शुक्रवार, 18 मई 2018

मन अनन्त

मन अनन्त विस्तार लिए ।
 क्षितिज सा आकर लिए ।
 आकांक्षाएं कुछ पाने की ,
 अभिलाषित श्रृंगार लिए।

  रीत रहा कभी कुछ ।
 भींच रहा कभी कुछ ।
 प्रति पल सृजक मन से ,
 सृष्टि सा स्वभाब लिए ।

 मन अनन्त विस्तार लिए ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

अक्षर


 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।
 सहजे कुछ शब्द गढ़ कर ।
 कुछ संग चले समय से ।
  चले कुछ परे रह कर ।

 कुछ आधे कटते अक्षर ।
 पूर्ण हुए कुछ जुड़कर ।
 कुछ धुंध हुए मिटते से ,
 उभर रहे कुछ मिटकर।

 जीवन की इन राहो पर ,
 चलते हम यूँ ही अक्सर ।
 अक्षर अक्षर सा कटता ,
 जीवन एक शब्द सफ़ऱ ।

 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।

... विवेक दुबे@...

बुधवार, 16 मई 2018

यूँ जरूरी तो नही

 यूँ जरूरी तो कुछ भी नहीं ,
 दुनियाँ में दुनियाँ के वास्ते ।

    फिर भी मिलते हैं मगर ,
    अक्सर चौराहों पे रास्ते ।

   टूटकर मौजें साहिल पर ,
  खोजती समंदर ही में रास्ते ।

  रिस्ता रहा घड़े की मानिंद वो ,
   आया न कोई प्यास को तलाशते ।

  लो बुझ गया दिया भी वो ,
   जो जला था सुबह के वास्ते ।

 बिखेरता था खुशबू गुलशन में जो ,
 लो टूट गया एक ज़ुल्फ़ के वास्ते ।

 यूँ जरूरी तो नही .....

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 4

सोमवार, 14 मई 2018

कुछ अंकुर फूटे मन मे

कुछ अंकुर फूटे इस मन में ।
 शब्दों के सृजन सघन वन में ।

  सींच रहा हूँ भावों के लोचन से,
  भरता अंजुली शब्द नयन में ।

   अस्तित्व हीन रहे वो अंकुर ,
  शब्दों के इस बियाबान वन में ।

 घुट कर रह जाते अक्सर जो ,
 अर्थो की अक्सर उलझन में ।

  वृक्ष घने जिसके सर पर ,
   कैसे पहुँचे वो गगन में ।

अंकुर फूटे कुछ इस मन में ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

रविवार, 13 मई 2018

मुक्तक 355से 358

  355
शब्दो के सफ़र में
 हम सब मुसाफ़िर है ।
 तलाश है मंजिल की ,
 जिंदगी गुजरी जाती है ।
.... 
356
न समझ सका मैं ,
वक़्त के मिज़ाज को ।
 एक कल की ख़ातिर,
 मैं भूलता आज को ।
..... 
357
नींव बना पत्थर जो ।
 बोझ तले दबा वो ।
 लुप्त हुआ धरा तले ,
 अपने आँसू पीता वो ।
...
358
  एक दुआ की खातिर,
  टूटता सितारों सा ।
  कुछ यादों की खातिर,
  मैं अधूरे वादों सा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

मुक्तक 330से 340

330
शब्द बहें झर झर निर्झर निर्झर ।
  खिले मन कमल शांत सरोवर । 
 शब्दो से ही स्वयं सम्मान बड़े ।
 शब्दो से ही स्वयं अभिमान बडे । 
...331.
 मिलते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
 बंटते रहे रिश्ते चौराहों पर ।
मिल न सकी मंजिल कभी ,
"निश्चल"चलते रहे हम राहों पर । 
... 332
 हँसकर हर दर्द को मैं टालता रहा ।
 यूँ खुद को खुद में मैं ढालता रहा । 
 जीत न सका जंग जिंदगी की मैं ,
 ख़्याल सिकंदर दिल पालता रहा ।
...333
दर्द नज्म गुनगुनाता रहा ।
 दर्द से दर्द बहलाता रहा ।
 उधड़ता ही रहा दामन मेरा ,
 जितनी सलवटें मिटाता रहा ।

....334
लफ्ज़ महफूज रखा था ।
 खुशियों से दूर रखा था ।
 कर कर वादे झूंठे से ,
 हर ग़म काफूर रखा था ।
....335

लफ्ज़ लफ्ज़ सिलता रहा ।
 हर चुभन दर्द मिलता रहा ।
 डूबे ज़ज्बात अल्फ़ाज़ में ,
 ज़िगर तल्ख पढ़ता रहा ।
...
336
पलटकर देखना मेरी आदत न रही ।
 यूँ किसी से मेरी अदावत न रही ।
  कह गया तल्ख़ लहज़े में बात ,
 दिल को कोई मलालत न रही ।
....337
 यूँ हुनर से हुनर पाता गया ।
  जो वो मेरे पास आता गया ।
 भूलता रहा रंजिशें दुनियाँ की ,
 वो इश्क़ का हुनर सिखाता रहा ।
.... 338
इल्म इल्म बाँटता गया ।
 यूँ खुद को छांटता गया ।
 न थी खुदी कोई पास मेरे ,
  इल्ज़ाम बेख़ुदी पाता गया ।
... 339
एक मुआहिदा है एक वायदा है ।
 रस्म-ऐ-जिंदगी मुलाहिज़ा है ।
 पूरा होता नही कभी कुछ भी ,
 रिश्तों का इतना ही कायदा है ।
....340
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
 यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा  । 
 न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
 यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
.... 

ज़ाहिर होकर भी ,
 न ज़ाहिर सा रहा ।
 डूब न सका समंदर में ,
 होंसला साहिल सा रहा ।
....
अलग होता नही कुछ जमाने में ,
 निग़ाह बदलती है बस मिलाने में ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@.

मुक्तक 341/344

341
खोजता हर शख्स कुछ न कुछ , 
   दुनियाँ की निगाहों में ।
 यूँ गिरता हर शख्स खुद-वा-खुद ,
    खुद की निगाहों में ।
... 
342
उम्र घटती गई और,
 कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
 तलाश-ऐ-जिंदगी में , 
 जिंदगी से गुजरते गए ।
 .... ..
343
भाव उभरते है ।
 अर्थ संवरते है ।
 सज हृदय पीड़ा से ,
  शब्द लिपटते हैं ।
......
344
जीवन मे विश्रांति कैसी ।
 कदम कदम भ्रांति कैसी ।
 डूब चलें मन के भावों में ,
 तब अर्थो की संक्रांति कैसी ।
 ....

मोहब्बत में बिका न खरीदा गया ।
 दीवानगी का इतना सलीका रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@ .
Blog post 13/5/18

माँ

खोकर अपने ख़्याल सारे ,
  बस एक ख़्याल पाला है।

   हर वक़्त हाथ में उसके ,
 औलाद के लिए निवाला है । 

 रूठता जो कोई क़तरा ,
 जिगर का कभी उससे ।

  निगाहों ने उसकी ,
 तब समंदर उछाला है ।

 क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
 हर क़तरे को उसने सम्हाला है ।

 नही जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
  बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला है ।

  है वो खेर ख़्वाह सबकी ,
 खुदा ने जिसे जमीं उतारा है ।

 रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
 मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।

  साथ रहती दुआओं में हर पल जो ,
 उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

माँ

खोकर अपने ख़्याल सारे ।
  बस एक ख़्याल पाला था ।

   हर वक़्त हाथ में उसके ,
 औलाद के लिए निवाला था ।

 रूठता जो कोई क़तरा ,
 जिगर का कभी उससे ।

  निगाहों ने उसकी ,
 तब समंदर उछाला था ।

 क़तरे जिगर अनमोल उसके ,
 हर क़तरे को उसने सम्हाला था ।

 न थी जिसे फ़िक़्र अपनी एक पल की ,
बड़ी फ़िक़्र से उसने हमे सम्हाला था ।

 थी वो खेर ख़्वाह सबकी ,
 खुदा ने जिसे जमीं उतारा था ।

 रिश्तों ने नाम दिया माँ जिसको ,
 मैंने तो उसमें अपना खुदा निहारा है ।

 नज़र आती दुआओं में आज भी ,
 उसकी रहमत ने हर बला से उबारा है ।

...... विवेक दुबे"निश्चल"@...

वक़्त के पहरे से

कुछ पल ठहरे से ।
 यादों के घेरे से  ।

 कदमों की आहट पे ,
 वक़्त के पहरे से ।

 रीत रही है रिक्त निशा ,
 भोर तले धुंधले चेहरे से ।

 लुप्त हुए अंबर से टूटे तारे  ,
  पहले धरती को छू लेने से ।

  उदित हुआ रवि शीतल फिर ,
  गगन पथ तपने के पहले से ।

 ऋतु राज के जाते ही ,
 अविनि करवट बदले होले से । 

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

मातृ दिवस

 एक स्मृति मेरी माँ

 जिसकी स्मृतियाँ ही शेष हैं ।
 उसके बस यही अवशेष हैं । 

 जी गई जीवन संघर्षो को ,
 सर पे आशीष अब शेष है

 उसके बारे में लिखने को ,
 पास मेरे शब्द नही शेष हैं ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...