*ॐ* हृदय रखिए ,
*ॐ* करे शुभ काज ।
*ॐ* श्रीगणेश है,
*ॐ* शिव सरकार ।
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नैतिकता पढ़ी कभी किताबों में ।
नैतिकता मिलती नही बाज़ारों में ।
सुनते आए किस्से बड़े सयानों से,
यह मिलती घर आँगन चौवरो में ।
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बून्द चली मिलने सागर तन से ।
बरस उठी बदली बन गगन से ।
क्षितरी बार बार बिन साजन के ।
बहती चली फिर नदिया बन के ।
एक दिन *बून्द प्यार की* जा पहुँची ,
मिलने साजन सागर के तन से ।
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तन्हा वक़्त छीन रहा बहुत कुछ ।
हँसी लेकर वक़्त दे रहा सब कुछ ।
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वो लालसा बड़ी न्यारी जागी थी ।
सौंपी अपने घर की चाबी थी ।
लालच में आकर हमने जिसको ।
उसने ही की चोरों की सरदारी थी ।
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जीवन रेखा रेल भी हारी है ।
यह जाने कैसी लाचारी है ।
हो रही बे-पटरी बेचारी है ।
राजशाही व्यवस्था पर भारी है ।
...... *जीवन संगनी* ....
रागनी तू अनुगामनी तू।
राग तू अनुरागनी तू ।
चारणी तू सहचारणी तू।
शुभ तू शुभगामनी तू।
नैया तू पतवार तू ।
सागर तू किनार तू ।
प्रणय प्रेम फुहार तू ।
प्रकृति सा आधार तू ।
प्रीत का प्रसाद तू ।
सुखद सा प्रकाश तू ।
खुशियों का आकाश तू।
*"विवेक"* का विश्वास तू ।
एक आस है उस चाँद की तलाश है ।
एक प्यास है यह चाँद ही अहसास है ।
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वो इठलाता है आसमां पे ।
एक चाँद है जो आसमां पे ।
उतरता नहीं कभी जमीं पे ।
शर्माता है क्यों सुबह से ।
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आया चंद्र पूर्व के छोर से ।
देखूँ मैं साजन की ओट से ।
बाँध अँखियन के पोर से ।
मन हृदय विश्वास डोर से ।
चौथ चंद्र खिला है ,
निखरा निखरा है ।
एक चंद्र गगन में ,
एक मन आँगन में।
जीती है जिसको वो,
पल पल प्रतिपल में।
श्रृंगारित तन मन से,
प्रण प्राण प्रियतम के ।
देखत रूप पिया का,
चंद्र गगन अँखियन से।
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सफ़र ज़रा मुश्किल था ।
वो पत्थर नही मंज़िल था ।
निशां न थे कहीं क़दमों के ,
हौंसला फिर भी हाँसिल था ।
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सहना नियति मानस की, सहती सब अत्याचार ।
शेष न इच्छा प्रतिकार की, बैठी बस चुप चाप ।
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वादों के शूलों से ज़ख्म क़ुदरते हैं ।
वो कुछ यूँ मेरे जख्म उकेरते हैं।
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सहना नियति मानस की, सहती अत्याचार ।
इच्छा न प्रतिकार की, बैठी बस चुप चाप ।।
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हाँ समय बदलते देखा है ।
सूरज को ढ़लते देखा है ।
चन्दा को घटते देखा है ।
तारों को गिरते देखा है ।
हाँ समय बदलते देखा है ।
हिमगिरि पिघलते देखा है ।
सावन को जलते देखा है ।
सागर को जमते देखा है ।
नदियां को थमते देखा है ।
हाँ समय बदलते देखा है ।
खुशियों को छिनते देखा है ।
खुदगर्जी का मंजर देखा है ।
अपनों को बदलते देखा है ।
हाँ समय बदलते देखा है ।
नही कोई दस्तूर जहां ,
ऐसा दिल भी देखा है ।
नजरों का वो मंजर देखा है ।
उतरता पीठ में खंजर देखा है ।
हाँ समय बदलते देखा है ।
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उड़ना चाहो आप जो, पँख दियो फैलाए ।
पँख नही हों उधार के, पँख अपने लगाए ।
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जीत है कभी हार है ।
जिंदगी एक श्रृंगार है ।
बंधी प्रीत की डोर से,
यह नही प्रतिकार है ।
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ज़िंदगी जब भी तेरा ख्याल आता है ।
यूँ अहसास बनकर तू पास आता है।
जीता हूँ यूँ कुछ पल जिंदगी के मैं ,
जिंदगी कभी तुझे मेरा ख्याल आता है ।
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शिकायतें
कोई खरीदता ही नहीं
सोचा मुफ्त में दे दूँ इन्हें
मुफ़्त में लेता नहीं कोई
सहेजता हूँ अब खुद ही इन्हें।
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मिलता नहीं हमें हम सा कोई ,
यह बेदर्द दुनियाँ ज़ालिम बड़ी है।
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शाश्वत सत्य यही,
विधि विधान यही ।
मिलता मान सम्मान,
होता अपमान यहीं।
इस काव्य विधा के मधुवन में,
असल नक़ल की पहचान नही।
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संत चले अब सत्ता पथ पर।
ऊँट बैठे जाने किस करवट।।
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विषय है शोध का,स्वर खो रहा विरोध का।
पुतला था ठोस सा,हो रहा क्यों मोम सा ।
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इतिहास लिखें न हम कल का।
इतिहास लिखें हम कल का।
राह बदल दें हम सरिता की,
सत्य लिखें हम पल पल का।
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सत्य की सुगंध हो, होंसले बुलंद हों।
जीत लें असत्य सभी,इतना सा द्वंद हो ।
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सीखता है वो अपनी हर भूल से।
खिलता फूल मिट्टी की धूल से।
.... "निश्चल" विवेक दुबे ....©
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