कुछ खास नहीं कवि पिता की संतान हूँ । ..... निर्दलीय प्रकाशन भोपाल द्वारा बर्ष 2012 में "युवा सृजन धर्मिता अलंकरण" से अलंकृत। जन चेतना साहित्यिक सांस्कृतिक समिति पीलीभीत द्वारा 2017 श्रेष्ठ रचनाकार से सम्मानित कव्य रंगोली त्रैमासिक पत्रिका लखीमपुर खीरी द्वारा साहित्य भूषण सम्मान 2017 से सम्मानित "निश्चल" मन से निश्छल लिखते जाओ । ..... . (रचनाये मौलिक स्वरचित सर्वाधिकार सुरक्षित .)
शुक्रवार, 18 मई 2018
अक्षर
कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।
सहजे कुछ शब्द गढ़ कर ।
कुछ संग चले समय से ।
चले कुछ परे रह कर ।
कुछ आधे कटते अक्षर ।
पूर्ण हुए कुछ जुड़कर ।
कुछ धुंध हुए मिटते से ,
उभर रहे कुछ मिटकर।
जीवन की इन राहो पर ,
चलते हम यूँ ही अक्सर ।
अक्षर अक्षर सा कटता ,
जीवन एक शब्द सफ़ऱ ।
कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।
... विवेक दुबे@...
बुधवार, 16 मई 2018
यूँ जरूरी तो नही
यूँ जरूरी तो कुछ भी नहीं ,
दुनियाँ में दुनियाँ के वास्ते ।
फिर भी मिलते हैं मगर ,
अक्सर चौराहों पे रास्ते ।
टूटकर मौजें साहिल पर ,
खोजती समंदर ही में रास्ते ।
रिस्ता रहा घड़े की मानिंद वो ,
आया न कोई प्यास को तलाशते ।
लो बुझ गया दिया भी वो ,
जो जला था सुबह के वास्ते ।
बिखेरता था खुशबू गुलशन में जो ,
लो टूट गया एक ज़ुल्फ़ के वास्ते ।
यूँ जरूरी तो नही .....
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 4
दुनियाँ में दुनियाँ के वास्ते ।
फिर भी मिलते हैं मगर ,
अक्सर चौराहों पे रास्ते ।
टूटकर मौजें साहिल पर ,
खोजती समंदर ही में रास्ते ।
रिस्ता रहा घड़े की मानिंद वो ,
आया न कोई प्यास को तलाशते ।
लो बुझ गया दिया भी वो ,
जो जला था सुबह के वास्ते ।
बिखेरता था खुशबू गुलशन में जो ,
लो टूट गया एक ज़ुल्फ़ के वास्ते ।
यूँ जरूरी तो नही .....
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 4
सोमवार, 14 मई 2018
कुछ अंकुर फूटे मन मे
कुछ अंकुर फूटे इस मन में ।
शब्दों के सृजन सघन वन में ।
सींच रहा हूँ भावों के लोचन से,
भरता अंजुली शब्द नयन में ।
अस्तित्व हीन रहे वो अंकुर ,
शब्दों के इस बियाबान वन में ।
घुट कर रह जाते अक्सर जो ,
अर्थो की अक्सर उलझन में ।
वृक्ष घने जिसके सर पर ,
कैसे पहुँचे वो गगन में ।
अंकुर फूटे कुछ इस मन में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
शब्दों के सृजन सघन वन में ।
सींच रहा हूँ भावों के लोचन से,
भरता अंजुली शब्द नयन में ।
अस्तित्व हीन रहे वो अंकुर ,
शब्दों के इस बियाबान वन में ।
घुट कर रह जाते अक्सर जो ,
अर्थो की अक्सर उलझन में ।
वृक्ष घने जिसके सर पर ,
कैसे पहुँचे वो गगन में ।
अंकुर फूटे कुछ इस मन में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
रविवार, 13 मई 2018
मुक्तक 355से 358
355
शब्दो के सफ़र में
हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश है मंजिल की ,
जिंदगी गुजरी जाती है ।
....
356
न समझ सका मैं ,
वक़्त के मिज़ाज को ।
एक कल की ख़ातिर,
मैं भूलता आज को ।
.....
357
नींव बना पत्थर जो ।
बोझ तले दबा वो ।
लुप्त हुआ धरा तले ,
अपने आँसू पीता वो ।
...
358
एक दुआ की खातिर,
टूटता सितारों सा ।
कुछ यादों की खातिर,
मैं अधूरे वादों सा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
शब्दो के सफ़र में
हम सब मुसाफ़िर है ।
तलाश है मंजिल की ,
जिंदगी गुजरी जाती है ।
....
356
न समझ सका मैं ,
वक़्त के मिज़ाज को ।
एक कल की ख़ातिर,
मैं भूलता आज को ।
.....
357
नींव बना पत्थर जो ।
बोझ तले दबा वो ।
लुप्त हुआ धरा तले ,
अपने आँसू पीता वो ।
...
358
एक दुआ की खातिर,
टूटता सितारों सा ।
कुछ यादों की खातिर,
मैं अधूरे वादों सा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
मुक्तक 330से 340
330
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
खिले मन कमल शांत सरोवर ।
शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे ।
...331.
मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर ।
... 332
हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा ।
जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
जितनी सलवटें मिटाता रहा ।
....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
खुशियों से दूर रखा था ।
कर कर वादे झूंठे से ,
हर ग़म काफूर रखा था ।
....335
लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
जो वो मेरे पास आता गया ।
भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
यूँ खुद को छांटता गया ।
न थी खुदी कोई पास मेरे ,
इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
....
ज़ाहिर होकर भी ,
न ज़ाहिर सा रहा ।
डूब न सका समंदर में ,
होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
खिले मन कमल शांत सरोवर ।
शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे ।
...331.
मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर ।
... 332
हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा ।
जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
जितनी सलवटें मिटाता रहा ।
....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
खुशियों से दूर रखा था ।
कर कर वादे झूंठे से ,
हर ग़म काफूर रखा था ।
....335
लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
जो वो मेरे पास आता गया ।
भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
यूँ खुद को छांटता गया ।
न थी खुदी कोई पास मेरे ,
इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
....
ज़ाहिर होकर भी ,
न ज़ाहिर सा रहा ।
डूब न सका समंदर में ,
होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
मुक्तक 341/344
341
खोजता हर शख्स कुछ न कुछ ,
दुनियाँ की निगाहों में ।
यूँ गिरता हर शख्स खुद-वा-खुद ,
खुद की निगाहों में ।
...
342
उम्र घटती गई और,
कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
तलाश-ऐ-जिंदगी में ,
जिंदगी से गुजरते गए ।
.... ..
343
भाव उभरते है ।
अर्थ संवरते है ।
सज हृदय पीड़ा से ,
शब्द लिपटते हैं ।
......
344
जीवन मे विश्रांति कैसी ।
कदम कदम भ्रांति कैसी ।
डूब चलें मन के भावों में ,
तब अर्थो की संक्रांति कैसी ।
....
मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@ .
Blog post 13/5/18
खोजता हर शख्स कुछ न कुछ ,
दुनियाँ की निगाहों में ।
यूँ गिरता हर शख्स खुद-वा-खुद ,
खुद की निगाहों में ।
...
342
उम्र घटती गई और,
कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
तलाश-ऐ-जिंदगी में ,
जिंदगी से गुजरते गए ।
.... ..
343
भाव उभरते है ।
अर्थ संवरते है ।
सज हृदय पीड़ा से ,
शब्द लिपटते हैं ।
......
344
जीवन मे विश्रांति कैसी ।
कदम कदम भ्रांति कैसी ।
डूब चलें मन के भावों में ,
तब अर्थो की संक्रांति कैसी ।
....
मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@ .
Blog post 13/5/18
माँ
खोकर अपने ख़्याल सारे ,
बस एक ख़्याल पाला है।
हर वक़्त हाथ में उसके ,
औलाद के लिए निवाला है ।
रूठता जो कोई क़तरा ,
जिगर का कभी उससे ।
निगाहों ने उसकी ,
तब समंदर उछाला है ।
क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
हर क़तरे को उसने सम्हाला है ।
नही जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला है ।
है वो खेर ख़्वाह सबकी ,
खुदा ने जिसे जमीं उतारा है ।
रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।
साथ रहती दुआओं में हर पल जो ,
उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
बस एक ख़्याल पाला है।
हर वक़्त हाथ में उसके ,
औलाद के लिए निवाला है ।
रूठता जो कोई क़तरा ,
जिगर का कभी उससे ।
निगाहों ने उसकी ,
तब समंदर उछाला है ।
क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
हर क़तरे को उसने सम्हाला है ।
नही जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला है ।
है वो खेर ख़्वाह सबकी ,
खुदा ने जिसे जमीं उतारा है ।
रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।
साथ रहती दुआओं में हर पल जो ,
उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
माँ
खोकर अपने ख़्याल सारे ।
बस एक ख़्याल पाला था ।
हर वक़्त हाथ में उसके ,
औलाद के लिए निवाला था ।
रूठता जो कोई क़तरा ,
जिगर का कभी उससे ।
निगाहों ने उसकी ,
तब समंदर उछाला था ।
क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
हर क़तरे को उसने सम्हाला था ।
न थी जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला था ।
थी वो खेर ख़्वाह सबकी ,
खुदा ने जिसे जमीं उतारा था ।
रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।
नज़र आती दुआओं में आज भी ,
उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
बस एक ख़्याल पाला था ।
हर वक़्त हाथ में उसके ,
औलाद के लिए निवाला था ।
रूठता जो कोई क़तरा ,
जिगर का कभी उससे ।
निगाहों ने उसकी ,
तब समंदर उछाला था ।
क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
हर क़तरे को उसने सम्हाला था ।
न थी जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला था ।
थी वो खेर ख़्वाह सबकी ,
खुदा ने जिसे जमीं उतारा था ।
रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।
नज़र आती दुआओं में आज भी ,
उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
वक़्त के पहरे से
कुछ पल ठहरे से ।
यादों के घेरे से ।
कदमों की आहट पे ,
वक़्त के पहरे से ।
रीत रही है रिक्त निशा ,
भोर तले धुंधले चेहरे से ।
लुप्त हुए अंबर से टूटे तारे ,
पहले धरती को छू लेने से ।
उदित हुआ रवि शीतल फिर ,
गगन पथ तपने के पहले से ।
ऋतु राज के जाते ही ,
अविनि करवट बदले होले से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
यादों के घेरे से ।
कदमों की आहट पे ,
वक़्त के पहरे से ।
रीत रही है रिक्त निशा ,
भोर तले धुंधले चेहरे से ।
लुप्त हुए अंबर से टूटे तारे ,
पहले धरती को छू लेने से ।
उदित हुआ रवि शीतल फिर ,
गगन पथ तपने के पहले से ।
ऋतु राज के जाते ही ,
अविनि करवट बदले होले से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
मातृ दिवस
एक स्मृति मेरी माँ
जिसकी स्मृतियाँ ही शेष हैं ।
उसके बस यही अवशेष हैं ।
जी गई जीवन संघर्षो को ,
सर पे आशीष अब शेष है
उसके बारे में लिखने को ,
पास मेरे शब्द नही शेष हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
जिसकी स्मृतियाँ ही शेष हैं ।
उसके बस यही अवशेष हैं ।
जी गई जीवन संघर्षो को ,
सर पे आशीष अब शेष है
उसके बारे में लिखने को ,
पास मेरे शब्द नही शेष हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
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कलम चलती है शब्द जागते हैं।
सम्मान पत्र
मान मिला सम्मान मिला। अपनो में स्थान मिला । खिली कलम कमल सी, शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई । शब्द जागते...