रूबरू ज़िंदगी ,घूमती रही ।
रूह की तिश्नगी, ढूँढती रही ।
रहा सफ़र दर्या का, दर्या तक,
मौज साहिल को ,चूमती रही ।
....
कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।
कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।
ख़ामोश से किनारे दर्या के ,
औऱ नज़्र के मलाल से रहे।
.....
रूह जहाँ मिल जातीं है ।
ज़िस्म खुदा हो जाते है ।
न रहे चाहते हसरत कोई,
अल्फ़ाज़ दुआ हो जाते हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
Blog post 18/5/19
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