शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

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जो कुछ उधड़ी सी चिथरन सी ।
वो कुछ रिश्तों की कतरन सी ।

 सिसक रही है अब वो नातों में ,
 अहसासों की एक चितवन सी ।

सिमट चली है कुछ अरमानों में ,
जानी पहचानी जो अनबन सी ।

 उलझ रहे से ताने वाने नातो में ,
 कायम है रिश्तों की उलझन सी 

   जो ख़्याल कहे पिरोकर नज़्मों में ,
   वो आवाज़ रही एक सिरहन सी ।

  "निश्चल" है संग निग़ाहें अपनो में ,
   है ये सर्द बड़ी सँग ठिठरन सी ।

     .. विवेक दुबे"निश्चल"@....
  डायरी 6(91)
  


  

गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

चल तेज तेज कदमों से,

चल तेज तेज कदमों से, कदमों के आगे ।
रात धरा से मिलकर ,दिनकर को मांगे ।

सहज रही है साँझे, जिसकी रश्मि को , 
क्षितिज तले भरकर, रातों की बाहें ।

चंद्र चलेगा चंचलता से, जिसको लेकर ,
मचल चाँदनी यौवन ,रूप धरा का मांगे ।

निहार बिखेर चली,यामिनी वसुधा पर ,
रूप सलोना,अंग अंग वसुधा का साजे ।

सकल नियति शृष्टि, सजती पल पल ,
क्षण क्षण रूप नया , सा गढता जावे ।

चलता है एक क्रम ,जीवन का क्रम से ,
कदम कदम ,जीवन जो चलता आगे ।

पाता है जीव ज़रा , जरा लांघकर ,
बाल युवा योवन भी, ढलता जावे ।


         ...विवेक "निश्चल"@....

पता नही माँ क्या करती होगी ।

पता नही माँ क्या करती होगी ।
ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।

कुछ यादों में मुझे सजाकर ,
नैन तले जल भरती होगी । 

 फ़िर चुरा निगाहें चुपके से ,
 खुद पे खुद हँसती होगी ।

सहज रही होगी यादों को ,
कुछ कपड़ो से लिपटी होगी ।

तह करती सी बड़े जतन से ,
सहज सहज कर धोती होगी ।

मिली किताब किसी कोने में,
जिल्द उसे ही करती होगी ।

दरवाजे पर मेरी आहट को ,
दौड़ चली आ सुनती होगी ।

खड़ी साँझ श्याम के आगे ,
विनय स्वर पिरोती होगी ।

लौट चले समय समय में पीछे,
बार बार समय से कहती होगी ।

उठकर बार बार रातों को ,
खाली लिहाफ़ तटोती होगी ।

पल्लू को आँचल में रखकर ,
पल्लू से ही ढँकती होगी ।

वो थाल रहा अधूरा सा ,
किससे जूठन चुनती होगी ।

पता नही माँ क्या करती होगी ।
ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

"निश्चल"मन तन सँग साथ बड़े है ।

शब्द हीन संवाद गढ़े है ।
दृष्टि ने कुछ भाव पढ़े है ।

प्रणय निवेदन सी चितवन,
नयनों से वो नयन लड़े हैं ।

झंकारित सुर ताल हृदय के ,
वो दो पल अनमोल बड़े हैं ।

रिक्त नही मन उपवन कोना ,
मन आँगन कुसुम सुगंध झड़े हैं ।

बंधन ये जनम जनम के ,
पल्लब फिर एक हाथ जड़े हैं ।

मिलन नया फिर इस जीवन का ,
"निश्चल"मन तन सँग साथ बड़े है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

(पल्लब/ एक तरह का कंगन)

मंगलवार, 18 दिसंबर 2018

उसमे भी तो जीवन था ।

उसमे भी तो जीवन था ।
जीव नही जिस तन था ।

शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।

नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।

पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।

पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।

"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
 गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

अकिंचन/महत्वहीन

जीवन चलता चल है ।

जीवन चलता चल है ।
जीवन भी तो जल है ।

ठहर नही तू छाँव तले ,
साँझ ढ़ले होता कल है ।

ढल जाता चलकर ही ,
आगम अगला पल है ।

सत्य नही ये कुछ भी ,
फ़िर ये कैसा छल है ।

जीवन की सरिता में ,
जीव सदा निर्मल है ।

अबूझ नही प्रश्न कोई ,
प्रश्न सभी का हल है ।

भृम भान यही भरता ,
निर्गम भी "निश्चल" है ।
...... 
बातों की ही बस बातें हैं ।
उलटे पड़ते अब पांसे है ।

करते बातें मीठी मीठी ,
समझ रहे सब झांसे है ।

....विवेक दुबे "निश्चल"@...

जो कुछ रहा , वो न कुछ रहा ।


जो कुछ रहा , वो न कुछ रहा ।
वो फक़त इतना, ही कुछ रहा ।
सिमेटकर  ,   फांसले दिल के ,
ख़ामोश निग़ाह , जो ख़ुश रहा ।
.....
जो सँग संग रहा ।
वो दिल तंग रहा ।

उन चाहतों का  ,
बा-खूब ढंग रहा ।

बे-खोफ निग़ाहों का ,
 ये मशहूर रंग रहा ।

  सुलह की खातिर ,
  करता इरादा जंग रहा ।

इंतज़ार इख़्तियार का ,
इज़हार बे-रंग रहा ।

एक निग़ाह-ए-सर्द से ,
"निश्चल" जलता अंग रहा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...



होश निग़ाहों से दुनियाँ देखो ,

जो गरल हलाहल तप्त भरा है ।
एक रत्न जड़ित स्वर्ण घड़ा है ।

होश निग़ाहों से दुनियाँ  देखो ,
हर होश यहाँ मदहोश पड़ा है ।

फूल चमन में खूब खिले देखो ,
अंग अंग पर रंग, बे-बेरंग चढ़ा है ।

गले मिलें सब आँख मींचकर ,
साँस जात पात का बैर मढ़ा है ।

अपनो की अपनी दुनियाँ में ,
अपनों से ही हर कोई लड़ा है ।

काट रहे है मानव मानवता को 
मजहब धर्म ही जब रहा बड़ा है ।

रिंद सरीखे झूमें सब साक़ी सँग ,
ये राष्ट्र आज भी वहीं खड़ा है ।

ख़ामोश सभी सम्मुख जिसके ,
"निश्चल" एक यक्ष प्रश्न धरा है ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...




रविवार, 16 दिसंबर 2018

कुछ लाज़वाब शे'र कह उसने डाले ।


कुछ लाज़वाब शे'र कह उसने डाले ।
हर जवाब में सवाल जिसने उछाले ।

कहता ही रहा वो हक़ीक़त अपनी ,
ख़्वाब हसीं कभी नही किसने पाले ।

रिसकर आते ही रहे वो दर्द जुबां ,
सख़्त अल्फ़ाज़ तले पिसने बाले ।

करता रहा सफ़र उम्मीद के सहारे ,
भोर के सितारे अब है मिलने बाले ।

चला है मुक़म्मिल वास्ते सफ़र के ,
रोकते रहे सफ़र पांव रिसने छाले ।

 दूर से सितारे वो इस आसमां के ,
"निश्चल"है ये चलते दिखने बाले ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@...

रुक नहीं हार से मिल जरा ।


रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा  ।

मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा  ।

उधड़ते ख़्याल ख्वाबों तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।

आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
आस से देख नज़्र हिल जरा  ।

खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास मंजिल जरा ।

हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत "निश्चल"जरा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

जिंदगी जिंदा निशानों सी ।


जिंदगी जिंदा निशानों सी ।
रही उम्र की पहचानों सी ।

गुजरती रही हर हाल में ,
कायम रहे अरमानों सी ।

खोजती निग़ाह नज्र को ,
कुछ अपने ही गुमानों सी ।

 चली मुख़्तसर सफर पर ,
 यक़ी खोजती इमानों सी ।

मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,
ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।

जूझती हरदम हालात से ,
 रही जंग के मैदानों सी ।

 अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,
"निश्चल" कलम दीवानों सी ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प

"निश्चल"यहाँ मगर शामिल नही होता


हालात से इंसां आदिल नही होता ।
आप से कभी,फ़ाज़िल नही होता ।

भींगाता है लहर-ए-समंदर से जो ,
वो समंदर मगर साहिल नही होता ।

चलता है आफ़ताब रोशनी को लेकर ,
साँझ के मंजर का क़ातिल नही होता ।

है भटकता सा एक चाँद आसमां में ,
सितारों सा मुक़ा हांसिल नही होता ।

बहता है चीरकर दरिया जमीन को  ,
मंजिल से मगर,ग़ाफ़िल नही होता ।

 आता है वास्ते दुनियाँ की खुशी के ,
"निश्चल"यहाँ मगर शामिल नही होता ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

आदिल/न्याय क़रने बल
फ़ाज़िल/खुद विद्वान
ग़ाफ़िल/ असावधान

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...