गुरुवार, 16 जनवरी 2020

मुक्तक 874/889

874
एक नक्श पुराना सा।
एक अक्स पुराना सा ।
काफिला-ऐ-नए दौर में,
में एक शख्स पुराना सा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..

874/A
कुछ नक्श पुराने से ।
कुछ अक्स पुराने से ।
काफिला-ऐ-नए दौर में,
 कुछ शख्स पुराने से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

875
तू मत सोच के सब सच्चा है ।
हर रिश्ता दुनिया में अच्छा है ।
टूट रहे सच्चे सपने कच्चे से ,
एक तेरा सच भी तो कच्चा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
875/A
तू मत सोच के सब सच्चा है ।
हर रिश्ता दुनिया में अच्छा है ।
टूट रहे है कुछ सपने सच्चे से ,
एक तेरा सच भी तो कच्चा है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
876
कर्म सदा तू तेरा करता जा।
 मन मनका फेरा करता जा ।
 मन अँधियारो की परिधि में,
 उजियारो का घेरा करता जा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
876/A
कर्म सदा तू अपना करता जा।
 मन मनका जपना करता जा ।
 मन के अँधियारो की परिधि में,
 उजियारो की रचना करता जा ।
    ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

 877
 ये तप्त शिलाएं वर्तमान की ,
   ठंडी होतीं अतीत हिमकण से ।
   दिन चलता उजास सँग तपते तपते ,
   साँझ जीत रही फिर दिनकर से ।
.     .....
878
क्यूँ अब तक मैं कुछ न कुछ सीख रहा ।
क्यूँ अब तक कुछ न कुछ न ठीक रहा ।

कुछ धुँधले से साये मन के उजियारों में ,
क्यूँ दिन उजियारों में कुछ न दीख रहा ।
 ......
879
क्यूँ अब तक मैं कुछ न कुछ सीख रहा ।
क्यूँ अब तक कुछ न कुछ न ठीक रहा ।

कुछ धुँधले से साये दिन के उजियारों में ,
मन के उजियारों में हाँ कुछ दीख रहा ।

     ....विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3


880
लहरों का यूँ नसीब न रहा ।
साहिल कभी रक़ीब न रहा ।
उठते रहे तूफ़ां समंदर के दिल में,
समंदर का कोई हबीब न रहा ।
........
881
एक शाम समंदर सी ।    
 खुशियों का मंजर सी ।
  डूब रही है धीरे-धीरे ,
 देकर चाहत सुंदर सी ।
.......
882
अक़्स अश्क़ में धुल गए ।
छाँव पलकों में जल गए ।
मंजिल पा जाने से पहले ,
छाले पाँव में मचल गए ।
….
883
इस हिसाब-ऐ-दुनियाँ में ,
न कुछ जोड़ न कुछ घटा ।
रहने दे मुगालता निग़ाह का ,
पर्दा निग़ाह का तू न हटा ।
.......
884
जब कोई सहारा न हो ,
तू तब आप सहारा बन जा ।
वक़्त झुकेगा तेरे आंगे ,
तू तूफानों का प्यारा बन जा ।
.......
885
आशाओं ही के बोझ तले ,
 चुपचाप चली अभिलाषा ।
"निश्चल" ज़ीवन के पथ पर ,
 जीव सदा एकाकी चलता जाता ।
....
886
सिहर चला सन्नाटे से ।
वक़्त कटे न काटे से ।
टकरातीं लहरें सागर की ,
ज़ीवन तट ज्वर के भाटे से ।
.......विवेक दुबे"निश्चल"@...
887
कुछ चाहतें जिंदगी की ।
कुछ हसरतें जिंदगी की ।
बदलती रही तासीर अपनी,
कुछ शोहरतें जिंदगी की ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...

डायरी 3

888
कुछ मोहरे बिछे बिसात पे ।
 चलते चालें घात से घात पे । 
  अपने एक राजा की ख़ातिर ,
 गिरते प्यादे शेंह और मात पे ।
....
889 
अंजाम से अपने वो अंजान हैं ।
हाथ में नही तनिक भी ईमान है ।
चलते हैं साथ ले नस्लें इंसान की ,
इतना ही इंसानियत का गुमान है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...