शनिवार, 18 नवंबर 2023

उम्र

  



   1

 ये उम्र एक मुक़ाम खोजती सी ।

   ज़िंदगी का पयाम खोजती सी ।

.....

2

 एक उम्र दराज , नजर रखता हूँ ।

 दिल जोड़ने का , हुनर रखता हूँ ।

 मैं न हाकिम हूँ , न हक़ीम कोई  ,

 दिल से दिल का , असर रखता हूँ ।

 ....

3

 हराकर उम्र शौक पाले थे,बड़े शौक से ।

 बुझ गए चिराग़ लड़ न सके,अंधेरों के दौर से।

..

4

इश्क़ का कुछ यूँ मसौदा है ।

के यह ताउम्र का सौदा है ।

उसे पा जाने की चाहत में ,

 खुद ने खुद को खोजा है ।

...(सूफ़ियाना अंदाज)

.....

5

यह रूह बिखर जाने दो ।

ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।

इन हसरतों की चाहत में ,

एक उम्र गुजर जाने दो ।

..

6

नादानियां कुछ उम्र की 

 उम्र भर चलती रही ।

चाँदनी सँग चाँद के

 फिर भी चलती रही ।

...

7

हसरतों के बाजारों में ।

उलफ़्तों के चौराहों में ।

लुटती रही अना ,

उम्र के दोराहों में ।

....

8

 एक उम्र ठहर सी रही है ।

 ज़िन्दगी निखर सी रही है ।

 छुड़ाकर दामन हसरतों का ,

 अब चाहतों से डर सी रही है ।

...

9

ये उम्र जब पलटने लगती है ।

निगाहों से झलकने लगती है ।

होते है तजुर्बों के आईने सामने,

 चश्म इरादे चमकने लगती है ।

....."

10

देह का आयाम है झुर्रियां ।

उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।

 गुजरता कारवां है जिंदगी ,

बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।

.... 

11

उम्र ज्यों पकती है,

 तन तपिश घटती है।

  हाँ इस पड़ाव पर, 

ठंड तो लगती है ।

..

12

एक उम्र की तलाश सी ।

एक अधूरी सी आस सी ।

गुजरता रहा उम्र कारवां,

साथ लिए हसरत प्यास सी

.....

13

उम्र घटती गई और,

 कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।

 तलाश-ऐ-जिंदगी में , 

 जिंदगी से गुजरते गए ।

....

14

कुछ यक़ी के परिंदे ।

कुछ ख़ौफ़ के दरिंदे ।

उम्र चली  तन्हा सी ,

ले हालात के चरिंदे ।

...

15

कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।

कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।

ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,

मगर नज़्र के मलाल से रहे।

......

16

  उम्र पकती रही रौनकें घटती रहीं।

  तजुर्बा-ऐ-ताव में हयात तपती रही। 

...

17

हालात ने उम्र दराज बना दिया मुझे ।

यूँ तो शौक बचकाना अभी भी है मेरे ।

......

18

      आये थे जहाँ सुबह ,

       साँझ वहाँ से लौटना ।

       सफ़र न था उम्र भर का ,

       तू न यह जरा सोचना ।

..

19

अनुभव बिना जीव जनम,

         रहता है बेकार ।

उम्र चले है बांटती ,

         जीवन का ही सार ।

..

20

याद रखो बचपन को ।

  तुम न देखो दर्पण को ।

  यह झुर्रियाँ उम्र की नही ।

  दे गया है वक़्त जाते जाते 

....

21

 यादों में बिखर जाते हैं ।

  रिश्ते यूँ निखर जाते हैं ।

         कटती उम्र ख़यालों सँग ,

          जो आगोश भर जाते हैं ।

.. ...

22

यह रूह बिखर जाने दो ।

ये ज़िस्म सँवर जाने दो ।

इन हसरतों की चाहत में ,

एक उम्र गुजर जाने दो ।

....

23

 वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।

आप को कर अंधेरों के हवाले ।

होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,

नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।

...

24

स्वयं का शिल्पी स्वयं रहा ।

है कुछ अधूरा ये वहम रहा ।

गढ़ता रहा स्वयं को उम्र सारी,

फिर भी कहीं कुछ कम रहा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

25

ये उम्र जब पलटने लगती है ।

निगाहों से झलकने लगती है ।

होते है तजुर्बों के आईने सामने,

 चश्म इरादे चमकने लगती है ।

....."निश्चल"@.....

26

हर्फ़ हर्फ़ कहानी लिखता गया ।

जिंदगी तुझे दीवानी लिखता गया। 

कर न सका इजहार प्यार का तुझसे ,

बस तुझे उम्र निशानी लिखता गया ।

....."निश्चल"@....

27

साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।

स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।

कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,

 रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।

...."निश्चल"@....

28

जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है 

खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।

कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,

 अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।

...."निश्चल"@...

29

ज़िंदगी के कुछ समझौते ।

कुछ समझौतों की ज़िंदगी ।

न पाया ब-ख़ुदा ख़ुदा उसमें ,

मैं करता रहा ताउम्र बंदगी ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..

30

वो अल्फाज की सियासत ।

 ये अहसास की सदाक़त ।

 चलते रहे साथ उम्र सारी ,

 न रही कहीं कोई अदावत ।

...."निश्चल"@...

31

मुस्कुराते रहे वो एक झूँठ के सहारे ।

और उम्र के मुक़ाम पे न मिले सहारे ।

कर गई गिला जिंदगी ही जिंदगी से ,

चलती रही जिंदगी इस तरह बे-सहारे ।

...."निश्चल"@...

32

ये जिंदगी कब कहाँ गुज़र जाती है ।

एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स ख़्वाब के आइनों में,

क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

33

मिरी तिश्नगी भी एक कहानी कहेगी ।

जिंदगी मुझे ये उम्र दीवानी कहेगी ।

 पढ़ लेगा ज़माना खामोशी से मुझे

 निगाह निगाह जिसे जुवानी कहेगी ।

....."निश्चल"@...

34

   इज़हार से इकरार हो न सका ।

 ख्याल खुमार में शुमार हो न सका ।

 करते रहे इश्क़ ता-उम्र ख़ुद ही से,

 और ख़ुद पे इख़्तियार हो न सका ।

      ,...."निश्चल"@..

34

उम्र ज्यों ज्यों मुक़ाम से गुजरती गई ।

तेरे इश्क़ की दीवानगी बढ़ती गई ।

बहता रहा दरिया किनारे छोड़ कर,

चाह आगोश समंदर को भरती रही ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@...

35

कुछ यूँ सूरत-ऐ-हाल से रहे ।

कुछ उम्र के ही ख़्याल से रहे।

ख़ामोश न थे किनारे दर्या के ,

मगर नज़्र के मलाल से रहे।

....

36

उलझे सवालों का सुलझा जवाब मांगता है ।

ये वक़्त अक़्सर मुझसे हिसाब मांगता है ।

बहकर आया जो दरिया जिंदगी का दूर से ,

मिल उम्र के समंदर से वो रुआब मांगता है ।

.....

37

उम्र जुड़ रही तारीखों में ।

 निशां छोड़ रही रुख़सारों पे ।

 दर्ज हुए हिसाब निगाहों में ।

 छूटे कुछ गुजरी जीवन रहो में ।

...

38

 उम्र-ऐ-रौनक रुकने नही देती ।

 बकाया कोई रखने नही देतीं ।

 कर चल हर हिसाब तरीके से ,

 गुजरे यह ज़िंदगी सलीके से ।

....

39

 ज़िंदगी कटती रही अरमां हँसते रहे ।

  उम्र गुजरती रही आराम घटते रहे ।

  हालात बयां क्या करें अब आज के ।

 अपने आगाज की सज़ा भुगतते रहे ।

...

40

न कुछ ठीक रहा ,सब बिगड़ सा चला ।

 हारने भी लगे ,कल जो जीतते ही रहे ।

जहां आए थे सुबह , साँझ लौटना पड़ा ।

 सफ़र नही उम्र भर का यह सोचते ही रहे ।

...

41

वक़्त सिमटता रहा, हालात फैलते रहे ।

 रिश्तों के आँचल में, जज़्बात खेलते रहे ।

 करते रहे सफ़र , दूरियों से दूरियों तक ,

 नजदीकियाँ उम्र की,निगाहों से ठेलते रहे ।

     ...

42

ये जिंदगी कब गुज़र जाती है ।

एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,

क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।

.... 

43

एक जिंदगी कब गुज़र जाती है ।

ये उम्र क्यों समझ नही पाती है ।

टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,

टुकड़े टुकड़े शक़्ल बिखर जाती है ।

......

44

एक उम्र ठहर सी रही है ।

 ज़िन्दगी निखर सी रही है ।

 छुड़ाकर दामन हसरतों का ,

 अब चाहतों से डर सी रही है ।

........

45

एक उम्र तराश तलाशती रही ।

जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।

कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,

सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।

... 

46

ता-उम्र का यूँ ईनाम मिला ।

 निगाहों में बदनाम मिला ।

 सींचकर अश्क़ शबनम से ,

  कदमों तले मुक़ाम मिला ।

..... 

47

मैं भटका अपने हालात से ।

 हार कर आज को आज से ।

 चलता ही रहा फिर भी मैं  ,

 जीतकर काल के आघात से ।

...

48

    गुजरते रहे हम हर हालात से ।

    लड़ते रहे वक़्त के मिज़ाज से ।

   दौर-ऐ-उम्र किस को बयां करें ,

    जीत न सके अपने आप से ।

     .... 

49

चेन नही तो आराम कहाँ ।

 सुबह नही तो शाम कहाँ ।

 उम्र गुजारी लिखते लिखते ,

 हम बिके नही सो नाम कहाँ ।

  ..... 

50

हसरतें देतीं रहीं दिल में दस्तक ।

समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।

 

 मचलीं मौजें अरमान की कभी,

 बिखरीं साहिल पे बिखरने तक । 


 गुजरी ज़िंदगी अपने अंदाज़ में।

 गुजर गई ज़िंदगी गुजरने तक । 


 हारता न था जो कभी हालात से,

 लड़ता रहा खुद से जीतने तक।


 ज़श्न मनाएँ क्या जीत का वो,

 उम्र गुजर गई जब जीतने तक।


समंदर का सफ़र रहा समंदर तक।

...."निश्चल" विवेक दुबे...

51

यह ख्याल रहे ख़्याल से ।

अक़्स ढ़लते रहे मलाल से ।


खोजते रहे रौनकें जमाने में,

फिर भी तंग दिल रहे हाल से ।

.....

52

एक उम्र गुजरती है ,

पलकों की पोर से ।


 ज़ज्बात पिरोती है ,

 अश्कों की डोर से ।


साँझ तले टूटते ख़्वाब है,

साथ चले थे जो भोर से ।


तिलिस्म सा ही रहा है ,

खींचता कोई छोर से ।


नाकाफी रहा साज-ए-नज़्म,

"निश्चल" चला दूर शोर से ।

...... 

53

- राज़-ऐ-वक़्त ---


2122 , 12 12 ,22


दूर कितना रहा , ज़माने में ।

कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।


 छूटता सा चला कहीं मैं ही ,

 यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।


ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,

क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।


खोजता ही रहा कमी गोई ,

नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।


रोकता चाह राह के वास्ते ,

चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।


जूझती है युं रूह उम्र सारी ,

जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।


राज़ है वक़्त में छुपा कोई   आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@....

 54

जिंदगी तलाश सी रह गई ।

उम्र यूँ हताश सी रह गई ।


न हो सके तर लब तमन्नाओं से,

 एक अधूरी प्यास सी रह गई ।


खोजता चला दर-ब-दर ,

ठोकर ही पास सी रह गई ।


सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,

खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।


लपेट कर चंद अरमान की चादर ,

चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।

.... 

55

ये फूल गुलाब से ।

नर्म सुर्ख रुआब से ।


नादानियाँ निग़ाहों की ,

नजर आतीं नक़ाब से ।


कशमकश एक उम्र की ,

उम्र पे पड़े पड़ाव से ।


गुजरते रहे वाबस्ता ,

राहों के दोहराव से ।


 थमता दर्या हसरत का ,

"निश्चल" बहता ठहराब से ।


...विवेक दुबे"निश्चल"@..

56

तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।

ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।


सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,

गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।


ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,

साहिल को मिलने की आस रह गई ।


 कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,

 चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।


  बांट दी अपने दामन की खुशियाँ

   यूँ ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।


   ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

58

वो ये जानते है कि हम नादान से है ।

उनकी साजिशों से हम अंजान से है ।


रिवाज़ नही बेहूदगी का मेरी दुनीयाँ में,

उस्ताद साजिशों के हम भी ईमान से है।

 लगते साजिशों में वो बड़े मुकम्मिल,

 इरादे उनके नजर आते शैतान से है ।


 करते है बातें वो दिलो में फाँसले की,

 न जाने किस बात के उन्हें गुमान से है।

  कायम है वो ज़ख्म तीर जुवान के ,

 ये लफ़्ज़ लफ़्ज़ दिल में निशान से है ।

आये है तेरे घर में एक उम्र के वास्ते,

अब नही हम यहाँ तेरे मेहमान से है ।


.....विवेक दुबे"निश्चल"@....

59

सँभाले से सँभलते नहीं हैं हालात कुछ ।

बदलते से रहे रात हसीं ख़्यालात कुछ ।


होता गया बयां ,हाल सूरत-ऐ-हाल से ,

होते रहे उज़ागर, उम्र के असरात कुछ ।


बह गया दर्या ,  वक़्त का ही वक़्त से ,

करते रहे किनारे, ज़ज्ब मुलाक़ात कुछ ।


 थम गया दरियाब भी, चलते चलते ,

 ज़ज्ब कर , उम्र के मसलात कुछ ।


"निश्चल" रह गये ख़ामोश, जो किनारे ,

झरते रहे निग़ाहों से ,  मलालात कुछ ।

.... विवेक दुबे "निश्चल"

60

वो दिन भी कितने खुदी के थे ।

जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।


होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,

लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।


मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,

जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।


खोये थे आप ही आप में हम ,

तब रंज नही कहीं रजंगी के थे ।


परवाह नही थी कल की कोई ,

बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।


उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,

कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।


अरमां न कोई पहचान के वास्ते

फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।


  थी नही शान अहसान की कोई 

 "निश्चल"दिन नही तब तजंगी के थे ।

 

... विवेक दुबे"निश्चल"@..

61

एक धूल भरा दिनकर सा ।

अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।

खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,

अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।

.......

62

गढ़ता रहा क़सीदे अपनी ही शान में ।

एक मेहमान जो रहा इस जहान में ।


एक तआरुफ़ वो हिसाब से देता रहा ,

चैन खोया रहा अपनी ही पहचान में ।

..

63

एक गुजरता कारवां मैं उम्र सा रहा ,

वक़्त सा सिमटता रहा अरमान में ।


 एक टूटती सी हसरत जोड़ता रहा ,

 हालात से निपटता रहा अहसान में ।

....

 एक हाल-ए-ज़ज्ब ज़ज्बात सा रहा ,

 ज़िस्म रूह से लिपटता रहा इंसान में ।


एक सवाल कुछ मेरे उसूलों का रहा ।

यूँ क़ायम रहा मैं "निश्चल" ईमान में ।

.... विवेक दुबे निश्चल..

...64

वो अंजान सा बचपन ।

वो नादान सा बचपन ।


उम्र के कच्चे मकां में ,

वो मेहमान सा बचपन ।


 इस ज़िंदगी के सफ़र में ,

 एक पहचान सा बचपन ।


 खोजता ख़ुद को ख़यालों में ,

  रहा अहसान सा बचपन ।


 ...विवेक दुबे"निश्चल"@....

65

हालात से हयात जूझती ।

 वक़्त से सवाल पूछती ।


      चली आज तक जिस सफ़र पे,

       उस सफ़र का हिसाब पूछती ।


  रहेंगे यह हालत कब तलक ,

 उन हालात की मियाद पूछती ।


       ख़ामोश रही जुबां उम्र सारी ,

      उस खामोशी के राज पूछती ।


 साँझ किनारे मुक़ाम  नही ,

 सुबह अपना अंजाम पूछती ।


      .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

66

  रिंद चला मय की ख़ातिर ,

  साक़ी के मयखाने में । 


  हार चला वो ज़ीवन को ,

  ज़ीवन पा जाने में ।


   रूठे है तारे क्यों ,

   चँदा के छा जाने में।


   भोर तले शबनम जलती,

   सूरज के आ जाने में ।


   उम्र थकी चलते चलते ,

   यौवन के ढल जाने में । 


    उम्र निशां मिलते ,

  चेहरों के खिल जाने में ।


 जीव चला ज़ीवन की खातिर,

  ज़ीवन को पा जाने में ।

 

   रिंद चला मय की ख़ातिर ।


..... विवेक दुबे"निश्चल"@..

68

उम्र के मुकाम पर ।

चाह के पयाम पर ।


तय किये है रास्ते ,

मंजिलों के दाम पर ।


तिलिस्म जिस्म में भरा ,

रूह के इकराम पर ।


ढल रही है शाम  ,

भोर के नाम पर । 


ले चली है हसरतें ,

ख़्वाब के खय्याम पर ।

 ...विवेक दुबे"निश्चल"@...

इकराम--दान

खय्याम ---तम्बू

....

69

 सराहते हम रहे ।

                   बिसारते हम रहे ।


 खींच कर निग़ाहों से ,

          अक़्स से उभारते हम रहे ।


 ये होंसलें तजुर्बों के ,

             उम्र से संवारते हम रहे ।


 टूटते सितारे फ़लक से,

              जमीं को बुहारते हम रहे ।


ख़ाक होते रहे हवा में ,

              नज्र से निहारते हम रहे ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


 70

 मेरे होने की , कहानी लिख दूँ ।

 फिर कोई अपनी, निशानी लिख दूँ ।


  खो गए हालात ,  जिन हाथों से ,

 उन हाथों की, जख्म सुहानी लिख दूँ ।


 न हो चैन मयस्सर, जिस जिस्म रूह को ,

 कशिश उस रूह की,  रूहानी लिख दूँ ।


 गुजरता गया दिन , शोहरतों में ,

 रात की फिर , वीरानी लिख दूँ ।


बदलती रही रंग , मौसम की तरह ,

ये जिंदगी , फिर भी दीवानी लिख दूँ।


  सिमेटकर कुछ , हंसी खयालों को  ,

 उनवान नया ,नज़्म पुरानी लिख दूँ ।


 ले आया यहां, सफर उम्र का चलते चलते ,

"निश्चल"पड़ाव पे, उम्र की नादानी लिख दूँ ।


     .... विवेक दुबे"निश्चल"@...

....

71

जिंदगी जिंदा निशानों सी ।

रही उम्र की पहचानों सी ।


गुजरती रही हर हाल में ,

कायम रहे अरमानों सी ।


खोजती निग़ाह नज्र को ,

कुछ अपने ही गुमानों सी ।


 चली मुख़्तसर सफर पर ,

 यक़ी खोजती इमानों सी ।


मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,

ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।


जूझती हरदम हालात से ,

 रही जंग के मैदानों सी ।


 अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,

"निश्चल" कलम दीवानों सी ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@...


मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प

...

72

 उम्र चली अब थकने ,

                नब्ज़ लगी अब बिकने।

 नजरों ने हाट लगाई ,

                 राह लगी अब तकने ।

    

  मंजिल से पहले ,

            साँझ नजर आई ।

    कदम लगे अब ,

             चलते चलते रुकने ।


    सोचूँ अब क्या सोचूँ ,

              क्या खोया क्या पाया ।

     स्वप्न नही आते अब ,

              नींद तले बिकने ।


    उठ जाग मुसाफ़िर देर भई, 

     भोर तले अब पल हैं कितने।


       उम्र चली है अब ...

 .. विवेक दुबे "निश्चल"@....

73

उम्र के निशां छोड़ती ज़िंदगी।

 खूँ में मिठास घोलती ज़िंदगी।


    गुजर कर एक कारवां से ,

    कारवां नया खोजती ज़िंदगी ।


 मैं चलता रहा साथ हालात के ,

 वक़्त के राज बोलती ज़िंदगी ।


    मैं चल न सका मुताविक सबके ,

   कदम कदम मुझे तोलती ज़िंदगी ।


 बिखरे क़तरे बे-वफ़ा शबनम के ,

 निगाहें मेरी वफ़ा खोजती ज़िंदगी ।


  "निश्चल" बिखरा ख़ाक के मानिन्द

  मेरे वुजूद में अना खोजती ज़िंदगी।


          ... विवेक दुबे"निश्चल"@...

        * अना- मैं अहम

.....

74

डरता हूँ कभी कभी डर जाता हूँ मैं ,

 दर्पण में अपने बिंबित प्रतिबिंब से ।


 चकित होता हूँ हाँ चकित होता मैं ,

 बढ़ती उम्र के उभरते हर चिन्ह से ।


 सोचता फिर अगले ही पल मैं ,

 परिवर्तन ही प्रकृति का नियम ,

 लागू होता है यह मुझ पर भी ।


 लड़ न सका कोई प्रकृति से ।


 समेट लेती वापस धीरे धीरे ,

 गर्भ में अपने अपनी गति से ।


 उदय और अस्त दिन और रात ,

 यह भी तो चलते इसी गति से ।


 अस्त हो उदय होना मुझे भी ,

 नियति की इस सतत गति से ।


 प्रकृति भी चलती प्रकृति से ।


 हटा दर्पण सामने से  ,

 चल पड़ता वर्तमान में ,

   मैं अपनी गति से ।

..... विवेक दुबे"निश्चल"©..

75

 मेरे चेहरे से खुशियाँ बेगानी है यारो ।

 ये रंजिशें तो मेरी दिवानी है यारो ।


 गुजरता हुँ वक़्त के हालात के ,

 मंजिल एक दिन आनी है यारो ।


 अपने ही आप से क्यों रूठता हूँ ,

 यह मुश्किलें तो पहचानी है यारो ।


 नही रंज किसी के वास्ते दिल में ,

 ये उम्र तो आनी जानी है यारो ।


 मुश्किल यह दौर है कैसा ,

 ग़ुरबत ही निशानी है यारो । (विवशता)


 उठाता रहा कदम जीत के वास्ते ,

 एक हार भी नही पुरानी है यारो ।

 

चला चल "निश्चल" राह अपनी ,

 तुझे राह खुद बनानी है यारो ।


  ..... विवेक दुबे"निश्चल"@...


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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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