शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

मुक्तक

606
चलता नही मन साथ कलम के ।
खाली रहे अब हाथ कलम के ।
सिकुड़ती रहीं कुलषित कुंठाएं ,
दाग लिए बैठीं माथ कलम के ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@......

(कुलषित-   कुंठाएं ,)
(क्षुब्ध -  अतृप्त भावनाएं)

607

 वक़्त का तकाजा है ।
 वक़्त वक़्त से हारा है ।
 शोहरतों की चाहत में ,
 नफरतों को दुलारा है ।

          ... विवेक दुबे"निश्चल"@...
608

दिन पीछे रात चली है।
बातो में बात चली है ।
मिली न अविनि अंबर से ,
दूर रही पर साथ चली है।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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