1
बिन चेहरों के कभी,
पहचान नही होती ।
सरल बहुत जिंदगी,
पर आसान नही होती ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
बिन चेहरों के कभी ,
पहचान नही होती ।
यह सरल बहुत ज़िंदगी ,
पर आसान नही होती ।
रवि बादल में छुपने से ,
कभी साँझ नही होती ।
छूकर शिखर हिमालय का ,
तृष्णा कभी तमाम नही होती ।
पाता है मंजिल बस वो ही ,
राहों से पहचान नही होती ।
चलता है मंजिल की खातिर ,
निग़ाह मगर आम नही होती ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
2
बे-मज़ा ज़िंदगी भी मज़ा रही है ।
तेरे इश्क़ की यही तो रज़ा रही है ।
..."निश्चल"...
3
जिंदगी का ये कैसा फ़लसफ़ा है ।
के हर कोई हर किसी से ख़फ़ा है ।
....निश्चल"@ ..
4
मैं तेरे इस जवाब का क्या हिसाब दूँ ।
जिंदगी तुझे जिंदगी का क्या हिसाब दूँ ।.
.....निश्चल"@ ..
5
हौंसलों की "निश्चल" कभी हार नही होती ।
कठिन भले हो जिंदगी पर भार नही होती ।
....निश्चल"@ ..
6
735
122×4
मिरी याद में जो रवानी मिलेगी।
उसी आह को वो कहानी मिलेगी ।
मिली रूह जो ख़ाक के उन बुतों से ,
जिंदगी जिस्मों को दिवानी मिलेगी ।
मुझे भी मिला है जिक्र का सिला यूँ ,
नज़्मों में मिरि भी कहानी मिलेगी ।
जहाँ राह राही मुसलसल चलेगा ,
जमीं पे कही तो निशानी मिलेगी ।
बहेगा तु हालात के दर्या में ही ,
नही मौज सारी सुहानी मिलेगी ।
सजाता रहा मैं जिसे ख़्वाब में ही ,
उम्र वो किताबे पुरानी मिलेगी ।
कहेगा जिसे तू निगाहे जुबानी,
"निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
अंतिम शेर फिर से कहें,बेमानी हैं
कहेगा जिसे तू निगाहे सुहानी ,
कहेगा जिसे तू निगाहे ख़ास ही,
"निश्चल" वो नज़्र भी सयानी मिलेगी ।
7
122 12 2 122 122
अँधेरो में बिखरी उजाली रही है ।
चला हूँ नज़र राह आती रही है ।
दिखाते रहे हाल हालात को भी ,
ज़ख्म ये पुराने निशानी रही है ।
मिला है नसीबा मुक़द्दर जहाँ भी ,
जिंदगी तक़दीर से मिलाती रही है ।
मिलाते रहे ज़िस्म-ओ-जां निगाहें ,
यहाँ रूह भी तो रूहानी रही है ।
तरसता है वो चाँद भी चाँदनी को ,
जुदा चाँदनी भी दिवानी रही है ।
कटी है निग़ाहों में जो रात सारी ,
वही रात ही तो सुहानी रही है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
8
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।
न हो सके तर लब तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।
खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।
सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।
लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
9
दो कदम पीछे हुनर से हटाता रहा ।
यूँ हर ख़्वाब टूटने से बचाता रहा ।
न जीता कभी जंग में जिंदगी की ,
यूँ न हार कर मैं ज़श्न मनाता रहा ।
...."निश्चल"@...
10
बहुत कुछ कहा ,कुछ कह गया ।
हर्फ़ हर्फ़ किताबों से, बह गया ।
पलटता रहा सफ़े जिंदगी के ,
हर हुनर निग़ाहों में रह गया ।
देखता रहा मासूमियत चेहरा ,
और उनवान उम्र ढह गया ।(भूमिका)
लाया ना कोई सच जुबां पर ,
हर ज़ुल्म इंसाफ़ सह गया ।
कर ना सकी बयां जुबां जिसे ,
"निश्चल" वो जज्बात हर्फ़ कह गया ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
11
तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
बांट दी अपने दामन की खुशियाँ
यूँ ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
12
आज सा हर कल मिले जरूरी तो नही ।
सुकर्मो का सुफल मिले जरूरी तो नही ।
प्रश्नों की एक किताब सी है ये जिंदगी ,
सारे प्रश्नों का हल मिले जरूरी तो नही ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@...
13
एक अधूरी सी आस रह गई ।
बस इतनी ही प्यास रह गई ।
चलता रहा ख़ुशियाँ साथ ले के,
जिंदगी मग़र उदास रह गई ।
..."निश्चल"@...
14
जिंदगी तो लौट कर फिर आती है ।
खुशियों को नज़र क्यों लग जाती है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
15
चलती ही रही कशमकश बड़ी ।
जिंदगी साथ जिंदगी के यूँ खड़ी ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
.... 16
उसे जिंदगी से मोहलत नही मिली ।
मुझे जिंदगी से तोहमत यही मिली ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
....17
उसे जिंदगी से मोहलत यदि मिलती ।
मुझे जिंदगी से तोहमत नही मिलती ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
18
सफ़ा सफ़ा जिंदगी मैं स्याह कर गया ।
मैं अपने आपको यूँ गुमराह कर गया ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
19
बिखेरकर अपने आप को ,सिमेटता गया ।
नम निगाहों से जिंदगी तुझे मैं देखता गया ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
20
मोहलत न मिली वक़्त से मोहब्बत के वास्ते ।
तय होते रहे यूँ तन्हा तन्हा जिंदगी के रास्ते ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
21
ये शुकूँ , शुकूँ तलाशता रहा ।
यूँ सफ़र , जिंदगी राब्ता रहा ।
(contect)
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
....
22
मैं मानता रहा, मनाता रहा ।
ज़िस्म जिंदगी , सजाता राह ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
23
छूटता रहा सब , व्यर्थ बेकार सा ।
जिंदगी रहा तेरा ,इतना ऐतवार ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
24
बिन तस्बीरों के , पहचान कहाँ होती है ।
एक स्याह जिंदगी , ईमान कहाँ होती है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
25
न था कसूर कोई किसी का ।
फलसफा यही जिंदगी का ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
26
डूबता रहा साँझ के मंजर सा ।
सफ़र जिंदगी रहा समंदर सा ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
27
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
28
अहसान जिंदगी का इतना मुझ पर ।
करम फरमाया हर अहसान का मुझ पर ।
29
जिंदगी न समझ सकी हालात को ।
बुझती गई प्यास फिर प्यास को ।
...30
तमाशा ही है आज हर जिंदगी ।
करता नही कोई किसी से बंदगी ।
31
जिंदगी कटती अपने ही तरीके से ।
हारते हम हर बार अपनो के तरीकों से ।
32
हूँ होश में , मैं मदहोश हूँ मगर ।
जिंदगी तेरे अंदाज़ से,हैरां हूँ मगर ।
33
773
अब नही रंजिशों से मलाल कोई ।
अब नही ख़्वाब-ओ-ख़्याल कोई ।
थी जुस्तजू अरमानों से चाहतों की ,
पर मिली न मुझ को मिशाल कोई ।
रूठ कर निगाहों में अपनों की ही ,
करता नही कभी भी कमाल कोई ।
जब चलना हो साथ ज़िंदगी के ही ,
तब क्यो कहे जिंदगी को बेहाल कोई ।
जब न हों मुरादें कुछ पा जाने की ,
तब "निश्चल"क्यो न रहे निहाल कोई ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
34
779
*इन बेताबियों का जवाब क्या दूँ ।*
*इन बेकरारियों का हिसाब क्या दूँ ।*
*पाल बैठा हूँ दुश्मनी ख्यालों से भी ,*
*ऐ जिंदगी तुझे हँसी खुआव क्या दूँ ।*
*आ ही गया जो महफ़िल में बे-पर्दा ,*
*अब उस हुस्न को नक़ाब क्या दूँ ।*
*साजिशें है आज बड़ी मुकम्मिल ,*
*अब शराफ़तों को ठहराब क्या दूँ ।*
*कह गया जो बातें बड़े सलीके से ,*
*उन बातों का लब्बोलुआब क्या दूँ।*
*जो पढ़ गया"निश्चल"को एक निग़ाह में ,*
*उसे मैं अपनी ग़ज़ल किताब क्या दूँ ।
..... *विवेक दुबे"निश्चल"@*....
36
783
हर ज़वाब का जबाब देता गया ।
हर ख़्याल को ख्वाब देता गया ।
मैं चाहत-ऐ-जिंदगी की खातिर ,
मैं हसरतों को रुआब देता गया ।
इस जिंदगी के सफर में मुझे ,
हर मोड़ एक दोहराब देता गया ।
चलता रहा मैं मुसलसल राह पे,
रास्ता मगर मुझे ठहराब देता गया।
वो लफ्ज़ थे कुछ तल्ख़ लहजे में,
हर अल्फ़ाज़ मगर लुआब देता गया ।
देखकर आलम बेहयाई का जमाने मे,
"निश्चल"निगाहों को नक़ाब देता गया ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
37
फिर एक नई शुरुवात करते है ।
जिंदा हसरतें हालात करते है ।
थम गई जिंदगी जहां की तहां ,
फ़िर चलने की बात करते है ।
सजा कर दिलो ग़म क़रीने से ,
खुशियों से मुलाक़ात करते है ।
समेट कर चाहतें दामन में ,
जवां फिर ज़ज्वात करते है ।
है धुंधला साँझ का मंजर"निश्चल"
रौशन रौशनी ख़यालात करते है ।
फिर एक नई शुरुवात करते है ।
जिंदा हसरतें हालात करते है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.
38
1038
तलाश को तलाश की तलाश रह गई ।
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
बांट कर अपने दामन की खुशियाँ
ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
39
पहचान पहचानो की मोहताज रही ।
शख़्सियत कल जैसी ही आज रही ।
कभी न खनके रिश्तों के घुंघरू ,
जिंदगी फिर भी सुरीला साज रही ।
लिखता रहा मैं हर शे'र बह्र में ,
पर हर ग़जल मेरी बे-आवाज रही ।
निभाया हर फ़र्ज़ को बड़ी शिद्दत से ,
दस्तूर-ए-जिंदगी पर बे-रिवाज़ रही ।
न था मैं बे-मुरब्बत जमाने के लिए ,
मेरी शोहरतें खोजती लिहाज़ रही ।
बंधा न समां सुरों से महफ़िल में,
"निश्चल"की ग़जल बे-रियाज़ रही ।।
40
ज़िंदगी यूँ हसरतों से हताश रह गई ।
सींचता चला मैं अश्को से बागवां ,
गुलशन को फिर भी प्यास रह गई ।
ठहरी न वो मौजे अपने किनारो पे ,
साहिल को मिलने की आस रह गई ।
कट गई उम्र चाहतों की चाह में ,
चाहत-ए-जिंदगी यूँ खास रह गई ।
बांट कर अपने दामन की खुशियाँ
ख़ुशी खुद ही उदास रह गई ।
41
रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा ।
मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा ।
उधड़ते ख़्याल ख्वाब तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।
आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
फ़िक़्र से देख नज़्र हिल जरा ।
खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास वो मंजिल जरा ।
हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत अब "निश्चल"जरा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
42
वो भी एक दौर था ,
ये भी एक दौर है ।
वो न कोई और था ,
ये भी न कोई और है ।
जिंदगी के हाथ में ,
चाहतों की डोर है
जीतने की चाह में ,
अदावतों का शोर है ।
उम्मीदों के पोर पे ,
हसरतों के छोर है ।
छूटते आज में ,
कल नई भोर है ।
वो भी एक दौर था ,
ये भी एक दौर है ।
..."निश्चल"@....
43
तलाश सी फुर्सत की ।
वक़्त की ग़ुरबत सी ।
देखते ही रहे आईना ,
निग़ाह से हसरत की ।
आरजू-ऐ-जिंदगी रही ,
वक़्त की करबट सी ।
चाहकर भी न मिली ,
चाहत सी मोहलत की ।
तलाशता रहा सफ़ऱ ,
शोहरत की दौलत सी ।
.... *विवेक दुबे"निश्चल"*@..
44
27
ना रहे याद हम ,
आज अंजानों से ।
हसरतों की चाहत में ,
खो गए पहचानों से ।
रीतते ज्यों नीर से ,
नीरद असमानों से ,
बरसने की चाह में ,
ग़ुम हुए निशानों से ।
घिरती रही जिंदगी ,
अक़्सर उल्हानो से ।
लाचार ही रही ,
घिरकर फ़सानो से ।
घटते नही आज,
फांसले दिल के ,
रिश्ते रहे आज "निश्चल" ,
होकर म्यानों से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
45
जाने कैसी यह तिश्नगी है ।
अंधेरों में बिखरी रोशनी है ।
मचलता है चाँद वो फ़लक पे ,
बिखरती जमीं ये चाँदनी है ।
डूबता नहीं सितारा वो छोर का ,(उफ़्क)
मिलती जहाँ फ़लक से जमी है
सिमटा आगोश में दर्या समंदर के ,
जहाँ आब की नही कहीं कमी है ।
खिलता है वो बहार की ख़ातिर ,
बिखरती फूल पे शबनम नमी है ।
चैन है नही मौजूद-ओ-मयस्सर ,
"निश्चल"मगर मुसलसल ये जिंदगी है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
तिश्नगी/प्यास/तृष्णा /लालसा
46
(एक मुसल्सल ग़जल)
रास्ते मंजिल-ए-जिंदगी, जो दूर नही होते ।
ये सफ़र जिंदगी , इतने मजबूर नही होते ।
खोजते नही , रास्ते अपनी मंजिल को ,
जंग-ए-जिंदगी के,ये दस्तूर नही होते ।
साथ मिल जाता गर, कदम खुशियों का ,
ये अश्क़ पहलू-ए-ग़म ,मशहूर नही होते ।
जो बंट जाते रिश्ते भी, जमीं की तरह ,
रिश्ते अदावत के, ये मंजूर नही होते ।
"निश्चल" न करता , यूँ कलम से बगावत ,
ये अहसास दिलों से, जो काफूर नही होते ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
47
जिंदगी तलाश सी रह गई ।
उम्र यूँ हताश सी रह गई ।
न हो सके तर लब तमन्नाओं से,
एक अधूरी प्यास सी रह गई ।
खोजता चला दर-ब-दर ,
ठोकर ही पास सी रह गई ।
सींचता चला गुलशन-ए-जिंदगी ,
खुशबू-ए-चमन आश सी राह गई ।
लपेट कर चंद अरमान की चादर ,
चाहत-ए-हयात ख़ास सी रह गई ।
48
जिंदगी जिंदा निशानों सी ।
रही उम्र की पहचानों सी ।
गुजरती रही हर हाल में ,
कायम रहे अरमानों सी ।
खोजती निग़ाह नज्र को ,
कुछ अपने ही गुमानों सी ।
चली मुख़्तसर सफर पर ,
यक़ी खोजती इमानों सी ।
मिली फ़िक़्र के वास्ते यूँ ,
ज़िस्म मकां मेहमानों सी ।
जूझती हरदम हालात से ,
रही जंग के मैदानों सी ।
अल्फ़ाज़ लिखे मुसलसल ,
"निश्चल" कलम दीवानों सी ।
.... मुख़्तसर/ संक्षिप्त /अल्प
..49
वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।
होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।
मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।
खोये थे आप ही आप में हम ,
तब रंज नही कहीं रजंगी के थे ।
परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।
उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।
अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।
थी नही शान अहसान की कोई
"निश्चल"दिन नही तब तजंगी के थे ।
...50
दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।
छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।
ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।
खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।
रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।
जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।
राज़ है वक़्त में छुपा कोई आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।
51
मेरे होने की , कहानी लिख दूँ ।
फिर कोई अपनी, निशानी लिख दूँ ।
खो गए हालात , जिन हाथों से ,
उन हाथों की, जख्म सुहानी लिख दूँ ।
न हो चैन मयस्सर, जिस जिस्म रूह को ,
कशिश उस रूह की, रूहानी लिख दूँ ।
गुजरता गया दिन , शोहरतों में ,
रात की फिर , वीरानी लिख दूँ ।
बदलती रही रंग , मौसम की तरह ,
ये जिंदगी , फिर भी दीवानी लिख दूँ।
सिमेटकर कुछ , हंसी खयालों को ,
उनवान नया ,नज़्म पुरानी लिख दूँ ।
ले आया यहां, सफर उम्र का चलते चलते ,
"निश्चल"पड़ाव पे, उम्र की नादानी लिख दूँ ।
52
राज़-ऐ-वक़्त ---
2122 , 12 12 ,22
दूर कितना रहा , ज़माने में ।
कर सफ़र मैं तन्हा,वीराने में ।
छूटता सा चला कहीं मैं ही ,
यूँ नया सा शहर ,बसाने में ।
ढूँढ़ती है नज़र निशां कोई ,
क्यूँ मुक़ा तक ,चलके आने में ।
खोजता ही रहा कमी गोई ,
नुक़्स मिलता नही ,फ़साने में ।
रोकता चाह राह के वास्ते ,
चाँद भी हिज़्र तले,ढल जाने में ।
जूझती है युं रूह उम्र सारी ,
जिंदगी के रिश्ते निभाने में ।
राज़ है वक़्त में छुपा कोई आज"निश्चल"मुझे,बनाने में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
53
1024
जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है
खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।
कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,
अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।
...."निश्चल"@...
54
ये जिंदगी कब कहाँ गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स ख़्वाब के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
55
रौनकें जिंदगी आईने बदलती है ।
जैसे जैसे जिंदगी साँझ ढलती है ।
गुजरता कारवां मक़ाम से मुक़ाम तक ,
तब जाकर ही मंजिल मिलती है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
56
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
..."निश्चल"@....
57
वो अल्फ़ाज़ क्यों दख़ल डालते है ।
वो क्यों जिंदगी में ख़लल डालते है ।
ज़ज्बात भरे मासूम से इन रिश्ते में ,
सूरत अस्ल अकल नक़ल डालते है ।
... ....
58
जिंदगी कुछ यूँ उम्दा है ।
अश्क़ पलको पे जिंदा है ।
मचलता है पोर किनारों पे ,
डूबता साहिल पे तन्हा है ।
....
59
जिंदगी कुछ यूँ संजीदा है ।
अश्क़ पलको पे पोशीदा है ।
मचलता ख़ुश्क किनारों पर ,
डूबता साहिल पे जरीदा है ।
....
संजीदा /गंभीर /समझदार
पोशीदा /ढंका हुआ/गुप्त/छिपाया हुआ
जरीदा/तन्हा
60
खो रहा कल में आज है ।
सुर कही तो कही साज है ।
है मुक़ाम पर मुक़ाम से दूरी ,
जिंदगी का यही तो राज है ।
...."निश्चल"@.
61
मिरी तिश्नगी भी एक कहानी कहेगी ।
जिंदगी मुझे ये उम्र दीवानी कहेगी ।
पढ़ लेगा ज़माना खामोशी से मुझे
निगाह निगाह जिसे जुवानी कहेगी ।
....."निश्चल"@..,
62
साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।
स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।
कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,
रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।
...."निश्चल"@....
63
तर-व-तर ग़म में इस क़दर हुए ।
जिंदगी हम तुझसे बेखबर हुए ।
घिरे अरमां वस्ल-ओ-हिज्र के तूफान में,(मिलना बिछड़ना)
फांसले न वो कभी कमतर हुए ।
.."निश्चल"@....
64
अधूरी सी एक आस रह गई ।
इतनी सी एक प्यास रह गई ।
चलती रही साथ खुशियों के,
जिंदगी मगर उदास रह गई ।
....."निश्चल"@....
65
जिंदगी ने कुछ सवाल पूछे है ।
क्युँ जिंदगी के मलाल पूछे है ।
होश है नही रिंद को अपना ही ,
और साक़ी ने रिंद के हाल पूछे है ।
...."निश्चल"@..
66
रौनकें जिंदगी आईने बदलती है ।
जैसे जैसे जिंदगी साँझ ढलती है ।
गुजरता कारवां मक़ाम से मुक़ाम तक ,,
तब जाकर ही मंजिल मिलती है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
67
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
..."निश्चल"@....
68
साँझ के दामन में एक चाँदनी खिली सी ।
स्याह के सफ़र को यूँ रोशनी मिली सी ।
कटती रही उम्र खामोश मुसलसल यूँ ही ,
रात के किनारों पे फ़र्ज़ जिंदगी ढली सी ।
69
हर्फ़ हर्फ़ कहानी लिखता गया ।
जिंदगी तुझे दीवानी लिखता गया।
कर न सका इजहार प्यार का तुझसे ,
बस तुझे उम्र निशानी लिखता गया ।
.....70
जिंदगी में सब ख़्वाब-ओ-ख्याल का खेल है
खुशी को मिटाने के लिए मलाल का खेल है ।
कट जाती है जिंदगी अहसास के सहारे से ,
अहसासों की तपिश उम्र जमाल का खेल है ।
..71
मुस्कुराते रहे वो एक झूँठ के सहारे ।
और उम्र के मुक़ाम पे न मिले सहारे ।
कर गई गिला जिंदगी ही जिंदगी से ,
चलती रही जिंदगी इस तरह बे-सहा
72
ये जिंदगी कब गुज़र जाती है ।
एक उम्र क्यों समझ नही पाती है ।
टूटते हैं अक़्स काँच के आइनों में,
क़तरा शक़्ल तन्हा नजर आती है
73
वो चराग़ उगलते रहे उजाले ।
आप को कर अंधेरों के हवाले ।
होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,
नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।
...74
एक उम्र तराश तलाशती रही ।
जिंदगी कुछ यूँ ख़ास सी रही ।
कटता रहा सफ़र सहर के वास्ते ,
सँग जुगनुओं के स्याह रात सी रही ।
..75
उलझे सवालों का सुलझा जवाब मांगता है ।
ये वक़्त अक़्सर मुझसे हिसाब मांगता है ।
बहकर आया जो दरिया जिंदगी का दूर से ,
मिल उम्र के समंदर से वो रुआब मांगता है ।
76
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां
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उम्र घटती गई और,
कुछ तजुर्बे बढ़ते गए ।
तलाश-ऐ-जिंदगी में ,
जिंदगी से गुजरते गए ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
Blog Post 17/11/23
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