सोमवार, 31 दिसंबर 2018

इतना ही बस शेष रहे

वेश रहे न अबशेष रहे ।
इतना ही बस शेष रहे ।

बीते कल से पल का ,
हृदय नही कलेश रहे ।

शेष रहे न विशेष रहे ।
इतना ही आशेष रहे ।

रीत राग बंधन न कोई ,
अन्तर्मन से महेश रहे ।

जय रहे न जयेश रहे ।
चित्त विनय प्रवेश रहे ।

जय पराजय तजकर ,
निश्चल वो दिनेश रहे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

क्यों स्वीकार करते है

हम ये नव वर्ष क्यों स्वीकार करते हैं ।
गोरे प्रहार का क्यों त्योहार करते है ।

ठिठुरता है जहां जहाँ एक और जाड़े में ,
वहां उत्सव सा  क्यों व्यवहार करते है ।

गुजरने दो जरा दो माह जाड़ों के ।
बसंत की आती ही बाहरो के ।

होगी पुलकित सृष्टि शृंगारित धरा ।
तब रूप योवन धरा ने धरा ।

करे स्वागत तब नव बसंत का ।
नव क्रम चले फिर इस अंनत का ।

तब मनाये नव वर्ष उल्लास से ।
बढ़ चले फिर पुलकित आस से ।

माँ शारदे को नमन करें ।
शक्ति से हम जीवन भरें ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

कुछ कहुँ अब मैं भी तेरे वास्ते ।


कुछ कहुँ अब मैं भी तेरे वास्ते ।
अब साथ नही है तू मेरे रास्ते ।

थम गया तू क्युं दिन गिनकर ।
दे चला अब अपना दिनकर ।

मैं चलूँगा कल उसे साथ लेकर ।
ठहर यही अलविदा साथ लेकर ।

होंगी यादें तेरी शख़्त कुछ बेहतर  ।
कल तक तूने दी थी मेरी कहकर ।

चलूँगा यादें अब दिल में रखकर ।
बन सके आज कल से भी बेहतर ।
... निश्चल....
डायरी 6(104)

बस साथ यहीं तक

बस साथ यहीं तक,
    रिन्दों से रिन्दों का ।

खाली मयख़ाना साक़ी ,
       फिर बाशिंदों का ।

आते है सब बस ,
    एक रात बिताने को ,

रहा नहीं कहीं ठिकाना ,
     एक कभी परिंदों का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(103)

गुजर गया जो वो जाने दो ।

गुजर गया जो वो जाने दो ।
नव आगंतुक को आने दो ।

टीस रहे न कोई मन में ,
एक जशन नया मनाने दो ।

गुजरे से आधे किस्सों से ,
फिर रिस्ता नया बनाने दो ।

नेह नयन के सागर से ,
प्रीत सीप चुन लाने दो ।

बैर भाव को तज कर ,
प्रेम राग गीत गाने दो ।

नये बरस की छांव तले ,
नव पल सुखद बिताने दो ।

धूप सुनहरे जीवन में ,
जीवन को बिसराने दो ।

आने दो आकर जाने दो ,
"निश्चल"चल कहलाने दो।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(102)

कर चली अब पार अठारा वो ।

कर चली अब पार अठारा वो ।
उन्नीस में अब कोई सहारा हो ।

कदम पड़े है योवन आँगन में ,
पग पग राह कोई निहारा हो ।

जो छोड़ चली अब पीहर को ,
ज्यों साजन ने उसे पुकारा हो ।

रूप शृंगारित मादक योवन तन ,
मकरंद मद अंग अंग उतारा हो ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(101)

*नव आयाम मिलें नूतन वर्ष तले*

= *नव आयाम मिलें नूतन वर्ष तले* =

गीत ग़जल छंदो की हमजोली  ।
ये मन भावन सी काव्य रंगोली ।

सहज रही है आँचल में अपने ,
गंगा यमुनी घाट घाट की बोली ।

निर्मल नीर शब्द तरल से बहते ,
अर्पण करते भावों की झोली ।

 पृष्ठ खुलें जब काव्य रंगोली के ,
भान मिले हृदय किताब खोली ।

शृंगारित पृष्ठ पृष्ठ नव चिंतन से ,
ज्यों सजती नव दुल्हन की डोली ।

यही प्रार्थना करें कामना यही सदा ,
सृजित रहे सृजक जगत की टोली ।

काव्य सृजक खिलें हुरियारों से ,
नित खेलें काव्य विधा सँग होली  ।

प्रयास गढ़े नित चित्त नीरज ने ,
नव अरु रश्मि शतदल संजोली ।

नव आयाम मिले नूतन वर्ष तले ,
"निश्चल"खूब खिले काव्य रंगोली ।

   ... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6100)



बरस बीत गया बातों बातों में ।

688
बरस बीत गया बातों बातों में ।
दिन बने पल मुलाकातों में ।

 चाहत में मंजिल की अपनी अपनी  ,
 बढ़ते रहे कदम राह बरस साथों में ।

नव भोर तले फिर मिल कर ,
शोहरत मुराद भरें मुरादों में ।

कामना यही हृदय से इस बरस की,
हुनर बढ़ता ही रहे आपके हाथों में ।

मिल सफलता के गले नित नई ,
चाँदनी खिलती रहे आपकी रातों में ।

रहें जगमग दिन उजाले भोर के ,
न मिलें कांटे आपको पथों में ।

भाव खिले शब्द तले मिलकर ,
शारदे बिराजें आपकी तूलिका इरादों में ।
(समसि)
एक कामना यही हमारी सदा "निश्चल"
कदम पड़े आपके उन्नति के द्वारों में 

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(99)

बुधवार, 26 दिसंबर 2018

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

 चलती राहों का एक मुहाना होना है ।
 गहरी रातों का भोर सुहाना होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

 अहसासों की इन उलझी डोरों में ,
 डोर कोई अब नई नही पिरोना है ।

जीवन के मनके मन के धागों से ,
अब जीवन मन में ही पिरोना है ।

चल अब तुझको खुद का होना है ।

अहंकार के इस बियावान वन में ,
अब स्वाभिमान तुझे संजोना है ।

हार रहा तू नाते रिश्ते चलते चलते ,
जीत तले स्वयं को स्वयं का होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,

राग नही हो कोई द्वेष नही मन में ,
अब राग रहित ही तुझको होना है ।

खोकर दुनियाँ को दुनियाँ में ही ,
अब ख़ुद को ख़ुद में ही खोना है ।

भटक रहा जो मन चलते चलते ,
"निश्चल"मन अब तुझको होना है ।

इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...



चल आ महफ़िल में ,

 686

चल आ महफ़िल में ,
  कुछ वक़्त बिताते हैं ।

  सुनते है तुझको,
  कुछ गीत सुनाते है ।

गुनते है गजलें तेरी ,
नज़्म नई हम गाते है ।

 चल रख चलते है , 
  शब्दों को भाव तले ,

 शब्दों की सरगम से,
 भावों के साज सजाते है ।

 महफ़िल में रहे नही,
 कुछ भी पीछे मन के ,

 इस साँझ धुंधलके में ,
 मन परदे आज उठाते है ।

अपने भावों के प्याले ,
 शब्दों से हम भरकर ,

 चल साँझ तले ,
 जाम हम टकराते हैं ।

चल आ महफ़िल में ,
कुछ वक़्त बिताते हैं ।

....विवेक दुबे "निश्चल"@...
डायरी 6(97)

साथ रहा जो किनारा सा ।

685

एक साथ रहा जो किनारा सा ।
कश्ती का रहा वो दुलारा सा । 

लौटती तूफ़ां से टकरा अक्सर ,
साहिल का मिलता सहारा सा ।

रहता है जब भी ख़ामोश समंदर ,
लहरों को साहिल ने पुकारा सा ।

 मचलकर दामन में किनारों पर ,
 साहिल को लहरों ने निखारा सा ।

जलती है जमीं तपन से अपनी , 
प्यास की ख़ातिर उसे पुकारा सा ।

 बरस कर आसमा से उसने  ,
"निश्चल"कर्ज जमीं उतारा सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(96)

सच हर किसी को बताया नही जाता ।

687

सच हर किसी को बताया नही जाता ।
बे-बजह कहीं मुस्कुराया नही जाता ।

मेरे न आने की शिकायत न करना ,
बिन बुलाये कहीं जाया नही जाता ।

माना के हैं बड़ी रौनकें तेरी इस महफ़िल में ,
यूँ मगर सामने से शमा को उठाया नही जाता ।

बह कर जाने दे आँख अश्क़ क़तरों को ,
रोककर इन्हें निग़ाह में सताया नही जाता ।

कहता हूँ हर ग़जल खुशियों की ख़ातिर,
दर्द दिल में अब और बसाया नही जाता ।

लूटती ही रही मुझे दुनियाँ अहसानों से ,
ईमान कोई मुझसे अब लुटाया नही जाता ।

छूटता नही दामन भलाई का "निश्चल"
सिला नेकी का असर ज़ाया नही जाता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(89)

वो दिन भी कितने खुदी के थे ।


वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।

होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।

मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।

खोये थे ख़ुद ही ख़ुद में हम ,
तब रंज नही कहीं तजंगी के थे ।

परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।

उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।

अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।

  थी नही शान अहसान की कोई 
 "निश्चल"दिन नही तब रजंगी के थे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

एक धूल भरा दिनकर सा ।
अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।
खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,
अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

680

जो कुछ उधड़ी सी चिथरन सी ।
वो कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

 सिसक रही है अब वो नातों में ,
 अहसासों की एक चितवन सी ।

सिमट चली है कुछ अरमानों में ,
जानी पहचानी जो अनबन सी ।

 उलझ रहे से ताने वाने नातो में ,
 कायम है रिश्तों की उलझन सी 

   जो ख़्याल कहे पिरोकर नज़्मों में ,
   वो आवाज़ रही एक सिरहन सी ।

  "निश्चल" है संग निग़ाहें अपनो में ,
   है ये सर्द बड़ी सँग ठिठरन सी ।

     .. विवेक दुबे"निश्चल"@....
  डायरी 6(91)
  


  

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

चल तेज तेज कदमों से,

चल तेज तेज कदमों से, कदमों के आगे ।
रात धरा से मिलकर ,दिनकर को मांगे ।

सहज रही है साँझे, जिसकी रश्मि को , 
क्षितिज तले भरकर, रातों की बाहें ।

चंद्र चलेगा चंचलता से, जिसको लेकर ,
मचल चाँदनी यौवन ,रूप धरा का मांगे ।

निहार बिखेर चली,यामिनी वसुधा पर ,
रूप सलोना,अंग अंग वसुधा का साजे ।

सकल नियति शृष्टि, सजती पल पल ,
क्षण क्षण रूप नया , सा गढता जावे ।

चलता है एक क्रम ,जीवन का क्रम से ,
कदम कदम ,जीवन जो चलता आगे ।

पाता है जीव ज़रा , जरा लांघकर ,
बाल युवा योवन भी, ढलता जावे ।


         ...विवेक "निश्चल"@....

पता नही माँ क्या करती होगी ।

पता नही माँ क्या करती होगी ।
ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।

कुछ यादों में मुझे सजाकर ,
नैन तले जल भरती होगी । 

 फ़िर चुरा निगाहें चुपके से ,
 खुद पे खुद हँसती होगी ।

सहज रही होगी यादों को ,
कुछ कपड़ो से लिपटी होगी ।

तह करती सी बड़े जतन से ,
सहज सहज कर धोती होगी ।

मिली किताब किसी कोने में,
जिल्द उसे ही करती होगी ।

दरवाजे पर मेरी आहट को ,
दौड़ चली आ सुनती होगी ।

खड़ी साँझ श्याम के आगे ,
विनय स्वर पिरोती होगी ।

लौट चले समय समय में पीछे,
बार बार समय से कहती होगी ।

उठकर बार बार रातों को ,
खाली लिहाफ़ तटोती होगी ।

पल्लू को आँचल में रखकर ,
पल्लू से ही ढँकती होगी ।

वो थाल रहा अधूरा सा ,
किससे जूठन चुनती होगी ।

पता नही माँ क्या करती होगी ।
ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

"निश्चल"मन तन सँग साथ बड़े है ।

शब्द हीन संवाद गढ़े है ।
दृष्टि ने कुछ भाव पढ़े है ।

प्रणय निवेदन सी चितवन,
नयनों से वो नयन लड़े हैं ।

झंकारित सुर ताल हृदय के ,
वो दो पल अनमोल बड़े हैं ।

रिक्त नही मन उपवन कोना ,
मन आँगन कुसुम सुगंध झड़े हैं ।

बंधन ये जनम जनम के ,
पल्लब फिर एक हाथ जड़े हैं ।

मिलन नया फिर इस जीवन का ,
"निश्चल"मन तन सँग साथ बड़े है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

(पल्लब/ एक तरह का कंगन)

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

उसमे भी तो जीवन था ।

उसमे भी तो जीवन था ।
जीव नही जिस तन था ।

शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।

नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।

पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।

पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।

"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
 गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

अकिंचन/महत्वहीन

जीवन चलता चल है ।

जीवन चलता चल है ।
जीवन भी तो जल है ।

ठहर नही तू छाँव तले ,
साँझ ढ़ले होता कल है ।

ढल जाता चलकर ही ,
आगम अगला पल है ।

सत्य नही ये कुछ भी ,
फ़िर ये कैसा छल है ।

जीवन की सरिता में ,
जीव सदा निर्मल है ।

अबूझ नही प्रश्न कोई ,
प्रश्न सभी का हल है ।

भृम भान यही भरता ,
निर्गम भी "निश्चल" है ।
...... 
बातों की ही बस बातें हैं ।
उलटे पड़ते अब पांसे है ।

करते बातें मीठी मीठी ,
समझ रहे सब झांसे है ।

....विवेक दुबे "निश्चल"@...

जो कुछ रहा , वो न कुछ रहा ।


जो कुछ रहा , वो न कुछ रहा ।
वो फक़त इतना, ही कुछ रहा ।
सिमेटकर  ,   फांसले दिल के ,
ख़ामोश निग़ाह , जो ख़ुश रहा ।
.....
जो सँग संग रहा ।
वो दिल तंग रहा ।

उन चाहतों का  ,
बा-खूब ढंग रहा ।

बे-खोफ निग़ाहों का ,
 ये मशहूर रंग रहा ।

  सुलह की खातिर ,
  करता इरादा जंग रहा ।

इंतज़ार इख़्तियार का ,
इज़हार बे-रंग रहा ।

एक निग़ाह-ए-सर्द से ,
"निश्चल" जलता अंग रहा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...



होश निग़ाहों से दुनियाँ देखो ,

जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।
एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।

होश निग़ाहों से दुनियाँ  देखो ,
हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।

फूल चमन में खूब खिले देखो ,
अंग अंग पर रंग, बे-बेरंग चढ़ा है ।

गले मिलें सब आँख मींचकर ,
साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।

अपनो की अपनी दुनियाँ में ,
अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।

काट रहे है मानव मानवता को 
मजहब धर्म ही जब रहा बड़ा है ।

रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,
ये राष्ट्र आज भी वहीं खड़ा है ।

ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,
"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...




रविवार, 16 दिसंबर 2018

कुछ लाज़वाब शे'र कह उसने डाले ।


कुछ लाज़वाब शे'र कह उसने डाले ।
हर जवाब में सवाल जिसने उछाले ।

कहता ही रहा वो हक़ीक़त अपनी ,
ख़्वाब हसीं कभी नही किसने पाले ।

रिसकर आते ही रहे वो दर्द जुबां ,
सख़्त अल्फ़ाज़ तले पिसने बाले ।

करता रहा सफ़र उम्मीद के सहारे ,
भोर के सितारे अब है मिलने बाले ।

चला है मुक़म्मिल वास्ते सफ़र के ,
रोकते रहे सफ़र पांव रिसने छाले ।

 दूर से सितारे वो इस आसमां के ,
"निश्चल"है ये चलते दिखने बाले ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@...

रुक नहीं हार से मिल जरा ।


रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा  ।

मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा  ।

उधड़ते ख़्याल ख्वाबों तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।

आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
आस से देख नज़्र हिल जरा  ।

खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास मंजिल जरा ।

हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत "निश्चल"जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जिंदगी जिंदा निशानों सी ।


जिंदगी जिंदा निशानों सी ।
रही उम्र की पहचानों सी ।

गुजरती रही हर हाल में ,
कायम रहे अरमानों सी ।

खोजती निग़ाह नज्र को ,
कुछ अपने ही गुमानों सी ।

 चली मुख़्तसर सफर पर ,
 यक़ी खोजती इमानों सी ।

मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,
ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।

जूझती हरदम हालात से ,
 रही जंग के मैदानों सी ।

 अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,
"निश्चल" कलम दीवानों सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प

"निश्चल"यहाँ मगर शामिल नही होता


हालात से इंसां आदिल नही होता ।
आप से कभी,फ़ाज़िल नही होता ।

भींगाता है लहर-ए-समंदर से जो ,
वो समंदर मगर साहिल नही होता ।

चलता है आफ़ताब रोशनी को लेकर ,
साँझ के मंजर का क़ातिल नही होता ।

है भटकता सा एक चाँद आसमां में ,
सितारों सा मुक़ा हांसिल नही होता ।

बहता है चीरकर दरिया जमीन को  ,
मंजिल से मगर,ग़ाफ़िल नही होता ।

 आता है वास्ते दुनियाँ की खुशी के ,
"निश्चल"यहाँ मगर शामिल नही होता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

आदिल/न्याय क़रने बल
फ़ाज़िल/खुद विद्वान
ग़ाफ़िल/ असावधान

शनिवार, 15 दिसंबर 2018

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।

668

कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।

उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।

शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।

लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।

सार लिखा है ज़ीवन का ,
 नही कहीं नकल लिखा उसने ।

बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।

हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।

टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।

भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......

डायरी 6(79)
Blog post 15/12/18

एक मौन निमंत्रण सा ।

  667


एक मौन निमंत्रण सा ।
 भावों का आमंत्रण सा ।

 लिप्त रहा चित्त में चित्त ,
 अन्तर्मन का अर्पण सा ।

 सुध खोता खुद में खुद ,
 आत्म देह समर्पण सा ।

 छवि देखे तन से मन की ,
 नैनो में नैनन दर्पण सा ।

निखर रहा पाषाण नदी का ,
बहता नीर बीच घर्षण सा ।

सँवर उठा वो सांझ तले ,
रश्मि तारा विकिरण सा ।

शीतलता की आस लिए ,
निहार हार दे तर्पण सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी (78)

न जीत से , न हार से ,

666
न जीत से , न हार से ,
मिलता नही कुछ , प्रतिकार से ।

जीतती है , जिंदगी ये ,
मिल अपनो के , ही दुलार से ।

 चुभता शूल , तुझे कही पे ,
 है आंखे वो नम , दर्द की पुकार से ।

खोजते पन , उस मन में ,
देखते है नयन , जिसे निहार से ।

मिलते अपने ही , अपने पाथ से ,
खिलती है जिंदगी , प्रीत के शृंगार से ।

ले चलें मिला, कदम से कदम ,
लक्ष्य तक भर ,जीत की जयकार से ।

 हो साथ पथ पाथ , अपनो का ,
 कुछ बड़ा नही , इस पुरुष्कार से ।

ले चला चल साथ ,अपनो का ,
जीतते तुझसे वो , अपनी ही हार से ।

न जीत से , न हार से ,
मिलता नही कुछ , प्रतिकार से ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(77)

पूर्ण ब्रह्म वो जो स्वयं है ,

 665
हर विचार रहा अधूरा सा ।
 हुआ नही रजः कण सम पूरा सा ।

अद्भुत विधि है बिधना की ,
रंग भिन्न विविध भरता पूरा सा ।

जोड़ नही तू कुछ अपने मन से ,
कोई कार्य रहे न उसका अधूरा सा ।

पूर्ण ब्रह्म वो जो स्वयं है ,
वो ही करता तुझको मुझको पूरा सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(76)

जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,

664
रुक हार कहीं जो थकता है ।
यह काल उसे ही ठगता है ।

सहता है जो   धूप ताप को ,
फ़ल वही   तो   पकता है ।

कहलाता तरल नीर वो भी ,
पोखर में जो जल रुकता है । 

बहता है जो नीर नदी सा ,
सागर में वो ही रूपता है ।   

जो चलकर भी "निश्चल" रहता ,
पाषाण मील सा वो सजता है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(75)

मुक्तक 672/677

672

दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।

 फैलते रहे दरिया से किनारे पे  ,
 दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

673

मुझे समझने के लिए, फ़िकर चाहिए ।
निग़ाह नज़्र में ,  आब जिकर चाहिए ।

न समझ हो कुछ , समझने के लिए , 
फक़त दिल , इतना ही असर चाहिए ।

..विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

इस वक़्त से नही कुछ भला है ।
नहीं इस वक़्त से कुछ भला है ।

गुजरता रहा हाल हर हालत से ,
मेरे सवाल का ज़वाब ये मिला है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

675

कुछ दिन की कतरन है ।
सब रीते से ही बर्तन है ।

रीते से दिन खाली खाली ,
रातों का उतरा यौवन है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

676

दिल की  यूँ झोली भर लो ।
खुशियों की बोली कर लो ।

       डूबकर खुशी के समंदर में ,
      जिंदगी कुछ होली कर लो ।

      ... विवेक दुबे"निश्चल"@.

677

कुछ फैसले किताबो से ।
कुछ फैसले मिज़ाज़ो से ।

बदल कर मिजाज अपना,
झुकते रहे जो सहारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

Blog.post 15/12/18

मुक्तक 670/671

670
कुछ कब होता है ।
कुछ कब होना है ।

छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।

गूढ़ नही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
-----
671
हे अज्ञान ज्ञान के बासी ।
तू खोज रहा मथुरा काशी ।
तुझे श्याम मिलेंगे मन भीतर ,
तेरा मन देखे जिसकी झांकी ।
.
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।

 उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
 अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।

आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
    
     खो गया क़तरा सा समंदर में ,
    बस इतनी ही एक दखल मेरी ।

मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।

     मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
     हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(74)

लब ख़ामोश खुलें राजदार मिलेंगे ।

तू ढूंढ़ जरा बहाने हज़ार मिलेंगे ।
हर दिल में नही दिलदार मिलेंगे ।

न सजा ख़्वाब ख़्याल की खातिर ,
हर ख़्याल ख़्वाब के पार मिलेंगे ।

झाँक तो सही किसी निग़ाह में जरा ,
ज़िस्म तुझे रूह से गुनहगार मिलेंगे ।

करना नही सौदे नियत के अपनी ,
आज खुदगर्ज बड़े व्यापार मिलेंगे ।

परेशां है जमीं बरसते आसमां से ,
हमदर्दी के कुछ यूं त्योहार मिलेंगे ।

हर मिलती नजर निग़ाह के पीछे ,
अमन-ओ-ईमान के खार मिलेंगे ।

जीतना न कभी इस दुनियाँ से ,
हार के बाद ही तुझे यार मिलेंगे ।

"निश्चल"छेड़ किसी ज़ज्बात को ,
 लब ख़ामोश खुलें राजदार मिलेंगे ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(73)

"निश्चल" रहा फिर भी नवाब सा ।

मैं हर्फ़ हर्फ़ एक किताब सा ।
मैं लफ्ज़ रहा बे-जवाब सा ।

खो गया अपनी मायूसी में ,
हटता नही जो हिजाब सा ।

अपने अरमानों की चाहत में ,
बदलता रहा वक़्त शबाब सा ।

 कह गया अल्फ़ाज़ खामोशी से ,
 हांसिल हुआ नही रुआब सा ।

 फांके मिले ग़जल और गीत से ,
"निश्चल" रहा फिर भी नवाब सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल@...

डायरी 6(72)
Blog post 13/12/18

कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।

आज कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।
राम कहीं तो कहीं रहमान खो गया ।

करते रहे सजदे जाते रहे शिवाला ,
 नजरों में मगर सम्मान खो गया ।

बदल रही है रौनके पाक रिश्तों की ,
घर घर से आज मेहमान खो गया ।

 मिलते रहे गले लोग मुर्दार की तरह ,
 जिंदगी से जिंदा अरमान खो गया ।

 खुदगर्ज बने खुद खुदी के लिये ,
 हर फ़र्ज़ अपनी पहचान खो गया ।

करते नही खुशी उस खुशी के लिये ,
"निश्चल" कहाँ वो अहसान खो गया ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 6(71)





अर्चन वंदन वो होगा शब्दों का ।

अर्चन वंदन वो होगा शब्दों का ।
एक मौन निमंत्रण होगा शब्दों का ।

गढ़कर परिभाषा कुछ शब्दों की ,
भावों से आलिंगन होगा शब्दों का ।
...
रिक्त रहा नही कहीं कुछ कोई ,
मन तृप्त हुआ होगा शब्दो का ।

खिलकर गूढ़ अर्थ के भाव तले ,
तन शृंगार मिला होगा शब्दों का ।
....
हर्षित पुलकित सी होगी काया ,
सृजन सफ़ल वो होगा शब्दों का ।

 "निश्चल"रहकर चलता चल सा ,
  निष्छल फल होगा शब्दो का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@...
डायरी 6(70)

समझ न सकोगे ।

मेरे सवालों को समझ न सकोगे ।
चलोगे साथ मेरे बस तुम थकोगे ।

कभी करती नही सवाल ये जिंदगी ,
इस बे-सबाल को तुम क्या कहोगे ।

 ये फासला खड़ा है तुझमे मुझमे ,
 दूर रहकर भी तुम दूर न रहोगे ।

बेकार ही रहा सफ़र तुझ सँग ,
बात एक दिन यह तुम कहोगे ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@..
डायरी 6(68)

किस को आना है ।

किस को आना है ।
किस को जाना है ।

बस एक प्रश्न यही ,
करता रहा दिवाना है ।

राह चले सब अपनी ,
सबका एक ठिकाना है ।

बीत रहे पल पल में ,
पल को यही बताना है ।

चलकर भी न पहुचें ,
 पर सफर सुहाना है 

"निश्चल" रहे हर दम ,
समय यहीं बिताना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

 हम रीत राग में उलझे है ।
 कहते फिर भी सुलझे है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(67)
Blog post 13/12/18

अपनो के दुलारों से ।

चलो साथ किनारों पे ।
 अपनो के दुलारों से ।

 पार हुआ हर दरिया ,
 तिनको से सहारों से ।
 ..
 सँग मिला दिन भर ,
 ताप मिले नजारों से ।

 साँझ ढ़ले घर लौटें ,
अपनी सी पुकारो से ।

जीवन की बगियाँ में ,
पुष्प यहीं बहारों से ।

खोज रहे है गुपचुप ,
तन मन के इशारों से ।

चलो साथ किनारों पे ।
 अपनो के दुलारों से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(66)
Blog post 13/12/18

रातों का योवन उतरता सा ।

मन से मन को भरता सा।
घट पर घट सा धरता सा।

बीत रहा समय यहाँ भी ।
ये वक़्त कहाँ ठहरता सा।

 मन क्यों मन को हरता सा ।
 तन क्यों मन का करता सा ।

 दृष्ट सदा सत्य नही रहा है ,
 नीर नयन रहा पहरता सा ।

  दिन दिन को कतरता सा।
  रीते बर्तन से बिखरता सा ।

 बीत रहे दिन खाली खाली ,
 रातों का योवन उतरता सा ।

मन से मन को भरता सा।
घट पर घट सा धरता सा।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(65)
Blog post 13/12/18



तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

दिल यूँ कुछ भटकते रहे ।
ख़्याल बीच अटकते रहे ।

न जा सके पार ख़यालों के ,
ख़्याल से ही लिपटते रहे ।
...
हम बार बार रोकते रहे ।
नज़्र निग़ाह से टोकते रहे ।

उलझकर निग़ाह की चाह में ,
हम खुद खुद को कोसते रहे ।
...
 मन सँग बदन लपेटते रहे ।
तन बदन को समेटते रहे ।

एक पहचान की चाहत में ,
तुझे देखकर भी न देखते रहे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(64)

एक पहचान की चाह में ,

दिल यूँ कुछ भटके से ।
ख़्याल बीच अटके से ।

      बे-पार रहे ख़यालों के ,
      चाहत से ही लिपटे से ।
...
लब बार बार रुकते से ।
नज़्र निग़ाह झुकते से ।

        उलझ निग़ाह चाहत में ,
        खुद खुद को चुभते से ।
...
बदन सँग मन लिपटे से ।
तन बदन वो सिमटे से ।

      एक पहचान की चाह में ,
      दिखकर भी न दिखते से ।

    .... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सद्गुरु
डायरी 6(63)

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

"निश्चल" चले सच साथ लेकर ,


मजबूत इरादे कहीं रुकते नही है ।
तूफ़ां के आंगे कभी झुकते नही है ।

प्रण ले जो प्राण से करके रहेंगे ,
हिमगिर भी सामने टिकते नहीं है ।

चल पड़े जो दृण संकल्प लेकर ,
छूकर आसमां भी थकते नही है ।

टकराते है आँधियों से हँसकर ,
हारकर कभी पीछे हटते नहीं है ।

बढ़ते है चीरकर समंदर का सीना ,
उफनाती लहरों से कटते नही है ।

करते नही ईमान का सौदा कभी ,
इस झूँठी दुनियाँ से लुटते नही है ।

 "निश्चल" चले सच साथ लेकर ,
  दुनियाँ को झूँठ से ठगते नही है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(62)

ये परिवर्तन क्या है ?

ये परिवर्तन क्या है ?
बस दृश्य बदलते है ।

बदले हुए मोहरे भी ,
चाल नही बदलते है ।

पिटते प्यादे मोहरों से ,
बजीर नही हिलते है ।

ढाई चाल की ऐड़ लगी ,
शह से प्यादे पिटते है ।

ये परिवर्तन क्या है ?
बस दृश्य बदलते है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मत देने से मत पाता ।
तो मैं भी मत दे आता ।

छिनते सारे मत जिससे ,
फिर मैं कैसा मत दाता ।

... निश्चल..

लिखते रहे सब तक़दीर हमारी ।
कहते रहे , तुम, जागीर हमारी ।
घिस पिसते रहे दो पाटों में ,
समझे नही कोई पीर हमारी ।

बचपन आया योवन तन में ,
काम नही डिग्री की लाचारी ।
प्रौढ़ हुए युवा समय से पहले ,
रोजी की चिंता सिर पे भारी ।

सर्द खड़ा है खेतों में वो ,
लागत की वर्षा होती भारी ।
दे आया उनके दामों में धन ,
मालामाल माया के पुजारी ।

कहते है वो बड़ी शान से ,
अपने वादों में सत्ताधारी ।
बेठाओ तुम हमे कुर्सी पर ,
कर देंगे हम भर झोली भारी ।

बांट रहे है माल-ए-मुफ्त ,
सब के सब ही बारी बारी ।
काम नही पर हाथों में ,
बढ़ती है हाथों की बेकारी ।

कुछ दिन की कतरन है ,
रातो का योवन भारी ।
सब रीते से बर्तन है ,
रीत गये दिन खाली ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(62)

ये कैसी कहानी है ।


ये कैसी कहानी है ।
आंखों का पानी है ।

      ख़ुश्क रहा कोर में ,
      वो इतनी निशानी है ।

रूठते नही रुठकर ,
जो आदत पुरानी है ।

      मिलती रही हँसकर ,
      ये दुनियाँ दीवानी है ।

ठहर जरा क्षण को ,
 ये रात भी सुहानी है ।

         भोर मिले चलना ,
         रात तो बितानी है ।

 "निश्चल" सहज हर पल को,
  ये जिंदगी आनी जानी है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(61)

कुदरत के ये सन्नाटे ,

कुदरत के ये सन्नाटे ,
 पग मौन चुभे कांटे ।

तपती सी ये धरती ,
 बस प्यास उसे बांटे ।

चलता शुष्क कंठ लिये ,
नभ नीर जहाँ बांटे ।

रहा आश्रयहीन सा वो ,
प्रश्न यही रात कहाँ काटे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

तुझे मिले कुछ ऊंचा असमां से ।
हो जुदा कुछ जो इस जहां से ।

एक पहचान हो कल अपनी ,
अपने ही छोड़े कदम निशां से ।

उठते रहे हाथ हरदम ही मेरे ,
हर दुआ में मेरे इस दुआ से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

डायरी 6(60)

असरात लिखा करता हूँ ।

1
हालात लिखा करता हूँ ।
       असरात लिखा करता हूँ ।

बिखेरकर अल्फ़ाज़ अपने ,
         ज़ज्बात लिखा करता हूँ ।
.----2
जूझता रहा मैं ,
               हालात के हादसों से ।

गुजरता रहा मैं ,
             वक़्त के रास्तों से ।

कहाँ किसे कहुँ ,
           मैं मंजिल अपनी ,

बा-वास्ता रहा मैं ,
          खुदगर्ज वास्तो से ।
-----3
लिखता रहा खत,
            ख़्वाब ख़यालों से ।

पैगाम-ए-इश्क़ ,
         जिंदगी के सवालों से ।

पलटता रहा मैं ,
            जिल्द किताबों की ,

मिलते नही होंसलें ,
             कुछ मिसालों से ।
-----4
 वक़्त बड़ा कमज़र्फ हुआ है ।
           जफ़ा भरा हर्फ़ हर्फ़ हुआ है ।

  घुट रहे है अरमान सीनों में ,
            ये सर्द दर्द अब वर्फ़ हुआ है ।
---5
आँख मूंदने से रात नही होती ।
        झूंठे की कोई साख नही होती ।

 उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
          आसमान में सुराख नही होती ।
---6
कुछ कतरन है दिन की ।
           रीते रीते से बर्तन सी ।

रीत रहे दिन खाली खाली ,
           रातों है उतरे यौवन सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

डायरी 6(59)

जफ़ा/ जुल्म 
कमज़र्फ/ ओछा /कमीना

   

भाषा की परिभाषा में ।

शब्दों की अभिलाषा में ।
भाषा की परिभाषा में ।

खोज रहा मन , गुपचुप ,
कुछ अर्थ पिपासा में ।

लय घुटता कुछ रुकता है ,
डूब रहा राग निराशा में ।

प्रणय गीत गाता फिर भी ,
मधुर मिलन की आशा में ।

भाव भरे है , गीत मेरे ,
सरगम का हरदम प्यासा मैं ।

खनकेंगे सुर भी साथ मेरे ,
रहता मन मन की दिलाशा में ।

गहन निशा के आँचल से ,
उठता भोर तले, उबासा मैं ।

मौन लिए मन,मन के भीतर ,
गढ़ चलता भाव सहासा मैं ।

शब्दों की अभिलाषा में ।
भाषा की परिभाषा में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6(57)

ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

वो जमीं वो गली वो मकां ढूंढते है ।
जो हो यहीं कहीं वो जहां ढूंढते है ।

टकराती साहिल से बेख़ौफ बेझिझक ,
मचलती उस मौज की दास्तां ढूंढते है ।

लफ्ज़ ख़ामोश ख़यालों की ख़ातिर ,
उस ज़ीस्त रूह की जुबां ढूंढते हैं ।

जलते गुलिस्तां नफ़रत की आग में ,
निग़ाह आब की कोई अना ढूंढते है ।

 सींचे चाहत-ए-आब से गुल को ,
 गुलशन का कोई बागवां ढूंढते है ।

लूटते है दरिया साहिल को ,
मौज मैं किनारे वफ़ा ढूंढते है ।

करते रहे सफ़र सफर की खातिर ,
छूटते क़दमो के निशां ढूंढते है ।

पता मिले मंज़िल का जिस जगह पे,
चल"निश्चल" ऐसा कोई मुक़ा ढूंढते है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
डायरी 6(58)
अना/अहमं

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...