा ।

हारता  इंसान , ज़ज्बात से हरदम रहा ।

...238

तोड़ न पाईं होंसले,  वो मुश्किलें भी ,

सँग छालों के , पाँव सफर करता रहा ।

...239

कौन है अपना , अब किसे कहूँ नाख़ुदा ,

लूटने का काम , जब रहबर करता रहा ।

...240

दिन उजलों से टले , रातें अंधेरी साथ सी ।

चलते रहे सफ़र पर, बस हसरतें हाथ सी ।

विवेक दुबे"निश्चल"@..

Blog post 9/2/21

डायरी 3

241

"विवेक"यह सफर विकल्प से संकल्प तक का ।

लगता सारा ज़ीवन "निश्चल"सफर दो पग का ।

242

मत कर तू शक़ उसके वुजूद पर ।

कायम है जहां जिसके खुलूस पर ।

खुलूस /सच्चाई


243

नियत नियति निरंतर,

    काल तले दिन करता अंतर ।

कर्ता हर्ता सृष्टि का ,

      महाकाल शिव शंकर  ।


244

सिमट रहे शब्द सब , 

        खो रहीं परिभाषाएं ।

रात गुजारी नैनो में , 

   भोर तले अलसाई आशाएँ ।

....

245

बस एक सत्य यही है के तू सत्य नही है ।

मिटना सब एक दिन मिटता ये सत्य नही है ।

246

जीवन स्वम् की एक खोज उठते प्रश्न ।

एक जिज्ञासा स्वयं को पाने की आशा ।

247
इश्क़ में रूहें करम अता फ़रमाती है ।
लोग बुतों की सूरत पर मरा करते है ।
248
पाकीजगी को जो सम्हाला हमने ।
नापाकी के इल्जाम लगाए जमाने ने ।
249
नियति ने "विवेक" कुछ तो तय किया होगा ।
जो घट रहा है वो तेरे लिए सही होगा ।
250
यह मंजिल नही मेरी सफ़र वांकी है ।
मक़ाम अभी और भी आएंगे ।
251
अलग होता नही कुछ जमाने मे ।
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
252
एक दुआ की ख़ातिर टूटता सितारों सा ।
कुछ यादों की ख़ातिर मैं अधूरे वादों सा ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
Blog post 18/4/18
डायरी 3
दूरियों के कुछ गुमां दूर न हो सके ।
यूँ हम अपनो में मशहूर न हो सके ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
मेरे अश्क़ सामने गिरे मेरे अपनों के ही ।
 मुस्कुराहट गेरों में वफ़ा तलाशती रही ।
...."निश्चल"@....
वो यादे बचपन की ।
बाते मन से मन की ।
सिमट गई यादों में ,
खुशियाँ जीवन की ।
..."निश्चल"@ ..
हौंसलों की "निश्चल" कभी हार नही होती ।
कठिन भले हो जिंदगी पर भार नही होती ।
 ...."निश्चल"@....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...