रविवार, 31 दिसंबर 2017

हालात

क़ुदरत के सन्नाटे थे ।
 हालात के आहाते थे ।
 चलता चाँद जमीं संग ,
  दूरियों के पैमाने थे ।
........
लिखता था जो हालात को ।
 कहता था जो ज़ज्बात को।
 बदलता गया समय सँग सब ,
 बदला उसने भी अपने आप को ।
....
हँसता हूँ मैं अपने ही हालात से  ।
 कब तक लड़ूँ अपने ज़ज्बात से ।
पाकर तंज अपनों के ,
बहार हुआ अपनी ही जात से ।
  ....  
दर्द आँखों से पिया करते है
 दर्द होंठों पर सिया करते है 
 कलम उठती है हर बार और
 खुशियाँ ही बयां किया करते है
   ...
लाख छुपाया ज़माने से अपने आप को ।
 पर चेहरा बयां कर गया मेरे हालात को ।
  सोचा निगाहें झुका कर ख़ामोश रहूँ ,
  सिलवटें उजागर कर गईं हर बात को ।
   .... 
 एक दर्द बयाँ होता है तेरी बात से ।
हारता है क्यों तू वक़्त के हालात से ।
 वो भी गुजर गया यह भी गुज़र जाएगा ।
 बच न सका कोई वक़्त के इन हाथ से ।
 ठहर जरा सब्र कर अपने हालात पे ,
 संवरेगा फिर वक़्त तुझे अपने ही हाथ से ।
 तपता है गुलशन है मौसम के मिज़ाज़ों से ,
 सजाता है फिर बही अपनी ठंडी फ़ुहारों से ।
 ..... विवेक दुबे "निश्चल".....

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