बुधवार, 22 मई 2019

मुक्तक



मिटते रहे निशां निशानों से ।
बहते रहे दर्या अरमानों से ।
रुत बदलते ही रहे मौसम ,
लाते रहे बहारें दीवानों से ।
...
आती ही रहीं बहारें , बहार से ।
न बदला असमां,मौसम बिताने से ।
पहनकर लिबास ,   वो जिस्मों के ,
ठहरी रहीं रूहें,नए ज़िस्म पाने से ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....




गुज़रती गई ज़िंदगी, जैसे तैसे ।
बदलते रहे हालात, जाने कैसे ।
जो जीतता रहा हार कर हरदम ,
वो हारकर जीत को ,माने कैसे ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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