शुक्रवार, 4 मई 2018

कुछ शेर ऐसे भी

कुछ शेर मेरे ऐसे भी रह गए ।
 किसी नज्म में जो कहे न गए ।

 वो अश्कों में भींग कर मेरे ,
 वो लफ्ज़ लफ्ज़ घुलते गए ।

  अहसासों की खुशबुएँ थीं जिनमें ,
  अहसासों के वो फूल झड़ते गए ।

  जो जहां सर्द हुए थे अल्फ़ाज़ मेरे ,
  वो अल्फ़ाज़ वहां से पिघलते गए ।

 उजाले थे बहुत शहर में मेरे ,
 अंधेरे रोशनियों को निगलते गए ।

 रहा मलाल"निश्चल" को इतना,
 वो शेर आज भी मेरे ही रहे ।

  .... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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