मंगलवार, 16 जून 2020

रिश्ते

  रिश्तों के इस जंगल में ,
 अभिलाषाओं के अंधड़ चलते ।

 आश्रयहीन आशाओं से ,
 स्वयं को स्वयं से छलते ।

 भोर तले छूटे स्वप्न अधूरे से ,
 साँझ तले निराशाओं में पलते ।

 कुंठित है मर्यादाएँ रिश्तों की ,
नातों के आधार सभी हिलते ।

 कम्पित है साँसे साँसों में ,
 आकर जाते यौवन के ढलते ।

 जीवन उपवन है काँटो का ,
 फूल कम ही इसमें है खिलते ।

 क्या सार यही है जीवन का ,
 सब कुछ छूट गया मिलके ।

 पाकर भी न पाया जैसे कुछ,
 "निश्चल"खाली हाथ रहे मलते ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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