मंगलवार, 1 मई 2018

यह शब्दों का बंधन

  शब्दों का बंधन कैसा ।
 भावों का जकड़न कैसा ।
  इस मन की पीड़ा का ,
  यह नेह निवेदन कैसा ।
... 
 शब्द भाव गढ़कर ।
  अश्क़ झड़ते रहे ।
  दबकर कलम तले  ,
   नम निगाह पढ़ते रहे।
.. 
ज़िस्म आज़ाद रहे ।
 रूह नही आज़ाद रही ,
 कशिश रूह की ,
 ज़िस्म के साथ रही ।
....
   कहती बहुत कुछ अक्सर,
   पर ज़िंदगी खामोश रही।
   इस खामोशी से बेहतर ,
    कहने को कुछ भी नही ,।
   
 ....
 वक़्त बे-वक़्त वो हमे , 
  अपना बनाते रहे ।
  वक़्त बे-वक़्त यूँ हमे , 
  अपना बताते रहे । 

 टूटकर कर भी कभी ,  
    टूट न सके हम ,
 निग़ाह में हम ,उनकी , 
  संग कहलाते रहे ।
.... 
 जंग लड़ता रहा, 
 अपने आप से ।
 जीतता कभी, 
 हारता जज़्बात से ।
... 
  यूँ आदतें मेरी , 
   आदत बनती गई ।
 शब्द जागते रहे, 
 कलम चलती रही।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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