खोजा करता हस्ति अपनी ,
पथ पर अपने चलता जाता है ।
साँझ तले दिनकर छुपता ,
अँधियारो में मैं खो जाता है ।
उजियारों से थककर वो ,
अंधियारों में थकान मिटाता है।
हर रात निशा के आँचल में ,
वो जीवन फिर पा जाता है।
सहज रही स्याह निशा उसको ,
अपनी छाया से भी छुप जाता है ।
हार नही मानूँगा फिर भी मैं ,
खुद को अहसास दिलाता है ।
कभी हार नही कभी जीत नही ,
जीवन में बस इतना ही पाता है ।
चलना ही तो जीवन है ,
"निश्चल"भानू चलता जाता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
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