शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

समय

 




1

जीवन तो एक आनंदोत्सव है ।

 समय से मिलता सबको सब है ।

2

है नही कुछ स्पष्ट सा ।

बस इतना सा कष्ट सा ।

सामने है पट समय का ,

पीछे पटल सब दृष्ट सा ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"@...

3

समय ने रंग बदला ।

अपनो ने ढंग बदला ।

चलता रहा उसूलों पर ,

 रास्तों ने सँग बदला ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...

4

समय कबहुँ न टालिए, 

समय न वापस आए ।

बीती बात बिसारिए, 

बीत गया सो बीता जाए ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

5

यह सब समय तय करता है।

कब किसको क्या करना है ।

न मैं कुछ करता न तू कुछ करता 

सब कुछ तो बस वो ही करता है 

......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

6

लिखता था जो हालात को ।

 कहता था जो ज़ज्बात को।

 बदलता गया समय सँग सब ,

 बदला उसने भी अपने आप को ।

7

हालात से जो हार जाता है ।

 वक्त से वो नहीं पार पाता है ।


चला चलता जो अपनी लगन से ,

वो ही तो समय के पार आता है ।


चला चल तू अपनी ही लगन से ,

ये समय ही तो हर बार आता है ।

.......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

8

   

 चलते रहे सँग वो दीवाने बहाने से ।

 रूह लिए सँग दो जिस्म पुराने से ।

 खिलते रहे अश्क़ फ़ूल बनकर ,

 मिलकर अपनी ही पहचानों से ।

......विवेक दुबे"निश्चल"@.....

9

साथ चला समय मेरे ,प्रहरी बनकर ।

भोर पहर रात कटी , गहरी बनकर ।

स्वप्न सजे इन ,   जगती आंखों में ,

आशित कांक्षाओं की, देहरी बनकर ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

10

बहकर संग समय के ,

 समय ही हो जाना है ।

 सृजन हुआ जिस माटी से,

 फिर माटी का हो जाना है ।

 बस आना और जाना है ।

 ज़ीवन तो एक ठिकाना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

11

 समय कटता जाता है ,

 बचपन लौटकर आता है।

             इस तरह यूँ गुजरा वक़्त,

             लौटकर फिर यूँ आता है।

 सीखा अँगुली पकड़ चलना,

 मुझसे जो इस दुनियाँ में ।

      वो आज दुनियाँ के सँग ,

       मुझे चलना सिखाता है।

             ..विवेक दुबे"निश्चल"@...

12

खो जाता है आज ,

आता जब तक कल ।

        आज मन विकल हर पल ,

       आता अविचलित अटल कल ।

जूझता आज समय से ,

निश्चित होता हर कल ।

           थमता नही समय कभी ,

           चलता वो पल प्रतिपल ।

नियत समय आता कल ,

यही नियत सत्य अटल ।

…. विवेक दुबे "निश्चल"©…..

13

मन से मन को भरता सा।

घट पर घट सा धरता सा।


बीत रहा समय यहाँ भी ।

ये वक़्त कहाँ ठहरता सा।


 मन क्यों मन को हरता सा ।

 तन क्यों मन का करता सा ।


 दृष्ट सदा सत्य नही रहा है ,

 नीर नयन रहा पहरता सा ।


  दिन दिन को कतरता सा।

  रीते बर्तन से बिखरता सा ।


 बीत रहे दिन खाली खाली ,

 रातों का योवन उतरता सा ।


मन से मन को भरता सा।

घट पर घट सा धरता सा।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

14

   कर्तव्य पथ  बड़े हों , 

    सत्य से सजे हों ।

     सत्कर्म से चलें जो, 

    उन्नति के द्वार खुले हों।

  

  समय चाहे विकट हों ,

  बाधाएँ भी अथक हों ।

  सत्य से न डिगे जो, 

  उन्नति के द्वार खुलें हों।


  मरुस्थल जो मिले हों ,

   पग पग जो जले हों ।

    निर्भीक चले जो, 

     उन्नति के द्वार खुले हों ।

 

 साँझ का आभास हो, 

 क्षितिज सा प्रकाश हो।

 मन दृढ़ विश्वास जो, 

 उन्नति के द्वार खुले हों।


  सत्य की सुगंध हो, 

  हौंसले भी बुलंद हों।

 जीत लें असत्य सभी,

    इतना सा द्वंद हो ।

 उन्नति के द्वार खुले हों ।

.... विवेक दुबे ©.....

15

 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।

 सहजे शब्द शब्द गढ़ कर ।

 कुछ संग चले समय से ।

  चले कुछ परे परे रह कर ।


 कुछ आधे कटते अक्षर ।

 पूर्ण हुए कुछ जुड़कर ।

 कुछ धुंध हुए मिटते से ,

 उभर रहे कुछ मिटकर।

 

 जीवन की इन राहो पर ,

 चलते हम यूँ ही अक्सर ।

 अक्षर अक्षर सा कटता ,

 जीवन का शब्द सफ़ऱ ।


 कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।

... विवेक दुबे@...

16

वो कौन है ,वो कौन है ।

 जो वक़्त सा रहा मौन है ।


सिलवटें नरम सी ,दरिया की लहरें है ।

 फिर साहिल को,यूँ भिगाता कौन है।


 जो उगता है ,फिर डूबता है ।

डुबाकर फ़िर, उगाता कौन है ।


एक कशिश है , स्याह रात सी ,

ज़ज्बात चाँद , चुराता कौन है ।


चलते रहे है ,  साथ ज़िस्म रूहों के ,

ज़िस्म सँग रूहों का, दिलाता कौन है ।


है नही कोई , निग़ाह नज़्र उस आसमां पे ,

दूर जमीं पे , आसमां को झुकाता कौन है ।


"निश्चल"चलता रहा, हर वक़्त ये समय तो ,

 फिर वक़्त से वक़्त ,मिलाता कौन है ।

वो कौन है ,वो कौन है ।

 जो वक़्त सा रहा मौन है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


17

समय चला है समय से आगे ।

 सांझ निशा को भोर से मांगे ।

 गहन निशा अंधियारे गढ़कर,

 उजियारे उजियारो से मांगे ।


 समय चला है समय से आगे ।


 बीत रहा है समय समय से , 

 सीमा समय समय से मांगे ।

  दीप्त फूट चली दिनकर से ,

  उजियारे दिनकर से मांगे । 


 समय चला है समय से आगे ।


 रुककर भी रुका नही ज़ीवन ,

 प्रेरणा ज़ीवन ज़ीवन से मांगे ।

 अंत नही है यह एक ज़ीवन ,

 ज़ीवन भी है ज़ीवन से आगे ।


 समय चला है समय से आगे ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


18

  समय बस मौन है ।

  समय तो द्रोण है ।

  दिखाता समय पर,

  साथ तेरे कौन है । 

   देता परीक्षा एक लव्य भी,

   पर प्रश्न अर्जुन सा कोन है । 

  धरा था शीश धरा पर जिसने,

   कर्ण पर परशु क्यों मौन हैं ।

  एक चीख पर आए गिरधारी ,

  कृष्णा सखा कृष्ण सा कौन है।

   ....विवेक दुबे"निश्चल"@...

19

  प्रश्न अर्जुन का बड़ा था ।

  एकलव्य लाचार खड़ा था ।

  भाव अहम के सामने ,

  समय फिर मौन खड़ा था ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....

20

समय की वेदना यही , 

कहा गया जो वही सही ।

        कसते आज कसौटी पर,

        अतीत निकाल कर ।

 गुजर गया वो स्याह ,

  सुनहला सा था कल  ,

           आता है हर आज ,

             कल से निकल कर ।

 छोड़ता आज कल को,

  देख आते कल को ।

             छोड़ता नही कभी,

              समय इस क्रम को ।

   रहा अब आज  ,

  बहुत कुछ बदल है ।

             सतत रहता गतिमान ,

             बस काल क्रम तो ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

21

  समय बदलता समय बदलकर ।

  दिनकर चलता  फिर ढलकर ।

  तारे नभ में फिर से चमके ,

 अपने रजनीचर से मिलकर ।

.

 पाता ज़ीवन ज़ीवन को ,

 फिर ज़ीवन से मिलकर ।

 शास्वत सत्य यही है एक ,

 ज़ीवन पाता ज़ीवन खोकर ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

22

किस को आना है ।

किस को जाना है ।

बस एक प्रश्न यही ,

करता रहा दिवाना है ।

राह चले सब अपनी ,

सबका एक ठिकाना है ।

बीत रहे पल पल में ,

पल को यही बताना है ।

चलकर भी न पहुचें ,

 पर सफर सुहाना है 

"निश्चल" रहे हर दम ,

समय यहीं बिताना है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


 हम रीत राग में उलझे है ।

 कहते फिर भी सुलझे है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

24

मनहरण घनाक्षरी


निग़ाह राह ताकता,

रहा समय गुजारता ।

सँग हँस दुनियाँ के ,

दर्द मैं दुलारता ।


 जी कर भी खुशियों को ,

 खुशी रहा निहारता ।

  एक दर्द के वास्ते मैं ,

 खुशी को सँवारता  ।


  बदलेगा आज फिर कल ,

 कल को क्यों पुकारता । 

 बीत कर ही आज से ,

 कल को निहारता ।


होगा आज फिर कल  ,

आज क्यों कल टालता ।

रुका नही समय कभी ,

 बात क्यों बिसारता ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@.

25

  बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 टूटें बूंद बूंद बादल से ,

 नीर नीर धरा बोता सा ।

  

बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 निशि श्यामल आँचल में ,

 विधु निहार पिरोता सा ।


बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


 छुपकर दिनकर में  ,

 ताप लगे सलोना सा ।


बिंदु सिंधु होता सा ।

  सिंधु जल खोता सा ।


"निश्चल" रहे नहीं कोई ,

 समय समय खिलोना सा ।


... विवेक दुबे"निश्चल"@..

26

एक भृम वहम पलता रहा ।

 पिघलता चाँद ढलता रहा ।


ओढ़कर चूनर सितारों की,

 रात भर चाँद चलता रहा ।


उतरेगी शबनम जमीं पर ,

 ख़्याल दिल पलता रहा ।


 अपने डूबने के इरादे लिये ,

 चलता दिनकर जलता रहा ।


आया न लौटकर फिर कभी ,

समय समय को छलता रहा ।


लौट आऊँगा फिर महफील में ,

 जज्वा ज़िगर मचलता रहा ।


 गुजरता रहा राह जिंदगी पर ,

"निश्चल" गिरकर सम्हलता रहा ।


....विवेक दुबे"निश्चल"@...

27

अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


गढ़ मंज़िल कोई ऐसी,

मंज़िल पर पहला ,

भोर उजाला आये ।


करता चल अपनी बातें ,

अपनी बातों से ,

बात बात का ,

गहरा भाब ,

उभारा जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


खुद को ,

खुद में रखकर ,

शब्द शब्द का ,

अर्थ निकाला जाये ।


लिखकर गीत ,

समय समय के ,

समय समय में ,

ढाला जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


दिनकर के ,

उजियारों में चलकर ,

एक स्वप्न सुनहरा ,

पाला जाये ।


भोर चढ़े ,

किरण कांति सँग ,

संध्या तक ,

अहसास सुहानी ,

छाया जाये ।


अपने अरमानों को ,

मजबूत इरादों से ,

ललकारा जाये ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..

28

मेरा मन्दिर मेरे आंगन में ।

तेरा मन्दिर तेरे आंगन में ।

बरसे कृपा उसकी हरदम ,

जैसे बूंदे बरसें सावन में ।


वो नाप रहा है भांप रहा है ,

उतरा कितना मन वर्तन में ।

समय लगा है क्षण भर का ही,

भरने कृपा उसकी जीवन में ।


साथ चला है वो हरदम तेरे ,

न ला संसय तू कोई मन में ।

बीतेगा ये कठिन समय भी ,

"निश्चल"फूल खिलेंगे मधुवन में ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..


29

माधव आए थे तुम तब ,

नष्ट हुआ सा था जब सब  ।


सुधार गए थे तुम तब सब ,

भय भृष्टाचार नही रहा था तब  ।


तुमने पाप व्यभिचार मार दिया सब ।

गीता से सब को तार दिया था तब ।


समय बदला युग बदला जब ।

आये फिर बदला लेने दानव अब।


 आज मच रहा कोहराम फिर अब।

 कंस पूतना कौरव फिर छाए अब ।


कर रहे अत्याचार सरे आम सब ।

धरती कांपी अंबर भी डोला अब ।


  त्रस्त हुए धरा पर मानव सब  ।

  बहुत हुआ पाप अनाचार अब ।


  आ जाओ तुम धनश्याम।

  करुण पुकारे हर आम ।

  

   विश्व शांति की लाज बचाने ,

   कर जाओ फिर एक संग्राम ।


    ...विवेक दुबे "निश्चल"...

30

सवाल आज ज़िंदगी खास का है ।

समय बंदगी और अरदास का है ।

पुकार ले हृदय से आज उसको ,

जो भी ईस्वर तेरे विश्वास का है ।

रच डाली वो प्रलय तू ने ही ,

जो अधिकार उसके पास का है ।

माँग कर क्षमा अब भी सुधर जा,

निर्णय स्वयं के अहसास का है ।

हर दम है दयालू वो बड़ा ,

हृदय उसका अंनत आकाश का है ।

कर देगा क्षमा एक पल में तुझे ,

कर शपथ तू प्रकृति के साथ का है ।

न बदलूँगा अब तेरे नियम को,

हर नियम जो प्रभु तेरे हाथ का है ।

कर जोड़कर प्रण प्राण से कर प्रार्थना,

हृदय स्थान प्रभु के "निश्चल"निवास का है।

..... विवेक दुबे"निश्चल"@...

31

लिखते रहे सब तक़दीर हमारी ।

कहते रहे , तुम, जागीर हमारी ।

घिस पिसते रहे दो पाटों में ,

समझे नही कोई पीर हमारी ।


बचपन आया योवन तन में ,

काम नही डिग्री की लाचारी ।

प्रौढ़ हुए युवा समय से पहले ,

रोजी की चिंता सिर पे भारी ।


सर्द खड़ा है खेतों में वो ,

लागत की वर्षा होती भारी ।

दे आया उनके दामों में धन ,

मालामाल माया के पुजारी ।


कहते है वो बड़ी शान से ,

अपने वादों में सत्ताधारी ।

बेठाओ तुम हमे कुर्सी पर ,

कर देंगे हम भर झोली भारी ।


बांट रहे है माल-ए-मुफ्त ,

सब के सब ही बारी बारी ।

काम नही पर हाथों में ,

बढ़ती है हाथों की बेकारी ।


कुछ दिन की कतरन है ,

रातो का योवन भारी ।

सब रीते से बर्तन है ,

रीत गये दिन खाली ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

32

.चुनाव परिदृश्य...


एक मतदाता का मन पढ़ने का प्रयास

      =================


मौन रहा फिर भी बोल रहा हूँ ।

अंधियारों सा मैं डोल रहा हूँ ।


पसरा तम सरपट ले करबट ,

तमस तन तम  घोल रहा हूँ ।


व्यथित नही सृष्टि फिर भी ,

तम को तम से तौल रहा हूँ ।


चलता हूँ फिर भी दृष्टि लेकर ,

निःशब्द रहा पर बोल रहा हूँ ।


रहा समय सदा दृष्टा बनकर ,

भेद समय पर खोल रहा हूँ ।


दाग लगे है दामन में दामों के ,

हरदम फिर भी अनमोल रहा हूँ ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


33

    माँ 

पता नही माँ क्या करती होगी ।

ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।


कुछ यादों में मुझे सजाकर ,

नैन तले जल भरती होगी । 


 फ़िर चुरा निगाहें चुपके से ,

 खुद पे खुद हँसती होगी ।


सहज रही होगी यादों को ,

कुछ कपड़ो से लिपटी होगी ।


तह करती सी बड़े जतन से ,

सहज सहज कर धोती होगी ।


मिली किताब किसी कोने में,

जिल्द उसे ही करती होगी ।


दरवाजे पर मेरी आहट को ,

दौड़ चली आ सुनती होगी ।


खड़ी साँझ श्याम के आगे ,

विनय स्वर पिरोती होगी ।


लौट चले समय समय में पीछे,

बार बार समय से कहती होगी ।


उठकर बार बार रातों को ,

खाली लिहाफ़ टटोती होगी ।


पल्लू को आँचल में रखकर ,

पल्लू से ही ढँकती होगी ।


वो थाल रहा अधूरा सा ,

किससे जूठन चुनती होगी ।


पता नही माँ क्या करती होगी ।

ख़्याल अधूरे जब धरती होगी ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

34

     पिता


देता रहा जो छाँव उम्र  सारी ।

सहता रहा जो धूप खुद सारी ।


वो अपनी साँझ के झुरमुट में सुस्ता रहा है ।वो देखो फिर भी कितना मुस्कुरा रहा है ।


बांटकर जीवन जीवन थमता जा रहा है ।

नियति के आँचल में प्यासा ही जा रहा है ।


पीकर दर्द के आँसू पिता मुस्कुरा रहा है ।

आज फिर समय समय को दोहरा रहा है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...

35


ये मैं नही मेरे विचार हैं ।

मैं तो समय के पार है ।

न रहकर भी रहा यही जो,

सत्य का यही आकार है । 


छाते मेघ विचार निरन्तर ,

विचारों का अंनत विस्तार है ।

 देखे शान्त मन विचारों को ,

तब मन चिंतन करे शृंगार है ।


... विवेक दुबे "निश्चल"@...

36

 मन


बस लिखता चल जो मन कहता है ।

काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


सृजित हुआ सदा यह मन से ,

 हृदय भाव मन ही कहता है ।


काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


बदला नही कभी किसी भाषा में ,

यह समय सदा समय रहता है ।


 चला सदा लाँघ कर सीमाएं सारी ,

 देश काल भाषा के परे मन बहता है ।


काव्य काल कब भाषा में रहता है ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


 37

न सिद्ध हूँ न प्रसिद्ध हूँ मैं ,

 न चाहत है शिरोधार्य की ।

लिखता रहूँ अंत समय तक ,

 बनी रहे धार कलम तलवार की ।

... विवेक दुबे "निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...