गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

मंज़िले बैचेन है तेरे आगमन को


थक न तू हार न तू
अपने हुनर को न बिसार तू
होंसलों को कांधे से न उतार तू
तू चाँद है अम्बर का
तू सूरज है नील गगन का
तू झोंका है मस्त पवन का
तू नीर है सागर के तन का
चल चला चल न रोक
अपने कदम को
मन्ज़िलें बेचैन तेरे आगमन को
....विवेक...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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