सूरज की साँझ तले ,
नया सबेरा गढ़ते है ।
गिरकर जो फिर उठ ,
भोर तले चल पड़ते हैं ।
जीवन पथ के अवसादों से ,
निर्भीक सदा रहा करते हैं ।
कंटक पथ पर चलकर जो ,
नव चेतन सृजन करा करते है ।
धेय्य यही बस बढ़ते रहना ,
वो विश्राम कहाँ करते हैं ।
वो सूरज की साँझ तले ,
फिर नया सबेरा गढ़ते हैं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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