रिश्तों के इस जंगल में ,
अभिलाषाओं के अंधड़ चलते ।
आश्रयहीन आशाओं से ,
स्वयं को स्वयं से छलते ।
भोर तले छूटे स्वप्न अधूरे से ,
साँझ तले निराशाओं में पलते ।
कुंठित है मर्यादाएँ रिश्तों की ,
नातों के आधार सभी हिलते ।
कम्पित है साँसे साँसों में ,
आकर जाते यौवन के ढलते ।
जीवन उपवन है काँटो का ,
फूल कम ही इसमें है खिलते ।
क्या सार यही है जीवन का ,
सब कुछ छूट गया मिलके ।
पाकर भी न पाया जैसे कुछ,
"निश्चल"खाली हाथ रहे मलते ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
अभिलाषाओं के अंधड़ चलते ।
आश्रयहीन आशाओं से ,
स्वयं को स्वयं से छलते ।
भोर तले छूटे स्वप्न अधूरे से ,
साँझ तले निराशाओं में पलते ।
कुंठित है मर्यादाएँ रिश्तों की ,
नातों के आधार सभी हिलते ।
कम्पित है साँसे साँसों में ,
आकर जाते यौवन के ढलते ।
जीवन उपवन है काँटो का ,
फूल कम ही इसमें है खिलते ।
क्या सार यही है जीवन का ,
सब कुछ छूट गया मिलके ।
पाकर भी न पाया जैसे कुछ,
"निश्चल"खाली हाथ रहे मलते ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
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