शुक्रवार, 10 मार्च 2017

राजनीति


परिंदे को परिंदे की पहचान है
 चहुँ और मच रहा घमासान है
 कतर रहे पर एक दूजे के
 बनती इससे ही इनकी शान है
  .
 बजाते सब ढपली अपनी अपनी
 न सुर है न कोई ताल है
  भूल रहे सभ्य सभ्यता सब अपनी
 फिर भी खुद को खुद पर नाज़ है
.
 कहते जीत रहे है बस हम ही
 गंजों को अपने नाखूनों पर नाज़ है
 जैसा मातृ भूमि का था कल
 बैस ही मातृ भूमि का आज है
  ......विवेक....

भाग्य


जो प्राप्त है वो भी अपर्याप्त है ।
छीना सुख चैन चाह मे और की ,
 बस कर्म ही हमारा साथ है ।
 भाग्य तो विधाता के हाथ है ।
    ......... विवेक दुबे" निश्चल"@ ............

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...