शनिवार, 6 जनवरी 2018

माँ

आँचल की वो छाँव घनी थी।
 दुनियाँ में पहचान मिली थी ।
 छुप जाता तब तब उस आँचल में,
 जब जब दुनियाँ अंजान लगी थी।

  हो जाता "निश्चल" निश्चिन्त सुरक्षित ।
  उस ममता के आँचल में चैन बड़ी थी।
 उस आँचल की छोटी सी परिधि से ,
 इस दुनियाँ की परिधि बड़ी नही थी।

माँ पर कोई काव्य क्या गढ़े ।
 माँ तो हर काव्य से परे परे ।
  माँ एक महाकाव्य है खुद ,
 कर नमन माँ चरण शीश धरे ।
....
दे दे सब निःस्वार्थ भाव से ।
कर जोड़कर आभार भाव से ।
 पा जाएगा अर्थ प्यार का तू,
 इस सकल जगत सँसार से ।
  ....
 माँगा वो प्यार नही ।
पाया वो अधिकार नही ।
 रिश्ते हैं निःस्वार्थ भाव के,
 रिश्ते कोई व्यापार नही ।
...
तूने रचा उस रचयिता को ।
 जिसने रचा सारा सँसार ।
 सबसे पहले माँ आई ,
 और रच गया सँसार ।
 .
      ....."निश्चल" विवेक दुबे...

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