शनिवार, 18 नवंबर 2023

उम्र

  



   1

 ये उम्र एक मुक़ाम खोजती सी ।

   ज़िंदगी का पयाम खोजती सी ।

.....

2

 एक उम्र दराज , नजर रखता हूँ ।

 दिल जोड़ने का , हुनर रखता हूँ ।

 मैं न हाकिम हूँ , न हक़ीम कोई  ,

 दिल से दिल का , असर रखता हूँ ।

 ....

3

 हराकर उम्र शौक पाले थे,बड़े शौक से ।

 बुझ गए चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।

..

4

इश्क़ का कुछ यूँ मसौदा है ।

के यह ताउम्र का सौदा है ।

उसे पा जाने की चाहत में ,

 खुद ने खुद को खोजा है ।

...(सूफ़ियाना अंदाज)

.....

5

यह रूह बिखर जाने दो ।

ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।

इन हसरतों की चाहत में ,

एक उम्र गुजर जाने दो ।

..

6

नादानियां कुछ उम्र की 

 उम्र भर चलती रही ।

चाँदनी सँग चाँद के

 फिर भी चलती रही ।

...

7

हसरतों के बाजारों में ।

उलफ़्तों के चौराहों में ।

लुटती रही अना ,

उम्र के दोराहों में ।

....

8

 एक उम्र ठहर सी रही है ।

 ज़िन्दगी निखर सी रही है ।

 छुड़ाकर दामन हसरतों का ,

 अब चाहतों से डर सी रही है ।

...

9

ये उम्र जब पलटने लगती है ।

निगाहों से झलकने लगती है ।

होते है तजुर्बों के आईने सामने,

 चश्म इरादे चमकने लगती है ।

....."

10

देह का आयाम है झुर्रियां ।

उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।

 गुजरता कारवां है जिंदगी ,

बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।

.... 

11

उम्र ज्यों पकती है,

 तन तपिश घटती है।

  हाँ इस पड़ाव पर, 

ठंड तो लगती है ।

..

12

एक उम्र की तलाश सी ।

एक अधूरी सी आस सी ।

गुजरता रहा उम्र कारवां,

साथ लिए हसरत प्यास सी

.....

13

उम्र घटती गई और,

 कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।

 तलाश-ऐ-जिंदगी में , 

 जिंदगी से गुजरते गए ।

....

14

कुछ यक़ी के परिंदे ।

कुछ ख़ौफ़ के दरिंदे ।

उम्र चली  तन्हा सी ,

ले हालात के चरिंदे ।

...

15

कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।

कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।

ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,

मगर नज़्र के मलाल से रहे।

......

16

  उम्र पकती रही रौनकें घटती रहीं।

  तजुर्बा-ऐ-ताव में हयात तपती रही। 

...

17

हालात ने उम्र दराज बना दिया मुझे ।

यूँ तो शौक बचकाना अभी भी है मेरे ।

......

18

      आये थे जहाँ सुबह ,

       साँझ वहाँ से लौटना ।

       सफ़र न था उम्र भर का ,

       तू न यह जरा सोचना ।

..

19

अनुभव बिना जीव जनम,

         रहता है बेकार ।

उम्र चले है बांटती ,

         जीवन का ही सार ।

..

20

याद रखो बचपन को ।

  तुम न देखो दर्पण को ।

  यह झुर्रियाँ उम्र की नही ।

  दे गया है वक़्त जाते जाते 

....

21

 यादों में बिखर जाते हैं ।

  रिश्ते यूँ निखर जाते हैं ।

         कटती उम्र ख़यालों सँग ,

          जो आगोश भर जाते हैं ।

.. ...

22

यह रूह बिखर जाने दो ।

ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।

इन हसरतों की चाहत में ,

एक उम्र गुजर जाने दो ।

....

23

 वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।

आप को कर अंधेरों के हवाले ।

होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,

नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।

...

24

स्वयं का शिल्पी स्वयं रहा ।

है कुछ अधूरा ये वहम रहा ।

गढ़ता रहा स्वयं को उम्र सारी,

फिर भी कहीं कुछ कम रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

25

ये उम्र जब पलटने लगती है ।

निगाहों से झलकने लगती है ।

होते है तजुर्बों के आईने सामने,

 चश्म इरादे चमकने लगती है ।

....."निश्चल"@.....

26

हर्फ़ हर्फ़ कहानी लिखता गया ।

जिंदगी तुझे दीवानी लिखता गया। 

कर न सका इजहार प्यार का तुझसे ,

बस तुझे उम्र निशानी लिखता गया ।

....."निश्चल"@....

27

साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।

स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।

कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,

 रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।

...."निश्चल"@....

28

जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है 

खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।

कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,

 अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।

...."निश्चल"@...

29

ज़िंदगी के कुछ समझौते ।

कुछ समझौतों की ज़िंदगी ।

न पाया ब-ख़ुदा ख़ुदा उसमें ,

मैं करता रहा ताउम्र बंदगी ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

30

वो अल्फाज की सियासत ।

 ये अहसास की सदाक़त ।

 चलते रहे साथ उम्र सारी ,

 न रही कहीं कोई अदावत ।

...."निश्चल"@...

31

मुस्कुराते रहे वो एक झूँठ के सहारे ।

और उम्र के मुक़ाम पे न मिले सहारे ।

कर गई गिला जिंदगी ही जिंदगी से ,

चलती रही जिंदगी इस तरह बे-सहारे ।

...."निश्चल"@...

32

ये जिंदगी कब कहाँ गुज़र जाती है ।

एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स ख़्वाब के आइनों में,

क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

33

मिरी तिश्नगी भी एक कहानी कहेगी ।

जिंदगी मुझे ये उम्र दीवानी कहेगी ।

 पढ़ लेगा ज़माना खामोशी से मुझे

 निगाह निगाह जिसे जुवानी कहेगी ।

....."निश्चल"@...

34

   इज़हार से इकरार हो न सका ।

 ख्याल खुमार में शुमार हो न सका ।

 करते रहे इश्क़ ता-उम्र ख़ुद ही से,

 और ख़ुद पे इख़्तियार हो न सका ।

      ,...."निश्चल"@..

34

उम्र ज्यों ज्यों मुक़ाम से गुजरती गई ।

तेरे इश्क़ की दीवानगी बढ़ती गई ।

बहता रहा दरिया किनारे छोड़ कर,

चाह आगोश समंदर को भरती रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

35

कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।

कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।

ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,

मगर नज़्र के मलाल से रहे।

....

36

उलझे सवालों का सुलझा जवाब मांगता है ।

ये वक़्त अक़्सर मुझसे हिसाब मांगता है ।

बहकर आया जो दरिया जिंदगी का दूर से ,

मिल उम्र के समंदर से वो रुआब मांगता है ।

.....

37

उम्र जुड़ रही तारीखों में ।

 निशां छोड़ रही रुख़सारों पे ।

 दर्ज हुए हिसाब निगाहों में ।

 छूटे कुछ गुजरी जीवन रहो में ।

...

38

 उम्र-ऐ-रौनक रुकने नही देती ।

 बकाया कोई रखने नही देतीं ।

 कर चल हर हिसाब तरीके से ,

 गुजरे यह ज़िंदगी सलीके से ।

....

39

 ज़िंदगी कटती रही अरमां हँसते रहे ।

  उम्र गुजरती रही आराम घटते रहे ।

  हालात बयां क्या करें अब आज के ।

 अपने आगाज की सज़ा भुगतते रहे ।

...

40

न कुछ ठीक रहा ,सब बिगड़ सा चला ।

 हारने भी लगे ,कल जो जीतते ही रहे ।

जहां आए थे सुबह , साँझ लौटना पड़ा ।

 सफ़र नही उम्र भर का यह सोचते ही रहे ।

...

41

वक़्त सिमटता रहा, हालात फैलते रहे ।

 रिश्तों के आँचल में, जज़्बात खेलते रहे ।

 करते रहे सफ़र , दूरियों से दूरियों तक ,

 नजदीकियाँ उम्र की,निगाहों से ठेलते रहे ।

     ...

42

ये जिंदगी कब गुज़र जाती है ।

एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,

क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।

.... 

43

एक जिंदगी कब गुज़र जाती है ।

ये उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,

टुकड़े टुकड़े शक़्ल बिखर जाती है ।

......

44

एक उम्र ठहर सी रही है ।

 ज़िन्दगी निखर सी रही है ।

 छुड़ाकर दामन हसरतों का ,

 अब चाहतों से डर सी रही है ।

........

45

एक उम्र तराश तलाशती रही ।

जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।

कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,

सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।

... 

46

ता-उम्र का यूँ ईनाम मिला ।

 निगाहों में बदनाम मिला ।

 सींचकर अश्क़ शबनम से ,

  कदमों तले मुक़ाम मिला ।

..... 

47

मैं भटका अपने हालात से ।

 हार कर आज को आज से ।

 चलता ही रहा फिर भी मैं  ,

 जीतकर काल के आघात से ।

...

48

    गुजरते रहे हम हर हालात से ।

    लड़ते रहे वक़्त के मिज़ाज से ।

   दौर-ऐ-उम्र किस को बयां करें ,

    जीत न सके अपने आप से ।

     .... 

49

चेन नही तो आराम कहाँ ।

 सुबह नही तो शाम कहाँ ।

 उम्र गुजारी लिखते लिखते ,

 हम बिके नही सो नाम कहाँ ।

  ..... 

50

हसरतें देतीं रहीं दिल में दस्तक ।

समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।

 

 मचलीं मौजें अरमान की कभी,

 बिखरीं साहिल पे बिखरने तक । 


 गुजरी ज़िंदगी अपने अंदाज़ में।

 गुजर गई ज़िंदगी गुजरने तक । 


 हारता न था जो कभी हालात से,

 लड़ता रहा खुद से जीतने तक।


 ज़श्न मनाएँ क्या जीत का वो,

 उम्र गुजर गई जब जीतने तक।


समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।

...."निश्चल" विवेक दुबे...

51

यह ख्याल रहे ख़्याल से ।

अक़्स ढ़लते रहे मलाल से ।


खोजते रहे रौनकें जमाने में,

फिर भी तंग दिल रहे हाल से ।

.....

52

एक उम्र गुजरती है ,

पलकों की पोर से ।


 ज़ज्बात पिरोती है ,

 अश्कों की डोर से ।


साँझ तले टूटते ख़्वाब है,

साथ चले थे जो भोर से ।


तिलिस्म सा ही रहा है ,

खींचता कोई छोर से ।


नाकाफी रहा साज-ए-नज़्म,

"निश्चल" चला दूर शोर से ।

...... 

53

- राज़-ऐ-वक़्त ---


2122 , 12 12 ,22


दूर कितना रहा , ज़माने में ।

कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।


 छूटता सा चला कहीं मैं ही ,

 यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।


ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,

क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।


खोजता ही रहा कमी गोई ,

नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।


रोकता चाह राह के वास्ते ,

चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।


जूझती है युं रूह उम्र सारी ,

जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।


राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

 54

जिंदगी तलाश सी रह गई ।

उम्र यूँ हताश सी रह गई ।


न हो सके तर लब तमन्नाओं से,

 एक अधूरी प्यास सी रह गई ।


खोजता चला दर-ब-दर ,

ठोकर ही पास सी रह गई ।


सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,

खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।


लपेट कर चंद अरमान की चादर ,

चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।

.... 

55

ये फूल गुलाब से ।

नर्म सुर्ख रुआब से ।


नादानियाँ निग़ाहों की ,

नजर आतीं नक़ाब से ।


कशमकश एक उम्र की ,

उम्र पे पड़े पड़ाव से ।


गुजरते रहे वाबस्ता ,

राहों के दोहराव से ।


 थमता दर्या हसरत का ,

"निश्चल" बहता ठहराब से ।


...विवेक दुबे"निश्चल"@..

56

तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।

ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।


सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,

गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।


ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,

साहिल को मिलने की आस रह गई ।


 कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,

 चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।


  बांट दी अपने दामन की खुशियाँ

   यूँ ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।


   ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

58

वो ये जानते है कि हम नादान से है ।

उनकी साजिशों से हम अंजान से है ।


रिवाज़ नही बेहूदगी का मेरी दुनीयाँ में,

उस्ताद साजिशों के हम भी ईमान से है।

 लगते साजिशों में वो बड़े मुकम्मिल,

 इरादे उनके नजर आते शैतान से है ।


 करते है बातें वो दिलो में फाँसले की,

 न जाने किस बात के उन्हें गुमान से है।

  कायम है वो ज़ख्म तीर जुवान के ,

 ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ दिल में निशान से है ।

आये है तेरे घर में एक उम्र के वास्ते,

अब नही हम यहाँ तेरे मेहमान से है ।


.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

59

सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।

बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।


होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,

होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।


बह गया दर्या ,  वक़्त का ही वक़्त से ,

करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।


 थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,

 ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।


"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,

झरते रहे निग़ाहों से ,  मलालात कुछ ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"

60

वो दिन भी कितने खुदी के थे ।

जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।


होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,

लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।


मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,

जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।


खोये थे आप ही आप में हम ,

तब रंज नही कहीं रजंगी के थे ।


परवाह नही थी कल की कोई ,

बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।


उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,

कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।


अरमां न कोई पहचान के वास्ते

फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।


  थी नही शान अहसान की कोई 

 "निश्चल"दिन नही तब तजंगी के थे ।

 

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

61

एक धूल भरा दिनकर सा ।

अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।

खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,

अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।

.......

62

गढ़ता रहा क़सीदे अपनी ही शान में ।

एक मेहमान जो रहा इस जहान में ।


एक तआरुफ़ वो हिसाब से देता रहा ,

चैन खोया रहा अपनी ही पहचान में ।

..

63

एक गुजरता कारवां मैं उम्र सा रहा ,

वक़्त सा सिमटता रहा अरमान में ।


 एक टूटती सी हसरत जोड़ता रहा ,

 हालात से निपटता रहा अहसान में ।

....

 एक हाल-ए-ज़ज्ब ज़ज्बात सा रहा ,

 ज़िस्म रूह से लिपटता रहा इंसान में ।


एक सवाल कुछ मेरे उसूलों का रहा ।

यूँ क़ायम रहा मैं "निश्चल" ईमान में ।

.... विवेक दुबे निश्चल..

...64

वो अंजान सा बचपन ।

वो नादान सा बचपन ।


उम्र के कच्चे मकां में ,

वो मेहमान सा बचपन ।


 इस ज़िंदगी के सफ़र में ,

 एक पहचान सा बचपन ।


 खोजता ख़ुद को ख़यालों में ,

  रहा अहसान सा बचपन ।


 ...विवेक दुबे"निश्चल"@....

65

हालात से हयात जूझती ।

 वक़्त से सवाल पूछती ।


      चली आज तक जिस सफ़र पे,

       उस सफ़र का हिसाब पूछती ।


  रहेंगे यह हालत कब तलक ,

 उन हालात की मियाद पूछती ।


       ख़ामोश रही जुबां उम्र सारी ,

      उस खामोशी के राज पूछती ।


 साँझ किनारे मुक़ाम  नही ,

 सुबह अपना अंजाम पूछती ।


      .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

66

  रिंद चला मय की ख़ातिर ,

  साक़ी के मयखाने में । 


  हार चला वो ज़ीवन को ,

  ज़ीवन पा जाने में ।


   रूठे है तारे क्यों ,

   चँदा के छा जाने में।


   भोर तले शबनम जलती,

   सूरज के आ जाने में ।


   उम्र थकी चलते चलते ,

   यौवन के ढल जाने में । 


    उम्र निशां मिलते ,

  चेहरों के खिल जाने में ।


 जीव चला ज़ीवन की खातिर,

  ज़ीवन को पा जाने में ।

 

   रिंद चला मय की ख़ातिर ।


..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

68

उम्र के मुकाम पर ।

चाह के पयाम पर ।


तय किये है रास्ते ,

मंजिलों के दाम पर ।


तिलिस्म जिस्म में भरा ,

रूह के इकराम पर ।


ढल रही है शाम  ,

भोर के नाम पर । 


ले चली है हसरतें ,

ख़्वाब के खय्याम पर ।

 ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

इकराम--दान

खय्याम ---तम्बू

....

69

 सराहते हम रहे ।

                   बिसारते हम रहे ।


 खींच कर निग़ाहों से ,

          अक़्स से उभारते हम रहे ।


 ये होंसलें तजुर्बों के ,

             उम्र से संवारते हम रहे ।


 टूटते सितारे फ़लक से,

              जमीं को बुहारते हम रहे ।


ख़ाक होते रहे हवा में ,

              नज्र से निहारते हम रहे ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


 70

 मेरे होने की , कहानी लिख दूँ ।

 फिर कोई अपनी, निशानी लिख दूँ ।


  खो गए हालात ,  जिन हाथों से ,

 उन हाथों की, जख्म सुहानी लिख दूँ ।


 न हो चैन मयस्सर, जिस जिस्म रूह को ,

 कशिश उस रूह की,  रूहानी लिख दूँ ।


 गुजरता गया दिन , शोहरतों में ,

 रात की फिर , वीरानी लिख दूँ ।


बदलती रही रंग , मौसम की तरह ,

ये जिंदगी , फिर भी दीवानी लिख दूँ।


  सिमेटकर कुछ , हंसी खयालों को  ,

 उनवान नया ,नज़्म पुरानी लिख दूँ ।


 ले आया यहां, सफर उम्र का चलते चलते ,

"निश्चल"पड़ाव पे, उम्र की नादानी लिख दूँ ।


     .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

....

71

जिंदगी जिंदा निशानों सी ।

रही उम्र की पहचानों सी ।


गुजरती रही हर हाल में ,

कायम रहे अरमानों सी ।


खोजती निग़ाह नज्र को ,

कुछ अपने ही गुमानों सी ।


 चली मुख़्तसर सफर पर ,

 यक़ी खोजती इमानों सी ।


मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,

ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।


जूझती हरदम हालात से ,

 रही जंग के मैदानों सी ।


 अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,

"निश्चल" कलम दीवानों सी ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प

...

72

 उम्र चली अब थकने ,

                नब्ज़ लगी अब बिकने।

 नजरों ने हाट लगाई ,

                 राह लगी अब तकने ।

    

  मंजिल से पहले ,

            साँझ नजर आई ।

    कदम लगे अब ,

             चलते चलते रुकने ।


    सोचूँ अब क्या सोचूँ ,

              क्या खोया क्या पाया ।

     स्वप्न नही आते अब ,

              नींद तले बिकने ।


    उठ जाग मुसाफ़िर देर भई, 

     भोर तले अब पल हैं कितने।


       उम्र चली है अब ...

 .. विवेक दुबे "निश्चल"@....

73

उम्र के निशां छोड़ती ज़िंदगी।

 खूँ में मिठास घोलती ज़िंदगी।


    गुजर कर एक कारवां से ,

    कारवां नया खोजती ज़िंदगी ।


 मैं चलता रहा साथ हालात के ,

 वक़्त के राज बोलती ज़िंदगी ।


    मैं चल न सका मुताविक सबके ,

   कदम कदम मुझे तोलती ज़िंदगी ।


 बिखरे क़तरे बे-वफ़ा शबनम के ,

 निगाहें मेरी वफ़ा खोजती ज़िंदगी ।


  "निश्चल" बिखरा ख़ाक के मानिन्द

  मेरे वुजूद में अना खोजती ज़िंदगी।


          ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

        * अना- मैं अहम

.....

74

डरता हूँ कभी कभी डर जाता हूँ मैं ,

 दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।


 चकित होता हूँ हाँ चकित होता मैं ,

 बढ़ती उम्र के उभरते हर चिन्ह से ।


 सोचता फिर अगले ही पल मैं ,

 परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,

 लागू होता है यह मुझ पर भी ।


 लड़ न सका कोई प्रकृति से ।


 समेट लेती वापस धीरे धीरे ,

 गर्भ में अपने अपनी गति से ।


 उदय और अस्त दिन और रात ,

 यह भी तो चलते इसी गति से ।


 अस्त हो उदय होना मुझे भी ,

 नियति की इस सतत गति से ।


 प्रकृति भी चलती प्रकृति से ।


 हटा दर्पण सामने से  ,

 चल पड़ता वर्तमान में ,

   मैं अपनी गति से ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"©..

75

 मेरे चेहरे से खुशियाँ बेगानी है यारो ।

 ये रंजिशें तो मेरी दिवानी है यारो ।


 गुजरता हुँ वक़्त के हालात के ,

 मंजिल एक दिन आनी है यारो ।


 अपने ही आप से क्यों रूठता हूँ ,

 यह मुश्किलें तो पहचानी है यारो ।


 नही रंज किसी के वास्ते दिल में ,

 ये उम्र तो आनी जानी है यारो ।


 मुश्किल यह दौर है कैसा ,

 ग़ुरबत ही निशानी है यारो । (विवशता)


 उठाता रहा कदम जीत के वास्ते ,

 एक हार भी नही पुरानी है यारो ।

 

चला चल "निश्चल" राह अपनी ,

 तुझे राह खुद बनानी है यारो ।


  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...


शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जिंदगी

  



1
  बिन चेहरों के कभी,  
   पहचान नही होती ।
  सरल बहुत जिंदगी, 
  पर आसान नही होती ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
  
  बिन चेहरों के कभी  ,
   पहचान नही होती ।
          यह सरल बहुत ज़िंदगी  ,
          पर आसान नही होती ।
    रवि बादल में छुपने से ,
    कभी साँझ नही होती ।
           छूकर शिखर हिमालय का ,
        तृष्णा कभी तमाम नही होती ।
     पाता है मंजिल बस वो ही ,
    राहों से पहचान नही होती ।
          चलता है मंजिल की खातिर ,
         निग़ाह मगर आम नही होती ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
2
बे-मज़ा ज़िंदगी भी मज़ा रही है ।
तेरे इश्क़ की यही तो रज़ा रही है ।
..."निश्चल"...
3
जिंदगी का ये कैसा फ़लसफ़ा है ।
के हर कोई हर किसी से ख़फ़ा है ।
....निश्चल"@ ..
4
मैं तेरे इस जवाब का क्या हिसाब दूँ ।
जिंदगी तुझे जिंदगी का क्या हिसाब दूँ ।.
.....निश्चल"@ ..
5
हौंसलों की "निश्चल" कभी हार नही होती ।
कठिन भले हो जिंदगी पर भार नही होती ।
....निश्चल"@ ..
6
735
122×4
मिरी याद में जो रवानी मिलेगी।
  उसी आह को वो कहानी मिलेगी ।

मिली रूह जो ख़ाक के उन बुतों से ,
जिंदगी जिस्मों को दिवानी मिलेगी ।

मुझे भी मिला है जिक्र का सिला यूँ ,
नज़्मों में मिरि भी कहानी मिलेगी ।

  जहाँ राह राही मुसलसल चलेगा ,
  जमीं पे कही तो निशानी मिलेगी ।

  बहेगा तु हालात के दर्या में ही ,
   नही मौज सारी सुहानी मिलेगी ।

  सजाता रहा मैं जिसे ख़्वाब में ही ,
   उम्र वो किताबे पुरानी मिलेगी ।

   कहेगा जिसे तू निगाहे जुबानी,
  "निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
   .. विवेक दुबे"निश्चल"@....

अंतिम शेर फिर से कहें,बेमानी हैं
कहेगा जिसे तू निगाहे सुहानी ,
  कहेगा जिसे तू निगाहे ख़ास ही,
  "निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
7
122  12 2   122   122

अँधेरो में बिखरी उजाली रही है ।
चला हूँ नज़र राह आती रही है ।

दिखाते रहे हाल हालात को भी ,
ज़ख्म ये पुराने निशानी रही है ।

मिला है नसीबा मुक़द्दर जहाँ भी  ,
जिंदगी तक़दीर से मिलाती रही है ।

मिलाते रहे ज़िस्म-ओ-जां निगाहें ,
यहाँ रूह भी तो रूहानी रही है ।

तरसता है वो चाँद भी चाँदनी को ,
जुदा चाँदनी भी दिवानी  रही है ।

कटी है निग़ाहों में जो रात सारी ,
वही रात ही तो सुहानी रही है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
8
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।

न हो सके तर लब  तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।

खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।

सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।

लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
9
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा  । 
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
...."निश्चल"@...
10
बहुत कुछ कहा ,कुछ कह गया ।
हर्फ़ हर्फ़ किताबों से, बह गया ।
पलटता रहा सफ़े जिंदगी के ,
हर हुनर निग़ाहों में रह गया ।
देखता रहा मासूमियत चेहरा ,
और उनवान उम्र ढह गया ।(भूमिका)
लाया ना कोई सच जुबां पर ,
हर ज़ुल्म इंसाफ़ सह गया ।
   कर ना सकी बयां जुबां जिसे ,
"निश्चल" वो जज्बात हर्फ़ कह गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
11

तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।

सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।

ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।

कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।

  बांट दी अपने दामन की खुशियाँ
   यूँ ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।

   ...विवेक दुबे"निश्चल"@...
12
आज सा हर कल मिले जरूरी तो नही ।
सुकर्मो का सुफल मिले जरूरी तो नही ।
प्रश्नों की एक किताब सी है ये जिंदगी ,
सारे प्रश्नों का हल मिले जरूरी तो नही ।
    .....विवेक दुबे"निश्चल"@...
13
एक अधूरी सी आस रह गई ।
बस इतनी ही प्यास रह गई ।
चलता रहा ख़ुशियाँ साथ ले के,
जिंदगी मग़र उदास रह गई ।
..."निश्चल"@...
14
जिंदगी तो लौट कर फिर आती है ।
खुशियों को नज़र क्यों लग जाती है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
15
चलती ही रही कशमकश बड़ी ।
जिंदगी साथ जिंदगी के यूँ खड़ी ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
.... 16
उसे जिंदगी से मोहलत नही मिली ।
मुझे जिंदगी से तोहमत यही मिली ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
....17
उसे जिंदगी से मोहलत यदि मिलती ।
मुझे जिंदगी से तोहमत नही मिलती ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
18
सफ़ा सफ़ा जिंदगी मैं स्याह कर गया ।
मैं अपने आपको यूँ गुमराह कर गया ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
19
बिखेरकर अपने आप को ,सिमेटता गया ।
नम निगाहों से जिंदगी तुझे मैं देखता गया ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
20
मोहलत न मिली वक़्त से मोहब्बत के वास्ते ।
तय होते रहे यूँ तन्हा तन्हा जिंदगी के रास्ते ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
21
ये शुकूँ , शुकूँ तलाशता रहा ।
यूँ सफ़र , जिंदगी राब्ता रहा ।
(contect)
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
....
22
     मैं मानता रहा, मनाता रहा ।
     ज़िस्म जिंदगी , सजाता राह ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
23
    छूटता रहा सब , व्यर्थ बेकार सा ।
   जिंदगी रहा तेरा ,इतना ऐतवार ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
24
बिन तस्बीरों के , पहचान कहाँ होती है ।
एक स्याह जिंदगी , ईमान कहाँ होती है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
25
न था कसूर कोई किसी का ।
फलसफा यही जिंदगी का ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
26
डूबता रहा साँझ के मंजर सा ।
सफ़र जिंदगी रहा समंदर सा ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
27
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
28
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
29
जिंदगी न समझ सकी हालात को ।
बुझती गई प्यास फिर प्यास को ।
...30
तमाशा ही है आज हर जिंदगी ।
करता नही कोई किसी से बंदगी ।
31
जिंदगी कटती अपने ही तरीके से ।
हारते हम हर बार अपनो के तरीकों से ।
32
हूँ होश में , मैं मदहोश हूँ मगर ।
जिंदगी तेरे अंदाज़ से,हैरां हूँ मगर ।
33
773
अब नही रंजिशों से मलाल कोई ।
अब नही  ख़्वाब-ओ-ख़्याल कोई ।
थी जुस्तजू अरमानों से चाहतों की ,
पर मिली न मुझ को मिशाल कोई ।
रूठ कर निगाहों में अपनों की ही ,
करता नही कभी भी कमाल कोई ।
जब चलना हो साथ ज़िंदगी के ही ,
तब क्यो कहे जिंदगी को बेहाल कोई ।
जब न हों मुरादें कुछ पा जाने की  ,
तब "निश्चल"क्यो न रहे निहाल कोई ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
34
779
*इन बेताबियों का जवाब क्या दूँ  ।*
*इन बेकरारियों का हिसाब क्या दूँ ।*

*पाल बैठा हूँ दुश्मनी ख्यालों से भी ,*
*ऐ जिंदगी तुझे हँसी खुआव क्या दूँ ।*

*आ ही गया जो महफ़िल में बे-पर्दा ,*
*अब उस हुस्न को नक़ाब क्या दूँ ।*

*साजिशें है आज बड़ी मुकम्मिल ,*
*अब शराफ़तों को ठहराब क्या दूँ ।*

*कह गया जो बातें बड़े सलीके से ,*
*उन बातों का लब्बोलुआब क्या दूँ।*

*जो पढ़ गया"निश्चल"को एक निग़ाह में ,*
*उसे मैं अपनी ग़ज़ल किताब क्या दूँ ।
..... *विवेक दुबे"निश्चल"@*....
36
783
हर ज़वाब का जबाब देता गया ।
हर ख़्याल को ख्वाब देता गया ।
मैं चाहत-ऐ-जिंदगी की खातिर ,
मैं हसरतों को रुआब देता गया ।
इस जिंदगी के सफर में मुझे ,
हर मोड़ एक दोहराब देता गया ।
चलता रहा मैं मुसलसल राह पे,
रास्ता मगर मुझे ठहराब देता गया।
वो लफ्ज़ थे कुछ तल्ख़ लहजे में,
हर अल्फ़ाज़ मगर लुआब देता गया ।
देखकर आलम बेहयाई का जमाने मे,
"निश्चल"निगाहों को नक़ाब देता गया ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
37
फिर एक नई शुरुवात करते है ।
जिंदा हसरतें हालात करते है ।
थम गई जिंदगी जहां की तहां ,
फ़िर चलने की बात करते है ।
सजा कर दिलो ग़म क़रीने से ,
खुशियों से मुलाक़ात करते है ।
समेट कर चाहतें दामन में ,
जवां फिर ज़ज्वात करते है ।
है धुंधला साँझ का मंजर"निश्चल"
रौशन रौशनी ख़यालात करते है ।
फिर एक नई शुरुवात करते है ।
जिंदा हसरतें हालात करते है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.
38
1038
तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
  बांट कर अपने दामन की खुशियाँ
  ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
   ...विवेक दुबे"निश्चल"@...
39
पहचान पहचानो की मोहताज रही ।
शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।
कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,
जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।
लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में  ,
पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।
निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,
दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।
  न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,
  मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।
   बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,
  "निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।
40
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
  बांट कर अपने दामन की खुशियाँ
  ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
41

रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा  ।

मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा  ।

उधड़ते ख़्याल ख्वाब तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।

आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
फ़िक़्र से देख नज़्र हिल जरा  ।

खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास वो मंजिल जरा ।

हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत अब "निश्चल"जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
42
वो भी एक दौर था ,
ये भी एक दौर है ।
वो न कोई और था ,
ये भी न कोई और है ।
जिंदगी के हाथ में ,
चाहतों की डोर है 
जीतने की चाह में ,
अदावतों का शोर है ।
उम्मीदों के पोर पे ,
  हसरतों के छोर है ।
   छूटते आज में ,
  कल नई भोर है ।
वो भी एक दौर था ,
ये भी एक दौर है ।
..."निश्चल"@....
43
तलाश सी फुर्सत की ।
वक़्त की ग़ुरबत सी ।

देखते ही रहे आईना ,
निग़ाह से हसरत की ।

आरजू-ऐ-जिंदगी रही ,
वक़्त की करबट सी ।

चाहकर भी न मिली ,
चाहत सी मोहलत की ।

तलाशता रहा सफ़ऱ ,
शोहरत की दौलत सी ।

.... *विवेक दुबे"निश्चल"*@..
44
27
ना रहे याद हम , 
आज अंजानों से ।

       हसरतों की चाहत में ,
        खो गए पहचानों से ।

रीतते ज्यों नीर से ,
नीरद असमानों से ,

         बरसने की चाह में ,
         ग़ुम हुए निशानों से ।

  घिरती रही जिंदगी ,
अक़्सर उल्हानो से ।

           लाचार ही रही ,
          घिरकर फ़सानो से ।

घटते नही आज,
फांसले दिल के ,

            रिश्ते रहे आज "निश्चल" ,
            होकर म्यानों से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
45
जाने कैसी यह तिश्नगी है ।
अंधेरों में बिखरी रोशनी है ।

मचलता है चाँद वो फ़लक पे ,
बिखरती जमीं ये चाँदनी है ।

डूबता नहीं सितारा वो छोर का ,(उफ़्क)
मिलती जहाँ फ़लक से जमी है

सिमटा आगोश में दर्या समंदर के ,
जहाँ आब की नही कहीं कमी है ।

खिलता है वो बहार की ख़ातिर ,
बिखरती फूल पे शबनम नमी है ।

   चैन है नही मौजूद-ओ-मयस्सर ,
"निश्चल"मगर मुसलसल ये जिंदगी है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

तिश्नगी/प्यास/तृष्णा /लालसा
46
(एक मुसल्सल ग़जल)

रास्ते मंजिल-ए-जिंदगी, जो दूर नही होते ।
ये सफ़र जिंदगी , इतने मजबूर नही होते ।

खोजते नही , रास्ते अपनी मंजिल को ,
जंग-ए-जिंदगी के,ये दस्तूर नही होते ।

साथ मिल जाता गर, कदम खुशियों का ,
ये अश्क़ पहलू-ए-ग़म ,मशहूर नही होते ।

जो बंट जाते रिश्ते भी, जमीं की तरह ,
रिश्ते अदावत के, ये मंजूर नही होते ।

"निश्चल" न करता , यूँ कलम से बगावत  ,
ये अहसास दिलों से, जो काफूर नही होते ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
47
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।
न हो सके तर लब  तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।
खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।
सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।
लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।
48
जिंदगी जिंदा निशानों सी ।
रही उम्र की पहचानों सी ।
गुजरती रही हर हाल में ,
कायम रहे अरमानों सी ।
खोजती निग़ाह नज्र को ,
कुछ अपने ही गुमानों सी ।
चली मुख़्तसर सफर पर ,
यक़ी खोजती इमानों सी ।
मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,
ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।
जूझती हरदम हालात से ,
रही जंग के मैदानों सी ।
अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,
"निश्चल" कलम दीवानों सी ।
.... मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प
..49
वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।

होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।

मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।

खोये थे आप ही आप में हम ,
तब रंज नही कहीं रजंगी के थे ।

परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।

उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।

अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।

  थी नही शान अहसान की कोई 
"निश्चल"दिन नही तब तजंगी के थे ।
...50
दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।
छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।
ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।
खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।
रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।
जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।
राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।
51
मेरे होने की , कहानी लिख दूँ ।
फिर कोई अपनी, निशानी लिख दूँ ।
  खो गए हालात ,  जिन हाथों से ,
उन हाथों की, जख्म सुहानी लिख दूँ ।
न हो चैन मयस्सर, जिस जिस्म रूह को ,
कशिश उस रूह की,  रूहानी लिख दूँ ।
गुजरता गया दिन , शोहरतों में ,
रात की फिर , वीरानी लिख दूँ ।
बदलती रही रंग , मौसम की तरह ,
ये जिंदगी , फिर भी दीवानी लिख दूँ।
  सिमेटकर कुछ , हंसी खयालों को  ,
उनवान नया ,नज़्म पुरानी लिख दूँ ।
ले आया यहां, सफर उम्र का चलते चलते ,
"निश्चल"पड़ाव पे, उम्र की नादानी लिख दूँ ।
52
राज़-ऐ-वक़्त ---

2122 , 12 12 ,22

दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।

छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।

ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।

खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।

रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।

जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।

राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
53
1024
जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है 
खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।
कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,
अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।
...."निश्चल"@...
54
ये जिंदगी कब कहाँ गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स ख़्वाब के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
55
रौनकें जिंदगी आईने बदलती है ।
जैसे जैसे जिंदगी साँझ ढलती है ।
गुजरता कारवां मक़ाम से मुक़ाम तक ,
  तब जाकर ही मंजिल मिलती है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
56
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
..."निश्चल"@....

57
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते है ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते है ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्ते में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते है ।
... ....
58
जिंदगी कुछ यूँ उम्दा है ।
अश्क़ पलको पे जिंदा है ।
मचलता है पोर किनारों पे ,
डूबता साहिल पे तन्हा है ।
.... 
59
जिंदगी कुछ यूँ संजीदा है ।
अश्क़ पलको पे पोशीदा है ।
मचलता ख़ुश्क किनारों पर ,
डूबता साहिल पे जरीदा है ।
.... 
संजीदा /गंभीर /समझदार
पोशीदा /ढंका हुआ/गुप्त/छिपाया हुआ
जरीदा/तन्हा
60
खो रहा कल में आज है ।
सुर कही तो कही साज है ।
है मुक़ाम पर मुक़ाम से दूरी ,
जिंदगी का यही तो राज है ।
...."निश्चल"@.
61
मिरी तिश्नगी भी एक कहानी कहेगी ।
जिंदगी मुझे ये उम्र दीवानी कहेगी ।
पढ़ लेगा ज़माना खामोशी से मुझे
निगाह निगाह जिसे जुवानी कहेगी ।
....."निश्चल"@..,
62
साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।
स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।
कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,
रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।
...."निश्चल"@....
63
तर-व-तर ग़म में इस क़दर हुए ।
जिंदगी हम तुझसे बेखबर हुए ।
घिरे अरमां वस्ल-ओ-हिज्र के तूफान में,(मिलना बिछड़ना)
फांसले न वो कभी कमतर हुए ।
.."निश्चल"@....
64
अधूरी सी एक आस रह गई ।
इतनी सी एक प्यास रह गई ।
चलती रही साथ खुशियों के,
जिंदगी मगर उदास रह गई ।
....."निश्चल"@....
65
जिंदगी ने कुछ सवाल पूछे है ।
क्युँ जिंदगी के मलाल पूछे है ।
होश है नही रिंद को अपना ही ,
और साक़ी ने रिंद के हाल पूछे है ।
...."निश्चल"@..
66
रौनकें जिंदगी आईने बदलती है ।
जैसे जैसे जिंदगी साँझ ढलती है ।
गुजरता कारवां मक़ाम से मुक़ाम तक ,,
  तब जाकर ही मंजिल मिलती है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
67
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
..."निश्चल"@....
68
साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।
स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।
कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,
रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।
69
हर्फ़ हर्फ़ कहानी लिखता गया ।
जिंदगी तुझे दीवानी लिखता गया। 
कर न सका इजहार प्यार का तुझसे ,
बस तुझे उम्र निशानी लिखता गया ।
.....70
जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है 
खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।
कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,
अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।
..71
मुस्कुराते रहे वो एक झूँठ के सहारे ।
और उम्र के मुक़ाम पे न मिले सहारे ।
कर गई गिला जिंदगी ही जिंदगी से ,
चलती रही जिंदगी इस तरह बे-सहा
72
ये जिंदगी कब गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है 
73
वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।
आप को कर अंधेरों के हवाले ।
होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,
नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।
...74
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
..75
उलझे सवालों का सुलझा जवाब मांगता है ।
ये वक़्त अक़्सर मुझसे हिसाब मांगता है ।
बहकर आया जो दरिया जिंदगी का दूर से ,
मिल उम्र के समंदर से वो रुआब मांगता है ।
76
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां 
77
उम्र घटती गई और,
कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
तलाश-ऐ-जिंदगी में , 
जिंदगी से गुजरते गए ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
Blog Post 17/11/23

समय

 




1

जीवन तो एक आनंदोत्सव है ।

 समय से मिलता सबको सब है ।

2

है नही कुछ स्पष्ट सा ।

बस इतना सा कष्ट सा ।

सामने है पट समय का ,

पीछे पटल सब दृष्ट सा ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@...

3

समय ने रंग बदला ।

अपनो ने ढंग बदला ।

चलता रहा उसूलों पर ,

 रास्तों ने सँग बदला ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...

4

समय कबहुँ न टालिए, 

समय न वापस आए ।

बीती बात बिसारिए, 

बीत गया सो बीता जाए ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

5

यह सब समय तय करता है।

कब किसको क्या करना है ।

न मैं कुछ करता न तू कुछ करता 

सब कुछ तो बस वो ही करता है 

......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

6

लिखता था जो हालात को ।

 कहता था जो ज़ज्बात को।

 बदलता गया समय सँग सब ,

 बदला उसने भी अपने आप को ।

7

हालात से जो हार जाता है ।

 वक्त से वो नहीं पार पाता है ।


चला चलता जो अपनी लगन से ,

वो ही तो समय के पार आता है ।


चला चल तू अपनी ही लगन से ,

ये समय ही तो हर बार आता है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

8

   

 चलते रहे सँग वो दीवाने बहाने से ।

 रूह लिए सँग दो जिस्म पुराने से ।

 खिलते रहे अश्क़ फ़ूल बनकर ,

 मिलकर अपनी ही पहचानों से ।

......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

9

साथ चला समय मेरे ,प्रहरी बनकर ।

भोर पहर रात कटी , गहरी बनकर ।

स्वप्न सजे इन ,   जगती आंखों में ,

आशित कांक्षाओं की, देहरी बनकर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

10

बहकर संग समय के ,

 समय ही हो जाना है ।

 सृजन हुआ जिस माटी से,

 फिर माटी का हो जाना है ।

 बस आना और जाना है ।

 ज़ीवन तो एक ठिकाना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

11

 समय कटता जाता है ,

 बचपन लौटकर आता है।

             इस तरह यूँ गुजरा वक़्त,

             लौटकर फिर यूँ आता है।

 सीखा अँगुली पकड़ चलना,

 मुझसे जो इस दुनियाँ में ।

      वो आज दुनियाँ के सँग ,

       मुझे चलना सिखाता है।

             ..विवेक दुबे"निश्चल"@...

12

खो जाता है आज ,

आता जब तक कल ।

        आज मन विकल हर पल ,

       आता अविचलित अटल कल ।

जूझता आज समय से ,

निश्चित होता हर कल ।

           थमता नही समय कभी ,

           चलता वो पल प्रतिपल ।

नियत समय आता कल ,

यही नियत सत्य अटल ।

…. विवेक दुबे "निश्चल"©…..

13

मन से मन को भरता सा।

घट पर घट सा धरता सा।


बीत रहा समय यहाँ भी ।

ये वक़्त कहाँ ठहरता सा।


 मन क्यों मन को हरता सा ।

 तन क्यों मन का करता सा ।


 दृष्ट सदा सत्य नही रहा है ,

 नीर नयन रहा पहरता सा ।


  दिन दिन को कतरता सा।

  रीते बर्तन से बिखरता सा ।


 बीत रहे दिन खाली खाली ,

 रातों का योवन उतरता सा ।


मन से मन को भरता सा।

घट पर घट सा धरता सा।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

14

   कर्तव्य पथ  बड़े हों , 

    सत्य से सजे हों ।

     सत्कर्म से चलें जो, 

    उन्नति के द्वार खुले हों।

  

  समय चाहे विकट हों ,

  बाधाएँ भी अथक हों ।

  सत्य से न डिगे जो, 

  उन्नति के द्वार खुलें हों।


  मरुस्थल जो मिले हों ,

   पग पग जो जले हों ।

    निर्भीक चले जो, 

     उन्नति के द्वार खुले हों ।

 

 साँझ का आभास हो, 

 क्षितिज सा प्रकाश हो।

 मन दृढ़ विश्वास जो, 

 उन्नति के द्वार खुले हों।


  सत्य की सुगंध हो, 

  हौंसले भी बुलंद हों।

 जीत लें असत्य सभी,

    इतना सा द्वंद हो ।

 उन्नति के द्वार खुले हों ।

.... विवेक दुबे ©.....

15

 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।

 सहजे शब्द शब्द गढ़ कर ।

 कुछ संग चले समय से ।

  चले कुछ परे परे रह कर ।


 कुछ आधे कटते अक्षर ।

 पूर्ण हुए कुछ जुड़कर ।

 कुछ धुंध हुए मिटते से ,

 उभर रहे कुछ मिटकर।

 

 जीवन की इन राहो पर ,

 चलते हम यूँ ही अक्सर ।

 अक्षर अक्षर सा कटता ,

 जीवन का शब्द सफ़ऱ ।


 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।

... विवेक दुबे@...

16

वो कौन है ,वो कौन है ।

 जो वक़्त सा रहा मौन है ।


सिलवटें नरम सी ,दरिया की लहरें है ।

 फिर साहिल को,यूँ भिगाता कौन है।


 जो उगता है ,फिर डूबता है ।

डुबाकर फ़िर, उगाता कौन है ।


एक कशिश है , स्याह रात सी ,

ज़ज्बात चाँद , चुराता कौन है ।


चलते रहे है ,  साथ ज़िस्म रूहों के ,

ज़िस्म सँग रूहों का, दिलाता कौन है ।


है नही कोई , निग़ाह नज़्र उस आसमां पे ,

दूर जमीं पे , आसमां को झुकाता कौन है ।


"निश्चल"चलता रहा, हर वक़्त ये समय तो ,

 फिर वक़्त से वक़्त ,मिलाता कौन है ।

वो कौन है ,वो कौन है ।

 जो वक़्त सा रहा मौन है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


17

समय चला है समय से आगे ।

 सांझ निशा को भोर से मांगे ।

 गहन निशा अंधियारे गढ़कर,

 उजियारे उजियारो से मांगे ।


 समय चला है समय से आगे ।


 बीत रहा है समय समय से , 

 सीमा समय समय से मांगे ।

  दीप्त फूट चली दिनकर से ,

  उजियारे दिनकर से मांगे । 


 समय चला है समय से आगे ।


 रुककर भी रुका नही ज़ीवन ,

 प्रेरणा ज़ीवन ज़ीवन से मांगे ।

 अंत नही है यह एक ज़ीवन ,

 ज़ीवन भी है ज़ीवन से आगे ।


 समय चला है समय से आगे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


18

  समय बस मौन है ।

  समय तो द्रोण है ।

  दिखाता समय पर,

  साथ तेरे कौन है । 

   देता परीक्षा एक लव्य भी,

   पर प्रश्न अर्जुन सा कोन है । 

  धरा था शीश धरा पर जिसने,

   कर्ण पर परशु क्यों मौन हैं ।

  एक चीख पर आए गिरधारी ,

  कृष्णा सखा कृष्ण सा कौन है।

   ....विवेक दुबे"निश्चल"@...

19

  प्रश्न अर्जुन का बड़ा था ।

  एकलव्य लाचार खड़ा था ।

  भाव अहम के सामने ,

  समय फिर मौन खड़ा था ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

20

समय की वेदना यही , 

कहा गया जो वही सही ।

        कसते आज कसौटी पर,

        अतीत निकाल कर ।

 गुजर गया वो स्याह ,

  सुनहला सा था कल  ,

           आता है हर आज ,

             कल से निकल कर ।

 छोड़ता आज कल को,

  देख आते कल को ।

             छोड़ता नही कभी,

              समय इस क्रम को ।

   रहा अब आज  ,

  बहुत कुछ बदल है ।

             सतत रहता गतिमान ,

             बस काल क्रम तो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

21

  समय बदलता समय बदलकर ।

  दिनकर चलता  फिर ढलकर ।

  तारे नभ में फिर से चमके ,

 अपने रजनीचर से मिलकर ।

.

 पाता ज़ीवन ज़ीवन को ,

 फिर ज़ीवन से मिलकर ।

 शास्वत सत्य यही है एक ,

 ज़ीवन पाता ज़ीवन खोकर ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

22

किस को आना है ।

किस को जाना है ।

बस एक प्रश्न यही ,

करता रहा दिवाना है ।

राह चले सब अपनी ,

सबका एक ठिकाना है ।

बीत रहे पल पल में ,

पल को यही बताना है ।

चलकर भी न पहुचें ,

 पर सफर सुहाना है 

"निश्चल" रहे हर दम ,

समय यहीं बिताना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


 हम रीत राग में उलझे है ।

 कहते फिर भी सुलझे है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

24

मनहरण घनाक्षरी


निग़ाह राह ताकता,

रहा समय गुजारता ।

सँग हँस दुनियाँ के ,

दर्द मैं दुलारता ।


 जी कर भी खुशियों को ,

 खुशी रहा निहारता ।

  एक दर्द के वास्ते मैं ,

 खुशी को सँवारता  ।


  बदलेगा आज फिर कल ,

 कल को क्यों पुकारता । 

 बीत कर ही आज से ,

 कल को निहारता ।


होगा आज फिर कल  ,

आज क्यों कल टालता ।

रुका नही समय कभी ,

 बात क्यों बिसारता ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.

25

  बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 टूटें बूंद बूंद बादल से ,

 नीर नीर धरा बोता सा ।

  

बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 निशि श्यामल आँचल में ,

 विधु निहार पिरोता सा ।


बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 छुपकर दिनकर में  ,

 ताप लगे सलोना सा ।


बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


"निश्चल" रहे नहीं कोई ,

 समय समय खिलोना सा ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@..

26

एक भृम वहम पलता रहा ।

 पिघलता चाँद ढलता रहा ।


ओढ़कर चूनर सितारों की,

 रात भर चाँद चलता रहा ।


उतरेगी शबनम जमीं पर ,

 ख़्याल दिल पलता रहा ।


 अपने डूबने के इरादे लिये ,

 चलता दिनकर जलता रहा ।


आया न लौटकर फिर कभी ,

समय समय को छलता रहा ।


लौट आऊँगा फिर महफील में ,

 जज्वा ज़िगर मचलता रहा ।


 गुजरता रहा राह जिंदगी पर ,

"निश्चल" गिरकर सम्हलता रहा ।


....विवेक दुबे"निश्चल"@...

27

अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


गढ़ मंज़िल कोई ऐसी,

मंज़िल पर पहला ,

भोर उजाला आये ।


करता चल अपनी बातें ,

अपनी बातों से ,

बात बात का ,

गहरा भाब ,

उभारा जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


खुद को ,

खुद में रखकर ,

शब्द शब्द का ,

अर्थ निकाला जाये ।


लिखकर गीत ,

समय समय के ,

समय समय में ,

ढाला जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


दिनकर के ,

उजियारों में चलकर ,

एक स्वप्न सुनहरा ,

पाला जाये ।


भोर चढ़े ,

किरण कांति सँग ,

संध्या तक ,

अहसास सुहानी ,

छाया जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

28

मेरा मन्दिर मेरे आंगन में ।

तेरा मन्दिर तेरे आंगन में ।

बरसे कृपा उसकी हरदम ,

जैसे बूंदे बरसें सावन में ।


वो नाप रहा है भांप रहा है ,

उतरा कितना मन वर्तन में ।

समय लगा है क्षण भर का ही,

भरने कृपा उसकी जीवन में ।


साथ चला है वो हरदम तेरे ,

न ला संसय तू कोई मन में ।

बीतेगा ये कठिन समय भी ,

"निश्चल"फूल खिलेंगे मधुवन में ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..


29

माधव आए थे तुम तब ,

नष्ट हुआ सा था जब सब  ।


सुधार गए थे तुम तब सब ,

भय भृष्टाचार नही रहा था तब  ।


तुमने पाप व्यभिचार मार दिया सब ।

गीता से सब को तार दिया था तब ।


समय बदला युग बदला जब ।

आये फिर बदला लेने दानव अब।


 आज मच रहा कोहराम फिर अब।

 कंस पूतना कौरव फिर छाए अब ।


कर रहे अत्याचार सरे आम सब ।

धरती कांपी अंबर भी डोला अब ।


  त्रस्त हुए धरा पर मानव सब  ।

  बहुत हुआ पाप अनाचार अब ।


  आ जाओ तुम धनश्याम।

  करुण पुकारे हर आम ।

  

   विश्व शांति की लाज बचाने ,

   कर जाओ फिर एक संग्राम ।


    ...विवेक दुबे "निश्चल"...

30

सवाल आज ज़िंदगी खास का है ।

समय बंदगी और अरदास का है ।

पुकार ले हृदय से आज उसको ,

जो भी ईस्वर तेरे विश्वास का है ।

रच डाली वो प्रलय तू ने ही ,

जो अधिकार उसके पास का है ।

माँग कर क्षमा अब भी सुधर जा,

निर्णय स्वयं के अहसास का है ।

हर दम है दयालू वो बड़ा ,

हृदय उसका अंनत आकाश का है ।

कर देगा क्षमा एक पल में तुझे ,

कर शपथ तू प्रकृति के साथ का है ।

न बदलूँगा अब तेरे नियम को,

हर नियम जो प्रभु तेरे हाथ का है ।

कर जोड़कर प्रण प्राण से कर प्रार्थना,

हृदय स्थान प्रभु के "निश्चल"निवास का है।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

31

लिखते रहे सब तक़दीर हमारी ।

कहते रहे , तुम, जागीर हमारी ।

घिस पिसते रहे दो पाटों में ,

समझे नही कोई पीर हमारी ।


बचपन आया योवन तन में ,

काम नही डिग्री की लाचारी ।

प्रौढ़ हुए युवा समय से पहले ,

रोजी की चिंता सिर पे भारी ।


सर्द खड़ा है खेतों में वो ,

लागत की वर्षा होती भारी ।

दे आया उनके दामों में धन ,

मालामाल माया के पुजारी ।


कहते है वो बड़ी शान से ,

अपने वादों में सत्ताधारी ।

बेठाओ तुम हमे कुर्सी पर ,

कर देंगे हम भर झोली भारी ।


बांट रहे है माल-ए-मुफ्त ,

सब के सब ही बारी बारी ।

काम नही पर हाथों में ,

बढ़ती है हाथों की बेकारी ।


कुछ दिन की कतरन है ,

रातो का योवन भारी ।

सब रीते से बर्तन है ,

रीत गये दिन खाली ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

32

.चुनाव परिदृश्य...


एक मतदाता का मन पढ़ने का प्रयास

      =================


मौन रहा फिर भी बोल रहा हूँ ।

अंधियारों सा मैं डोल रहा हूँ ।


पसरा तम सरपट ले करबट ,

तमस तन तम  घोल रहा हूँ ।


व्यथित नही सृष्टि फिर भी ,

तम को तम से तौल रहा हूँ ।


चलता हूँ फिर भी दृष्टि लेकर ,

निःशब्द रहा पर बोल रहा हूँ ।


रहा समय सदा दृष्टा बनकर ,

भेद समय पर खोल रहा हूँ ।


दाग लगे है दामन में दामों के ,

हरदम फिर भी अनमोल रहा हूँ ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


33

    माँ 

पता नही माँ क्या करती होगी ।

ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।


कुछ यादों में मुझे सजाकर ,

नैन तले जल भरती होगी । 


 फ़िर चुरा निगाहें चुपके से ,

 खुद पे खुद हँसती होगी ।


सहज रही होगी यादों को ,

कुछ कपड़ो से लिपटी होगी ।


तह करती सी बड़े जतन से ,

सहज सहज कर धोती होगी ।


मिली किताब किसी कोने में,

जिल्द उसे ही करती होगी ।


दरवाजे पर मेरी आहट को ,

दौड़ चली आ सुनती होगी ।


खड़ी साँझ श्याम के आगे ,

विनय स्वर पिरोती होगी ।


लौट चले समय समय में पीछे,

बार बार समय से कहती होगी ।


उठकर बार बार रातों को ,

खाली लिहाफ़ टटोती होगी ।


पल्लू को आँचल में रखकर ,

पल्लू से ही ढँकती होगी ।


वो थाल रहा अधूरा सा ,

किससे जूठन चुनती होगी ।


पता नही माँ क्या करती होगी ।

ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

34

     पिता


देता रहा जो छाँव उम्र  सारी ।

सहता रहा जो धूप खुद सारी ।


वो अपनी साँझ के झुरमुट में सुस्ता रहा है ।वो देखो फिर भी कितना मुस्कुरा रहा है ।


बांटकर जीवन जीवन थमता जा रहा है ।

नियति के आँचल में प्यासा ही जा रहा है ।


पीकर दर्द के आँसू पिता मुस्कुरा रहा है ।

आज फिर समय समय को दोहरा रहा है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

35


ये मैं नही मेरे विचार हैं ।

मैं तो समय के पार है ।

न रहकर भी रहा यही जो,

सत्य का यही आकार है । 


छाते मेघ विचार निरन्तर ,

विचारों का अंनत विस्तार है ।

 देखे शान्त मन विचारों को ,

तब मन चिंतन करे शृंगार है ।


... विवेक दुबे "निश्चल"@...

36

 मन


बस लिखता चल जो मन कहता है ।

काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


सृजित हुआ सदा यह मन से ,

 हृदय भाव मन ही कहता है ।


काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


बदला नही कभी किसी भाषा में ,

यह समय सदा समय रहता है ।


 चला सदा लाँघ कर सीमाएं सारी ,

 देश काल भाषा के परे मन बहता है ।


काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


 37

न सिद्ध हूँ न प्रसिद्ध हूँ मैं ,

 न चाहत है शिरोधार्य की ।

लिखता रहूँ अंत समय तक ,

 बनी रहे धार कलम तलवार की ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@...

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...