गुरुवार, 14 जून 2018

रात सिरहाने



चल रात सिरहाने रखते है ।
उजियारों को हम तजते है ।

 दूर *गगन* में झिलमिल तारे ,
 चँदा से स्वप्न सुहाने बुनते है ।

सोई नही अभिलाषा अब भी ,
 नव आशाओं को गढ़ते है ।

 चल रात सिरहाने ...

 थकता है दिनकर भी तो ,
साँझ तले क्षितिज मिलते है ।

 नव प्रभात की आशा से ,
 तारे चँदा के संग चलते है ।

 टूट रहे अंधियारे धीरे धीरे ,
 उजियारे तम में ही मिलते है ।

 चल रात सिरहाने ...

 जीवन की हर आशा को ,
 दिनकर सा हम गढ़ते है ।

 नव प्रभातिल भोर तले ,
 दिनकर सा हम चलते है ।

 चल रात सिरहाने ...

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


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