परिंदे को परिंदे की पहचान है
चहुँ और मच रहा घमासान है
कतर रहे पर एक दूजे के
बनती इससे ही इनकी शान है
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बजाते सब ढपली अपनी अपनी
न सुर है न कोई ताल है
भूल रहे सभ्य सभ्यता सब अपनी
फिर भी खुद को खुद पर नाज़ है
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कहते जीत रहे है बस हम ही
गंजों को अपने नाखूनों पर नाज़ है
जैसा मातृ भूमि का था कल
बैस ही मातृ भूमि का आज है
......विवेक....