शनिवार, 1 दिसंबर 2018

मैं तो समय के पार है ।

ये मैं नही मेरे विचार हैं ।
मैं तो समय के पार है ।
न रहकर भी रहा यही जो,
सत्य का यही आकार है । 

छाते मेघ विचार निरन्तर ,
विचारों का अंनत विस्तार है ।
 देखे शान्त मन विचारों को ,
तब मन चिंतन करे शृंगार है ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@..

हारते नही जो हालात से ।

हारते नही जो हालात से ।
चलते है अपने विश्वास से ।

आते है कल को जीतकर  ,
संघर्ष करने वो आज से ।

छूने को फिर साँझ सुहानी ,
पग उठते चलते पथ पाथ से ।

होगी फिर भोर सजानी ,
हुंकार भरें प्रण साँस से ।

लक्ष्य यही कोई लक्ष्य नही ,
पग उठे जब कर्म साध के ।

एक भाव यही स-कर्म रहें ,
 सुफ़ल रहे कर्ता के हाथ के ।

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 भरकर फिर नव आशा से ,
 उबर कर घोर निराशा से ।

 आते है दिनकर से फिर दिन को ,
"निश्चल"मिलने साँझ पिपासा से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(50)

गुरुवार, 29 नवंबर 2018

है रिश्तों में आलम खुदगर्ज़ी का ,

खुशियों को क्यों आम करूँ ।
ख़ुद को क्यों बदनाम करूँ ।

    बयां कर अल्फ़ाज़ मैं अपने ,
   दिल की बातें क्यों नीलाम करूँ ।

ख़ुशनुमा ख़्याल सुहानी भोर से ,
सुनाकर क्यों ढ़लती शाम करूँ ।

    देखकर तिलिस्म दुनियाँ का ,
    बस इसे दूर से ही सलाम करूँ ।

 नही रहूँगा तन्हा कही भी मैं ,
 ख़्याल जो अपने नाम करूँ ।

     है रिश्तों में आलम खुदगर्ज़ी का ,
  "निश्चल" क्या यक़ी एहतराम करूँ ।
  
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


Blog post 29/11/18

अपने अरमानों को ,

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

गढ़ मंज़िल कोई ऐसी,
मंज़िल पर पहला ,
भोर उजाला आये ।

करता चल अपनी बातें ,
अपनी बातों से ,
बात बात का ,
गहरा भाब ,
उभारा जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

खुद को ,
खुद में रखकर ,
शब्द शब्द का ,
अर्थ निकाला जाये ।

लिखकर गीत ,
समय समय के ,
समय समय में ,
ढाला जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

दिनकर के ,
उजियारों में चलकर ,
एक स्वप्न सुनहरा ,
पाला जाये ।

भोर चढ़े ,
किरण कांति सँग ,
संध्या तक ,
अहसास सुहानी ,
छाया जाये ।

अपने अरमानों को ,
मजबूत इरादों से ,
ललकारा जाये ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

यह प्रश्न नही है भरता।

कौन है सृष्टा ।
कौन है दृष्टा ।

कौन है कर्ता ।
कौन है हर्ता ।

 भृम भरी भोर लिए ,
 भृमित दिन है ढलता ।

 रिक्त रहा प्रश्न यही ,
 यह प्रश्न नही है भरता।

.... "निश्चल"@..

बुधवार, 28 नवंबर 2018

दिन गुजरते रातों से ।

दिन गुजरते रातों से ।
खोते कुछ अहसासों से ।

 सिमट रहे साँझ तले ,
अपने ही अपने वादों से ।

रिक्त हुए वो मेघ घने ,
तटनी भरते जो हाथों से ।

सहज उड़े बून्द बून्द को ,
 रीत गए अब वो नातों से ।

अस्तित्व हीन से अब वो ,
 सिमट रहे खुद सांसो से ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 6(46)








दिन गुजरता रातों सा ।
खोता कुछ अहसासों सा ।

 सिमट रहा साँझ तले ,
अपना ही अपने वादों सा ।

एक भृम वहम पलता रहा ।

एक भृम वहम पलता रहा ।
 पिघलता चाँद ढलता रहा ।

ओढ़कर चूनर सितारों की,
 रात भर चाँद चलता रहा ।

उतरेगी शबनम जमीं पर ,
 ख़्याल दिल पलता रहा ।

 अपने डूबने के इरादे लिये ,
 चलता दिनकर जलता रहा ।

आया न लौटकर फिर कभी ,
समय समय को छलता रहा ।

लौट आऊँगा फिर महफील में ,
 जज्वा ज़िगर मचलता रहा ।

 गुजरता रहा राह जिंदगी पर ,
"निश्चल" गिरकर सम्हलता रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(45)

चित कैसा चिंतन सा ।

चित का चिंतन कैसा ।
मन का मंथन कैसा ।

अर्थो की उलझन में ,
भावों का बंधन कैसा ।

..... =====.....

चित कैसा चिंतन सा ।
मन कैसा मंथन सा ।

अर्थो की उलझन में ,
भाव रहा बंधन सा ।
..... 
आधा रहा  जिंदा सा ।
अहमं लिए शर्मिंदा सा ।

भोग रही सुख को काया ,
मन भाव लिए निंदा सा ।
...
पिसकर कदम तले ,
खेह उड़े गुलाल सा ।

रच कर कण कण में ,
करता मन श्रृंगार सा ।
........
चलता रहा सड़क पर ,
कच्चा रस्ता छूटा सा ।

मिटता रहा मुखोटों पर ,
सच्चा रिश्ता टूटा सा ।
.....

मैं "निश्चल" रहा पर मगर , 
सफ़र जिंदगी चलता सा ।

अपने आपको बदलकर ,
हालात को बदलता सा ।

..विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 6(44)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...