शनिवार, 23 दिसंबर 2017

कुछ ख्याल


हराकर उम्र को शौक पाले थे, बड़े शौक से ।
 बुझ गए चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।

दिए आईने ने हमे सहारे हैं।
 हुए आईने के जब हवाले हैं ।
  सहारा दे सच के दामन का,
 झूठ के सारे नक़ाब उतारे हैं।

झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।

शमा जली अंधेरों की कमी है।
 देखें हवा किधर को चली है।
  
झूठ कुछ भी नही।
 सच कुछ भी नही।
 सब ख़्याल हैं ख़यालों के,
  रब के सिवा कुछ भी नही।


  छूटता है कुछ छूट जाने दो ।
 रूठता है कोई रुठ जाने दो ।
 बहुत सहेजा मैंने रिश्तों को ,
  अब तो कुछ जी जाने दो ।

  ..... "निश्चल" दुबे विवेक ...

पौष मास के जाड़े


यह पौष मास के जाड़े।
यह अलसाए से भुंसारे।
      
  निकल पड़ा वो चौराहों पर,
  सोचे प्रुभ कुछ जुगत भिड़ा दे।

   मिल जाए कोई काम कहीं,
   अपने पेट की आग बुझा ले।

 मौसम कभी कोई असर नही ,
 गर्मी वर्षा चाहे हो यह जाड़े ।

 भाव बेदना शून्य हुई उसकी ऐसे,
 जैसे हिम कण से पाला पड़ जावे।

 मिल जाए कुछ अन्न उसे ,
 झट से अपने उदर उतारे ।

 हो जाए तन मन चेतन ,
 फिर क्या गर्मी क्या जाड़े ।

...."निश्चल" विवेक दुबे..

शब्द बिके सत्ता के गलियारों से



आज शब्द बिके सत्ता के गलियारों में ।
आज कैसे ढूँढे सूरज को उजियारों में ।

अर्चन बंदन वो गठबंधन शब्दों सा ।
 प्रणय मिलन वो शब्दों से शब्दों का ।

 भावों के धूंघट में शब्द दुल्हन सा ,
  हर काव्य रचा एक नव चिंतन का ।

 कलम दरवान बनी दरवारों की ,
 चलती है सिक्कों की टंकारों में ,

जो हिस्सा है इतिहास का । 
नही था वो कल आज सा ।
 साधना थी वो शब्दों की,
 नही था वो प्रयास आज सा । 
... *विवेक दुबे "निश्चल''*©...

उजाला


उजाला जब भी चला है,
 अंधेरों ने छला है 
 रोशनी की चाह में ,
सूरज तो जला ही जला है ।
  .... "निश्चल" विवेक दुबे ©....


राम नही तो क्या होगा


प्रहार नही होगा तो क्या होगा ।
 जीवित इतिहास नही तो क्या होगा ।
 समझो गौरव को भारत के तुम ,
 अवध में श्री राम नही तो क्या होगा ।
  ...."निश्चल"विवेक...

सियासत की बिसात

सियासत की बिसात पर ।
  चलते चाल हर बात पर ।
  प्यादों की क्या बात करें ,
  राजा भी लगते दाव पर ।
   .... 


 राजनीति की कमान से,
 मज़हब के तीर हटाना होगा ।
 राष्ट्र बचाना होगा ,
 मानबता को जगाना होगा ।। 
 चलते सब एक राह एक ही पथ पर ,
 पग से पग मिलाना होगा ।
 मुड़ती अपनी अपनी हर राहों को ,
 राष्ट्र भक्ति के चौराहे पर लाना होगा ।
  राष्ट्र बचाना होगा ,
   मानबता को जगाना होगा ।।
   ..... विवेक दुबे"निश्चल"@....

चलता मैं तपती राहों पे


कदम तले काँटे बिखरे मखमल के ।
आघातों से जख्म मिले हल्के हल्के ।

 चलता हूँ निर्जन मरु वन में मैं,
 धोखे बार बार मधु वन के मिलते । 

 हारी नही अभी जिंदगी फिर भी, 
 घूँट हलाहल के घूँट घूँट मिलते ।

 चलता मैं पथिक तपती राहों पर,
 वृक्ष घने हरे भरे नही अब मिलते ।

   .... ...... विवेक दुबे"निश्चल"@ ....

भूख की पीड़ा


विषय ... भूख की पीड़ा


1-
   वेदना उसकी बड़ी भारी थी ।
   भूख जिसकी एक लाचारी थी ।
   बीनता था जूठन वो बचपन , 
   और निगाहें उसकी आभारी थीं ।

2-
 भूख दौलत की बढ़ती गई,भूख रोटी की घटती गई ।
 रोटी की फ़िक्र में जो ,कमाने निकला था कभी ।।
3
 कलम चली है बस कुछ ही शब्दों पर ,
लेखन को शब्दों में न बाँध सके कोई ।
 कलम पीड़ा भूखी सदा शब्दों   की ,
  शब्दों से पार पा सके न कभी कोई ।

4
भूख नही तो जग न होता ।
 तब कोई रिश्ता न होता ।
 हर रिश्ता जन्मा पीड़ा से,
 पीड़ा से मन भूखा होता ।

 5
 भूख नही तो पीड़ा कैसी ।
  हर रिश्ता हर दौलत कैसी ।
   जगती है भूख जब मन मे,
  तब रुकने की चाहत कैसी ।

6
 चलता है तू *निश्चल* भाव से,
 फिर मन यह पीड़ा है कैसे।
  भूख जो न होती शब्दों की ,
 फिर यह कलम उठती कैसे ।
  
7
भूख रहे अधरन पे ,प्यास रहे मन मे ।
 कलम कहे सब कुछ,बहुत कम शब्दन में ।।
  
  .... विवेक दुबे "निश्चल''....

दो मुक्तक


  देखता हूँ निग़ाह भर उसे।
   एक वो है नज़र मिलता नही।
    तूफ़ां मैं कहूँ उसे कैसे,
    साहिल से वो टकराता नही।
...  "निश्चल" विवेक  ...

हसरतों का समंदर है ।
 तूफ़ां जिसके अंदर हैं।
 निग़ाह उठा देख तो सही,
  निग़ाह तेरी मुंतज़र है।
 ..."निश्चल" विवेक...

नाखून


विषय- नाखून


कुछ ज़ख्म कुदेरता मैं ।
 नाखूनों से घेरता मैं।
 उस रिसते मवाद को ,
 नाखूनों पर फेरता मैं।

    नाखूनों में पशुता साथ लिए अपनी,
    धर्म जात की,लकीरें खिंचता मैं। 
    नख डुबाता पुराने ज़ख्म में फिर ,
     नाखूनों को जतन से सींचता मैं।

  बटवारे के जख्म नासूर बने,
  इन नाखूनों के अहसान बड़े।
    काटता नही कभी इन्हें में,
     यही तो मेरे हथियार बने। 

  ...."निश्चल" विवेक दुबे...

नाखूनों से तो अब चरित्र उधेड़े जाते हैं।
 गोरी चमड़ी तो सफेद उजाले खा जाते हैं। 
 भरते दम अधम आश्रमो के अंदर,
 बाबा भी अब भोगी कहलाते हैं।
   करते श्रंगार अनछुए यौवन का ।
 कौमार्य गुरु दक्षिणा में पाते हैं।
  इंद्रप्रस्थ की नाक तले देखो,
 भोग आश्रम खुल जाते हैं।
...."निश्चल"विवेक ....

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

क़तरा क़तरा ज़िन्दगी

 क़तरा क़तरा ज़िंदगी ,
तनहा तनहा ज़िंदगी   ।
ख़ुशियों से सरोबार ज़िंदगी ,
ग़म के समन्दर में डूबती ज़िंदगी ।

 फेर के जाल में उलझी ज़िंदगी ,
जाल फ़रेब से दूर ज़िंदगी ।
अपने में ही सिमटती ज़िंदगी ,
अपनों के पास आती ज़िंदगी ।

सबसे दूर जाती ज़िंदगी ,
सब के पास आती ज़िंदगी ।
अपमान से शर्मशार ज़िंदगी ,
सम्मान से सर उठती ज़िंदगी ।

हर रंग में रंगी ज़िंदगी ,
कटती है ज़िंदगी ।
फिर वापस न आने के ,
अहसास दिलाती ज़िंदगी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

लौट आया मैं

लौट आया मैं अब अपने ही शहर में।
अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
सुबह भी अचरज से घूरती मुझे ।
वो अब कोई गैर मानती मुझे ।।
शाम भी तार्रुफ़ से देखती मुझे ।
वो भी अज़नबी अब जानती मुझे ।।
 हवाएं भी पता पूछती हैं मुझसे मेरा।
परिंदे कहें अज़नबी कौन है बता जरा ।।
खोजता हूं उन राहों को ।
 फैलाऊ जहा अपनी बांहों को ।।
खोजूं मैं दर-ब-दर उन चाहों को ।
समेटने खोल दें जो अपनी बाँहों को ।।
 लौट आया हूं मैं अब अपने ही शहर में ।
 अज़नबी सा हूं मग़र अपने ही शहर में ।।
        .....विवेक......

आजाओ घनश्याम


तू आया तब था ।
नष्ट हुआ सा जब सब था ।
तू तो तब सब सुधार गया था ।
न भय न भृष्टाचार रहा था ।
तू ने पाप व्यभिचार मार दिया था ।
 गीता से सब को तब तार गया था ।
समय बदला युग बदला ।
आये फिर दानब लेने बदला ।
आज फिर मचा कोहराम ।
बही कंस बकासुर पूतना कौरव ।
करते अत्याचार सरे आम ।
धरती कांपी अम्बर डोला ।
हुआ त्रस्त हर इंसान ।
 बहुत हुआ पाप अनाचार ।
अब तो आ जाओ तुम ।
 धनश्याम ....
 ...विवेक...

राधिका


राधिका मन सी मैं प्यासी
बन कृष्ण सखा की दासी
रच जाऊं मन मे
बस जाऊं नैनन मे
मिल जाऊं धड़कन मे
 छा जाऊं चितवन मे
 न भेद रहे फिर कोई
 इस मन मे उस मन मे 
    ...विवेक...


कुछ ख्याल


   
       आइना तू सवार दे मुझे ।
        मैं कुछ निहार लूँ तुझे ।।
          .....विवेक®...


साजिशों से डरा नही
 आंधियो में झुका नही
 सहा हर तूफ़ान 
  अपना सीना तान 
    ...विवेक...



हौंसलो से हुनर मुक़ाम पता है ।
मुसाफ़िर अकेला थक जाता है ।।
...विवेक...

काश! आइनों के लव न सिले होते
 काश! आईने भी बोल रहे होते
 तब,आईने में झांकने से पहले 
 हम,सौ सौ बार सोच रहे होते 
      ...विवेक....




वक़्त बदलते देखा है


हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
 चन्दा को घटते देखा है ।
 तारों को गिरते देखा है ।
 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
 हिमगिरि पिघलते देखा है ।
 सावन को जलते देखा है ।
 सागर को जमते देखा है ।
 नदियां को थमते देखा है ।
 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
 खुशियों को छिनते देखा है ।
 खुदगर्जी का मंजर देखा है ।
 अपनों को बदलते देखा है ।
 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
 नही कोई दस्तूर जहां , 
  ऐसा दिल भी देखा है । 
 नजरों का वो मंजर देखा है ।
 उतरता पीठ में खंजर देखा है ।
 हाँ वक़्त बदलते देखा है ।
    .....विवेक....

न आशा न अभिलाषा




        न कोई आशा
                  न अभिलाषा 
       न कोई निराशा
               न मन भरमाता
      न तू बौराता 
           बस जीवन पथ पर 
      चलता जाता 
                    चलता जाता
     ओ पथिक तू 
                 मंजिल पा जाता 
      मंजिल पा जाता
                     .....विवेक.....


कुछ ख्याल


ज़मीन बिछाता आसमां ओढ़ता मैं
इस तरह खुद को खुद से जोड़ता मैं
हसरतों को हक़ीक़त से तोड़ता मैं
 इस तरह खुद को खुद से जोड़ता मैं 
      ...विवेक...


ज़माने का रिवाज ,
बिगड़ा बिगड़ा है ।
देख सादगी हमारी ।
हर शख़्स हमसे ,
उखड़ा उखड़ा है ।
    ....विवेक....

उसका भी एक मिजाज़ है..
मेरा भी एक मिजाज़ है....
सूरज में भी आग है...
चाँद में भी दाग है... 
......विवेक....


शब्द लुटाता शब्द सजाता मैं ।

        लिखता बस लिखता जाता मैं ।

 खुद से खुद खुश हो जाता मैं ।

          खुद को खुद से झुठलाता मैं ।

 सच में कभी झूंठ सजाता मैं ।

         झूंठ कभी सच से बहलाता मैं ।

          .....विवेक....




चेहरे ही बयां करते हैं ।

चेहरे ही बयां करते है,
               इंसान के हुनर को ।
नजरें ही पढा करतीं हैं ,
               हर एक नज़र को ।
क्यों इल्ज़ाम फिर लगाएँ ,
               इस मासूम से ज़िगर को ।
 दिल झेलता है फिर भी,
                   दर्द के हर कहर को ।
 चेहरे ही बयां करते हैं ,
                   इंसान के हुनर को  ।
शब्दों ही ,ने उलझाया ,
                 शब्दों के असर को ।
 मिलें सब जिस नज़र में ,
                कहाँ ढूंढे उस नज़र को ।
 मासूमियत ने देखो ,
               किया ख़त्म , हर असर को।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
              इंसान के हुनर को ।
    ....विवेक दुबे"निश्चल"@...

कुछ शब्द छूटते


कुछ शब्द छूटते 
             कुछ शब्द टूटते 
 फिर भी हम 
                   शब्द कूटते 
 शब्दों में कुछ 
                    रिश्ते ढूंढते 
 भावों से नाते
                        सींचते 
 बस शब्दों से 
                  शब्द खींचते 
 अपनेपन के 
                   बीज़ सींचते 
 अंकुरित हो कोई बीज
                  बन वृक्ष विशाल 
 कर जाये कमाल 
                 हुए हम मालामाल
  वृक्ष पर मीठे
                    फल आयें जब
  पंक्षी डाल डाल 
                    नीड़ बनाये फिर 
 हुए शब्द सार्थक तब
                           ....विवेक...
  

मन उपवन


कहता हैं मन कुछ कहता है 
 बहता है सरिता बन बहता है
 देता है शब्द सुधा देता है
 कर उन्मुक्त भाव से विचरण
 इस मन के निर्जन वन को
 सिंचित करता इस मन को
 शब्द सुधा के इस जल से 
 सिंचित करता मन मन से 
 भावों के इस सिंचन से 
 पुलकित यह मन उपवन 
       नहीं बंधा बंधानों में 
    निकल पहाड़ों से यह
     बस बहता मैदानों में
   बहते जा बस बहते जा 
  शब्द सुधा के कहते जा 
 सिंचित कर कण कण
 खिला खिला हो
  हर मन उपवन
    .....विवेक...

मृग मरीचिका


जीवन की इस
मृग मरीचिका का
आकर्षण।
तेरा मन, मेरा मन,
यह पागलपन ।
कैसी यह
मन की ,मन से उलझन ।
तेरा मन, मेरा मन ,
घटती धड़कन 
बढ़ती धड़कन ।
उठती साँसे ,
गिरती साँसे 
सूनी आँखे ,
नेह नीर भरी आँखे ।
कैसे सुलझे 
यह उलझन ,
तेरा मन, मेरा मन ।
.....विवेक...

पिता


मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
उसके होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ,
क्या हम हो सकेंगे कभी कहीं ,
अपने इस ईस्वर के आस पास ,,
तब शायद पिता को ,
समझ सकें कुछ हम भी ,,,
...विवेक.....

मन


श्याम संग नाचत मन
 राधिका सा बन ठन
 मानत रूठ जात मन
 मिलत छुपत जात मन
  राधा सा बन जात मन
 कान्हा में खो जात मन
 कान्हा का हो जात मन
      ....विवेक...


बताओ


इसने कहा मेरा खुदा 
उसने कहा मेरा god 
तुमने कहा मेरा ईस्वर 
मैंने पूछा भाई 
यह बताओ 
यह रहते कहाँ है ? 
तीनो ने अंगुलियाँ अपनी अपनी 
आसमान की और उठा दी 
मैंने फिर पूछा 
क्या यह भी हमारी तरह आसमान में 
लड़ते रहते है ? 
अपने अपने वर्चस्व के लिए .... 
सच कहूँ यारो 
तीनो की नजरे जमीन को ताक रही थी ... 
......विवेक.....

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...