शनिवार, 29 सितंबर 2018

आंतों की कतरन

कुछ शब्दों की सिकुड़न सी ।
कुछ भावों की जकड़न सी ।
 आश नही कोई आँखों में ,
 भूखी आंतो की कतरन सी ।
.
सिहर उठा हिमालय भी ,
धड़की जब धड़कन सी ।
नींद नही अब आँखों में ,
निग़ाह थमी तड़फन सी ।

 रीत रहा दिनकर दिन से ,
 सांझ नही अब दुल्हन सी ।
उठतीं लहरें सागर तट से ,
 लौट चली अब बेमन सी ।
 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


सरल छंद

सरल छंद
विधान~[मगण भगण गुरु]
(२२२   २११  २)
७वर्ण,४चरण४
दो-दो चरण समतुकांत]

गीतों को मीत बना ।
भावों में प्रीत सजा ।
 सींचो आधे पल को ।
 दे दो सारा कल को ।

 राहें रोकें पग को ।
 छोड़ो मोडे पथ को ।
 खोजो राहें जो नव हों ।
 सच्चा राही तब हो ।

  ... विवेक दुबे..
डायरी 5(155)

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

दिगपाल छंद

दिग्पाल छंद

2212 122 2212 122

बंशी बजा रहे हैं  ,
        कान्हा करें ठिठोली ।
बंशी छुपा रही हैं  ,
       राधा करें मिचौली ।

राधा कहाँ पुकारे ,
          मोहे रहे बिसारे ।
कान्हा छुपा किनारे ,
          बंशी लिये निहारे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....

कुछ कह गया

बहुत कुछ कहा ,कुछ कह गया ।
हर्फ़ हर्फ़ किताबों से, बह गया ।

पलटता रहा सफ़े जिंदगी के ,
हर हुनर निग़ाहों में रह गया ।

देखता रहा मासूमियत चेहरा ,
और उनवान उम्र ढह गया ।(भूमिका)

 लाया ना कोई सच जुबां पर ,
 हर ज़ुल्म इंसाफ़ सह गया ।

   कर ना सकी बयां जुबां जिसे ,
 "निश्चल" वो जज्बात हर्फ़ कह गया ।

 .... विवेक दुबे"निश्चल"@....

गुरुवार, 27 सितंबर 2018

दोहे

58
उजली चादर ज्ञान की,
              मेले मन को खोय ।
बीज बीज ज्यों छान के,
             धरती किसान बोय ।
59
फूटत अंकुर बीज का,
            गर्भ धरा का चीर ।
 फैलत है वो ज्ञान भी ,
            बहकर हृदय नीर ।
60
बीत गया दिन आज का ,
          बाँकी कल की आस ।
 स्वाति नीर की बूंद को ,
         जा चातक की प्यास ।
61
 भानू लाया भोर को ,
          लिए साँझ की आस ।
 साँझ बिसारे भोर को ,
          लिए सितारे साथ ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 6

दोहे

54
शिक्षा के प्रयास में ,तुम ना मानो हार ।
शिक्षा ले जाएगी , मति मूढ़ के पार ।
55
शिक्षा के ही ज्ञान से , धनी सदा ही होंय ।
लुट जाये सब काल को,ज्ञान ना लुटे कोय ।
56
 शिक्षा ज बड़ी काम की,करे बड़े ये काम ।
लूट न पाये कोउ भी,पूछत ही जो दाम ।
57
शिक्षित तनुजा कीजिये ,पराधीन ना होय ।
आपन साजे ज्ञान से,ज्ञानी जग भी होय ।

... विवेक दुबे"निश्चल@...
डायरी 6

कविता

यह रूह बिखर जाने दो ।
ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।
इन हसरतों की चाहत में ,
एक उम्र गुजर जाने दो ।
..
बजन कुछ बढ़ जाने दो ।
हसरत ज़िगर भर जाने दो ।
है रूह माफ़िक हवा के ,
संग रूह कर जाने दो ।
...
नर्म निग़ाह खेल दिखाने दो ।
फूल फूल मिल जाने दो ।
बिखरते जज़्बात हवा में ,
फ़िज़ाओं में घुल जाने दो ।
....
थमते नही हालात हाथ हसरतों के ।
सजते नही आज हाथ शोहरातों के ।
कैसी है कशमकश  ये वक़्त की ,
होते नहीं आज़ाद हाथ मोहलतों के ।

.... विवेक दुबे"निश्चल@..


मुक्तक 536/540

536
यह निज़ाम कैसा निज़ामों का ।
अपनो से अपनो के बेगानों सा ।
 उलझ रहे हैं धागे प्रीत डोर के ,
 चिथता दामन तानो बानो का ।
... 537
मची चारो और हलचल है ।
आज से हुआ कल बेदखल है ।
हालात बदलते पल पल में ,
आता नही कल जैसा कल है ।
....538
हमे धोखे ही भा रहे ।
धोखे पर धोखे खा रहे ।
 भूला कर आज को ,
 हम आज से भरमा रहे ।
...539
शब्द शब्द के पार है ।
अभिव्यक्ति लाचार है ।
 जीतता रहा बस वही ,
 नियत नेक बेज़ार है ।
... 540
मद की हद है ।
नशा बेहद है ।
 पता नही किसी को ,
 किसकी क्या हद है ।

 विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

मुक्तक 532/535

532
यह रूह बिखर जाने दो ।
ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।
इन हसरतों की चाहत में ,
एक उम्र गुजर जाने दो ।
...533
बजन कुछ यूँ बढ़ता गया ।
हसरत ज़िगर धरता गया ।
यूँ तो रूह माफ़िक हवा के ,
पर संग रूह को करता गया ।
...534
एक नर्म निग़ाहों का खेल सा ।
फूल फूल का होता मेल सा ।
 बिखरते जज़्बात हवा में,
 फ़िज़ाओं से होता मेल सा ।
....535
थमते नही हालात हसरतों के हाथों ।
सजते नही आज शोहरतों के हाथों ।
कैसी यह कशमकश है वक़्त की ,
होते नहीं आज़ाद मोहलतों के हाथों ।
.... विवेक दुबे"निश्चल@..
डायरी 3

ये मैं हूं

ये मैं हूँ  या  वो मैं हूँ ।
वो मैं हूँ  के  जो मैं हूँ ।

 जो मैं हूँ  क्या वो मैं हूँ ।
 वो मैं हूँ  क्या जो मैं हूँ ।

गुंजित मन प्रश्न यही ,
कुछ छूट रहा यही कहीं ।

कुछ पा जाने की चाहत में ,
पाया ठौर नही कहीं ।

अभिलाषा के दिनकर सँग ,
प्रतिफ़ल की साँझ तले ।

ज़ीवन के इस परिपथ पर ,
ज़ीवन की हर साँझ ढ़ले ।

कुछ खोता हूँ, कुछ पाता हूँ ।
कुछ लाता हूँ, कुछ दे आता हूँ ।

पर प्रश्न यही एक मन मे , 
क्या पाता हूँ , क्या खो आता हूँ ।

इस एकाकी जीवन पथ पर ,
एकाकी ही तो आता जाता हूँ ।

एकाकी ही तो आता जाता हूँ ।



.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

एक मुक़ाम

एक मुक़ाम वो भी था ।
 एक मुक़ाम यह भी है ।

 वो बड़ा आसान था ।
 यह नही आसान है ।

 लड़ते जंग कदम कदम ,
 जिंदगी बनी इम्तेहान है ।

 रितते रहे निग़ाहों से ,
 फिर जाने क्या गुमान है ।

है नही यह घर किसी का ।
 हर शय यहां मेहमान है ।

...विवेक दुबे निश्चल@.

शेर

मेरे फ़लसफ़े का भी सफ़ा होता ।
मुंसिफ मुझसे यूँ ना ख़फ़ा होता ।
...
उसे जिंदगी से मोहलत नही मिली ।
मुझे जिंदगी से तोहमत यही मिली ।
....
उसे जिंदगी से मोहलत यदि मिलती ।
मुझे जिंदगी से तोहमत नही मिलती ।
 ....
झूँठ नही तनिक भी, है यही सही ।
जिसे कहा सही, है वही सही नही ।
..
आँख बंद करने से अंधेरा घटता नहीं ।
आता भोर का सबेरा अंधेरा टिकता नही ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


इस काम ने वो काम दिया

इस काम ने वो काम दिया ।
जिंदगी ने यूँ मुक़ाम दिया ।

 खोजते रहे पल फुर्सत के ,
वक़्त ने वो अंजाम दिया ।

खोजतीं चाहत दिल की ,
निग़ाहों ने बदनाम दिया ।

गिरता रहा क़तरा जमीं पर ,
निग़ाह अश्क़ ने पयाम दिया ।

 चलता रहा साथ हालात के ,
 "निश्चल" क्युं उसे नाम दिया ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

सोमवार, 24 सितंबर 2018

रीतता चला हूँ



रीतता चला हूँ ।
सींचता चला हूँ ।

रूठते किनारे ,
डूबता चला हूँ ।

राह राह निहारे ,
खोजता चला हूँ ।

होंसला पुकारे ,
जीतता चला हूँ ।

जिंदगी दुलारे ,
 जोश से भरा हूँ ।

आज के सहारे ,
काल से मिला हूँ ।

काल को बिसारे ,
आज को छला हूँ ।

 धरा के सहारे ,
 आसमाँ गढ़ा हूँ ।

रीतता चला हूँ ।
सींचता चला हूँ ।

.... *विवेक दुबे"निश्चल"@*.
डायरी 5(147)

सराहते हम रहे

 सराहते हम रहे ।
                   बिसारते हम रहे ।

 खींच कर निग़ाहों से ,
          अक़्स से उभारते हम रहे ।

 ये होंसलें तजुर्बों के ,
             उम्र से संवारते हम रहे ।

 टूटते सितारे फ़लक से,
              जमीं को बुहारते हम रहे ।

ख़ाक होते रहे हवा में ,
              नज्र से निहारते हम रहे ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 5(146)

रुठकर लफ्ज़ मेरा

रूठकर लफ्ज़ मेरा कहाँ जाएगा ।
    जो है मेरा वो यहाँ आएगा ।

छाएगा जुबां पे नाज से वो ,
एक दिन नज़्म मेरी जहां गाएगा ।

उठेगी हर निग़ाह हसरत से ,
निग़ाह चाहत सा मुक़ा पाएगा ।

तैरते अल्फ़ाज़ समंदर की ख़ातिर,
साथ अपने दरिया बहा लाएगा ।

सर्द रातो में चाहत तपिश की  ,
गर्म अल्फ़ाज़ सा धुआँ छाएगा ।

लिए मुक़ाम निग़ाह में कोई ,
"निश्चल"मुक़ाम तक चल जाएगा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 5(145)

कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...