बुधवार, 12 अप्रैल 2023

एक विस्तृत नभ सम

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एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
         आश्रयहीन अभिलाषाएं ।
        नभ विचरित पँख फैलाएं ।
निःश्वास प्राण सांसों में ।
लम्पित लता बांसों में ।
         बस आशाएँ अभिलाषाएं ।
         ओर छोर न पा पाएं ।
   मन निर्बाध विचारों में ।
  जीवन के सहज किनारों में ।
  
          एक विस्तृत नभ सम ।
          भू धरा धरित रजः सम ।

   जब शशि गगन में आए ।
    निशि तरुणी रूप सजाए ।
          विधु भरता बाहों में ।
          विखरें दृग कण आहों में ।    
   प्रफुल्लित धरा शिराएं ।
    तृण कण जीवन पाएं ।
            अचल रहा दिनकर राहों में ।
             नव चेतन भर कर प्रानो में । 
नित माप रहे पथ की दूरी को ।
छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।
        ये सतत नियति निरन्तर सी ।
        काल तले करती न अंतर सी ।    
    एक विस्तृत नभ सम ।
    भू धरा धरित रजः सम ।
           
  .. विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 18/7/18
डायरी 5(62)


काल के कपाल पे , मृत्यु के भाल पे ।
जन्म के श्रृंगार से , जीव के दुलार से ।

जीतता आप से , जीवन की ढाल से ।
हारता न हार से , जीत के प्रतिकार से ।

सृष्टि के स्वीकार से ,अनन्त के काल से ।
जीवन चलता  , नए रूप के श्रृंगार से ।

घटता बढ़ता प्रति दिन ,चँद्र सी चाल से ।
दमकता पौरुष ,भानू सा जीवन भाल पे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 3/4/18
डायरी 1/4


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