यह सफर विकल्प से , संकल्प तक का ।
लगता सारा जीवन , सफर दो पग का।
....
जीवन है सब राम का,दियो राम में खोय ।
मिलता है सब आप से,मांगत कछु ना कोय ।
...."निश्चल"...
जीवन तो एक आनंदोत्सव है ।
समय से मिलता सबको सब है ।
....
जीवन स्वम् की एक खोज उठते प्रश्न ।
एक जिज्ञासा स्वयं को पाने की आशा ।
....
ना हर्ष रहे ना संताप रहे ।
बस मैं नही आप रहे ।
मोह नही नियति बंधन से ,
जीवन का इतना माप रहे ।
......
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
....
एक आशा जीवन की ।
अभिलाषा इस मन की ।
तलाश रही डगर डगर ,
राह कठिन जीवन की ।
...
एक परपोषित वृक्ष लता सा ।
जीवन आश्रित देह सटा सा ।
पाता पोषण कण कण से ,
अस्तित्व हीन हो रहा बचा सा ।
...
क्या खूब तमाशा , बा-खूब तमाशा है।
पल पल बढ़कर जीवन,घटता जाता है।
ख़बर नही पल को , अगले ही पल की ,
हरी-भरी फिर भी , कल की आशा है।
........विवेक दुबे"निश्चल"@...
निश्चल एक आस है ।
आस ही प्रभात है ।
चलते रहें यूँ ही हम,
जीवन एक प्रयास है ।
...
मन से मन की अनबन है ।
उलझन में ही उलझा मन है ।
भटक रहा सांसो के वन में,
सांसो में कब मिलता जीवन है ।
..."निश्चल"@...
जीवन मूल्य बदलते है ।
साँझ तले सब ढलते है ।
नव प्रभात की किरणों में,
तब नव आयाम उजलते है ।
....."निश्चल"@....
जीवन का ऐसा ताना है ।
उधड़ा सा हर बाना है ।
सहज रहा तार तार को ,
पोर पोर ख़ुद को पाना है ।
...
सहज चल तार तार को ,
पोर पोर खुद को जाना है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
गम की स्याही से , जीवन का आनंद लिखा है ।
भाव लिए जीवन ने, जीवन का छंद लिखा है ।
सुर ताल सरल नही हैं , इस जीवन कविता के ,
छूट गया जो गजलों में,गीतों में वो बंद लिखा है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@...
हर मुश्किल के हल होंगे ।
आज नही तो कल होंगे ।
इस धूप सुनहरे जीवन में ,
साथी खुशियों के पल होंगे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
तय नही है कुछ भी,
जीवन में जीवन का ।
उड़ता पंछी पिंजरे में ,
आकाश लिए मन का ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@..…
घटना घटती है, माटी माटी से छंटती है ।
सृष्टि बनती है, बनकर फिर मिटती है ।
जीव चला जीवन पथ पग धर धीरे धीरे ,
आस लिए दूर क्षितिज पर दृष्टि टिकती है।
..... ...विवेक दुबे"निश्चल"@...
अपनी पहचानो को वो मान चला ।
अपनी पहचानो को पहचान चला ।
जीवन के दामन में भरकर जीवन ,
अपने जीवन को जीवन जान चला ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
बीते कल को स्वीकार किया मैंने ।
हाँ यूँ जीवन से प्यार किया मैंने ।
आते उजले कल की अभिलाषा में ,
"निश्चल" पल को दुलार किया मैंने ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
वो यादे बचपन की ।
बाते मन से मन की ।
सिमट गई यादों में ,
खुशियाँ जीवन की ।
..."निश्चल"@ ..
प्रातः वंदन प्रभु आशीष चाहिए ।
तुमसे बस इतनी सी भीख चाहिए ।
मिलता रहे बल सम्बल हर पल,
जीवन से पग पग सीख चाहिए ।
.....
कदम कदम भ्रांति सी ।
जीवन में संक्रांति सी ।
घटती बढ़ती जो सदा, ,
कलानिधि काँति सी।
...
यात्रा स्वयं में स्वयं की ।
खोज यही जीवन की ।
चला यहीं "निश्चल"मन
परिधि इतनी ही मन की ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
जिसकी स्मृतियाँ ही शेष हैं ।
उसके बस यही अवशेष हैं ।
बिता सारा जीवन संघर्षो में,
उसके बारे में लिखने को ,
पास मेरे शब्द नही शेष हैं ।
.....
धागे अनुभव के जोड़ रहा हूँ ।
दिखती गाँठो को गोड़ रहा हूँ ।
चलकर जीवन की राहों पर में ,
जीवन को जीवन मे मोड़ रहा हूँ ।
... ..
उम्र जुड़ रही तारीखों में ।
निशां छोड़ रही रुख़सारों पे ।
दर्ज हुए हिसाब निगाहों में ।
छूटे कुछ गुजरी जीवन रहो में ।
...
पृष्ठ पृष्ठ पलटानी है ।
जीवन एक कहानी है ।
बहता सा नीर नदी का ,
जीवन एक रवानी है ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
मैं उदास क्यो मुझको पता नही ।
जिंदगी आस को ढो रही है कही ।
जीवन की इस भूल भुलैया में ,
शायद खुशियाँ खो रही है कही ।
.....विवेक "निश्चल"@...
लिखता है वो बस लिखता है ।
अनुभव जीवन के लिखता है ।
छपा नही कभी किताबो में ,
ना ही मंचों पर वो बिकता है ।
........
खिल उठें रंग जीवन के ।
आशाओं के अहसासों सँग ।
घोर निराशाओं की आँधी में,
दृण "निश्चल" सहारों सँग ।
.......
वो भी एक किनारा है ,
यह भी एक किनारा है।
जीवन की आशाओं को ,
आशाओं संग बाँधा है ।
...
कदम कदम भ्रांति सी ।
जीवन में संक्रांति सी ।
घटती बढ़ती जो सदा, ,
कलानिधि काँति सी।
....
रीत रहा मन बीत रहा तन ।
मन की मन से उलझन ।
जाने कैसा यह एकाकीपन ।
जीवन में खो जाता जीवन ।
.... ..
देता है जीवन अपने तरीके से ,
फिर भी हर दम एक आस है ।
जीवन की इस बहती सरिता में,
रहती घूंट घूंट अधूरी प्यास है ।
......
चलते जाना तू चलते जाना ।
पतझड़ में भी फूल खिलाना ।
राह कठिन इस जीवन वन की,
ज़ीवन वन गुम हो न जाना ।
.....
और न कर तू नादानी ।
ज़ीवन की मोड़ कहानी ।
लिख जा हर्फ़ सुनहरे से ,
तू स्याह न छोड़ निशानी ।
....
बून्द बून्द कर दिन कटता है।
पल प्रति पल कुछ घटता है।
कुछ बढ़ जाए कि चिंता में,
जीवन तो घटता ही घटता है।
..... ..
जीवन को अपने वो लिखे कैसे ।
कलम तले शब्दों में टिके कैसे ।
हार गया जो खुद से ही खुद ,
दुनियाँ को फिर वो जीते कैसे ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
उम्र जुड़ रही तारीखों में ।
निशां छोड़ रही रुख़सारों पे ।
दर्ज हुए हिसाब निगाहों में ।
छूटे कुछ गुजरी जीवन रहो में ।
...
इस काँटिल छाँव तले ।
सोचूं कुछ सुबह तले ।
क्या खोया क्या पाया,
जीवन की साँझ ढले।
....
तुम लिखो अपना ।
कुछ कहो अपना ।
सत्य नही जीवन ,
जीवन एक सपना।
...
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
....
मन समझे मन की भाषा ।
नयन पढ़ें नैनन की भाषा ।
न कोई आशा न अभिलाषा,
जीवन की इतनी सी परिभाषा।
....
न जीत लिखूँ न हार लिखूँ ।
न प्रीत लिखूँ न प्यार लिखूँ ,
हर दिन धटते बढ़ते चँदा से ,
मैं बस जीवन हालात लिखूँ ।
.....
पुलकित मन हो ,
हर्षित जीवन हो ।
मानव का मानव को ,
मानव सा अर्पण हो ।
...
धागे अनुभव के जोड़ रहा हूँ ।
दिखती गाँठो को गोड़ रहा हूँ ।
चलकर जीवन की राहों पर में ,
जीवन को जीवन मे मोड़ रहा हूँ ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सफ़र इन राहों पर अनन्त विस्तार सा ।
मिलता हर मोड़ पर जीवन श्रृंगार सा ।
मिलता पथ मन उपवन तपन ढ़ले ही ,
हर्षित पथ तृष्णाओं के तिरस्कार सा ।
.....
खुद को खुद में खोता है ।
ज़ीवन तो एक धोखा है ।
जीवन ने ज़ीवन की ख़ातिर,
खुद को खुद में रोका है ।
...
जीत नही कहीं , न ही हार कही ,
जीवन में मिलता, आकार नया है ।
आज रुका नही , कल साथ नही ,
यही नियति का,नित सिंगार नया है ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@.....
लौट चला जीवन से जीवन की और ।
सँग लेकर नव स्वप्न विहान सलोना ।
जाग चलीं अभिलाषाएं फिर कुछ ,
नवल धवल सा एक आस बिछौना ।
(विहान - भोर)
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
देह का आयाम है झुर्रियां ।
उम्र का विश्राम है झुर्रियां ।
गुजरता कारवां है जिंदगी ,
बस एक मुक़ाम है झुर्रियां ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
छूटे कुछ पल जीवन के ,
नवजीवन की छांव तले ।
"निश्चल" मन रोपित करता ,
आशाओं की ठाँव तले ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
दुनियाँ के प्रश्नों के उत्तर देते देते ।
कुछ प्रश्न अधूरे छूटे जीवन के मेरे ।
अहसासों के चलते इस अंधड़ में ,
गुवार भरे गहरे कुछ धूमिल से घेरे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
काल के कपाल पे ,मृत्यु के भाल पे ।
जन्म के श्रृंगार से,जीव के दुलार से ।
जीतता आप से,जीवन की ढाल से ।
हारता न हार से,जीत के प्रतिकार से ।
सृष्टि के स्वीकार से ,अनन्त के काल से ।
जीवन चलता , नए रूप के श्रृंगार से ।
घटता बढ़ता प्रति दिन ,चँद्र सी चाल से ।
दमकता पौरुष ,भानू सा जीवन भाल पे ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
वो अर्थ हीन है ,
ऐश्वर्य से परे सा ।
अर्थ हीन होकर भी ,
अर्थ से भरा सा ।
रुकता नही जो कभी,
वो जीवन से भरा सा ।
ओढ़ता अंबर वो ,
बिछौना धरा हरा सा ।
चला जहाँ से वो ,
आज वहीं खड़ा सा ।
हार कर भी वो ,
हालात से लड़ा सा ।
देखता "निश्चल" मन से ,
मानव से मानव ठगा सा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
चलता मैं जिस पथ पर ।
एकाकी मैं उस पथ पर ।
नही कहीं विश्राम कोई ,
संग्रामों से इस पथ पर ।
चलता मैं अथक निरंतर ,
जीवन के इस पथ पर ।
दीप्त रहीं कुछ आशाएँ ,
मुड़ते जुड़ते हर पथ पर ।
कुछ कंटक रहो पर भी ,
पुष्प खिले मोद निरंतर ।
तब तम साँझ ढ़ले भी ,
अहसास बना दिनकर ।
चलता मैं तम से तम तक ,
तम हरता रहा दिवाकर ।
अजित रहा जीवन पुष्कर ,
चलता मैं जीवन पथ पर ।
चलता मैं जिस पथ पर ।
एकाकी मैं उस पथ पर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
अपनी अपनी मर्जी ।
अपना अपना मन ।
बदली के छा जाने से ,
आता नही सावन ।
धरती भींगे वर्षा बूंदों से ,
भींगे न फिर भी मन ।
फूलों के खिल जाने से ,
खिलता नही गुलशन ।
तप्त धरा अंगारों सी ,
शीतल सी रही पवन ।
मधु मास के आने से ,
आता नही यौवन ।
जन्मा जीवन की खातिर ,
लेकर जन्मों के बंधन ।
एक राह रुक जाने से ,
रुकता नही जीवन ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
दिल नही कोई अब प्यास है ।
सफ़र जिंदगी भी एक आस है ।
यह मेरा बंजर ही खास है ।
पानी नही प्यास ही पास है ।
यह दृश्य राह में सूखे ठूंठों के।
अपनो से अपनो के रूठों से ।
तपता है सूरज पर चलता है ।
जलता है ढ़लता फिर निकलता है।
यह चन्दा शीतल प्यारा है ।
होता धीरे धीरे आधा है ।
तारे भी झिलमिल कब तक ?
देखो टूट रहे हैं जब तब ।
धरा घूम रही अपनी धूरी पर ।
थमी हुई है पर अपनी दूरी पर ।
जीवन कोई कमज़ोर नही ।
पतंग वही पर ड़ोर नई ।
थमी रहेगी गगन तब तक ।
ड़ोर मढ़ी जितनी फ़िरकी पर ।
कट जाएगी फिर उड़ जाएगी ।
अनन्त गगन में खो जाएगी ।
ड़ोर नई संग फिर वापस आएगी ।
बस यही ज़िंदगी कहलाएगी ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@....
कुछ यादों को ठंडा कर ,
कुछ वादों को गरमाना था ।
कुछ वादों की ख़ातिर ,
कुछ यादों को बिसराना था ।
साथ चले पग जिसके ,
साथ चले उसके जाना था ।
थामा है जिन हाथों को ,
उन हाथों का साथ निभाना था ।
संग चले बस उजियारो में ,
सांझ तले तो घर आना था ।
दुनियाँ की इन गलियों में ,
कहाँ कोई ठोर ठिकाना था ।
जीवन है सुख की ख़ातिर ,
दुःख को तो बिसराना था ।
डगर कठिन दुनियाँ की ,
राह सुगम एक बनाना था ।
भूल चले ठोकर राहों की ,
मंजिल पर बढ़ते जाना था ।
कुछ वादों की खातिर ,
कुछ यादों को बिसराना था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
ऐसा क्यों होता है ।
हरदम धोका सा होता है ।
पा जाने की खातिर ,
जीवन जीवन को खोता है ।
हँसता है वो रोता है ,
स्वप्न सलोना धोका है ।
भोर सुबह की चिंता में ,
वो रातों को न सोता है ।
हार नही एक हार से ,
जीवन तो मौका ही मौका है ।
सहज संजोता चल जीवन को ,
जीवन ने खुद को तुझमे देखा है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
छूट गए थे जो वक़्त की राहों में ।
मिल बैठे वो वक़्त के चैराहों पे ।
तारे चमके जग मग अँधियारों में ,
चन्दा डूबा भोर संग उजियारों में ।
देखो रात चाँदनी सोई कैसे,
अब सूरज की तपती बाहों में ।
सूरज भी डूब चला है अब ,
शान्त निशा की छाँओं में ।
खोज रहा ज़ीवन जिसको ,
मिलता वो जीवन की राहों में ।
साथ निशा के बस चलता जा ,
उजियारे मिलते तम की आहों में ।
छूट गए थे जो वक़्त की राहों में ,....
.......विवेक दुबे©.....
नींद नही आती अब ,
पलकों पे रात बिताने को ।
रोतीं रातें क्यों अब ,
शबनम के अहसासों को ।
भूल गई क्यों अब,
अलसाए इन भुनसारों को ।
खोज रहा अंबर अब ,
तिमिर सँग चलते तारों को ।
नींद नही आती अब,
पलकों पे रात बिताने को ।
भूल रहे क्यों अब,
अपने ही अपने वादों को ।
रुके कदम क्यों अब,
पाते ही मुश्किल राहों को ।
एक अकेला चल न पाएगा ,
बीच राह में थक जाएगा ।
कैसे अपनी मंजिल पाएगा ।
आजा तू साथ बिताने को ।
नींद नही आती अब ,
पलकों पे रात बिताने को ।
छोड़ राह मुड़, तू जाना ।
आधी राह चले , तू आना ।
कुछ दूर चले भले कोई ,
जा फिर , वापस आने को ।
राहों से बे-ख़बर नही मैं ,
एकाकी इस जीवन में ,
साथ चले बस मेरे कोई ।
मंजिल तो एक बहाने को ।
नींद नही आती अब,
पलकों पे रात बिताने को
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
उसको छोड़ चला था धीरे से वो ।
जिसके साथ न कोई बहाना था ।
करे प्रयाश्चित अनचाही भूलों का ,
अब शूल उसे बस चढ़ जाना था ।
रीता था वो अन्तर्मन से धीरे धीरे ,
बाहर मन उसको बिसराना था ।
लगता पल भर में मिथ्या सब ,
खोज सत्य उसे अब लाना था ।
यक्ष प्रश्न बना खड़ा था जीवन ,
हल स्वयं से जिसका पाना था ।
उसको छोड़ चला था धीरे से वो ,
जिसके साथ न कोई बहाना था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
हाँ मुझे आँगे बहुत जाना है ।
दूर निकल बहुत जाना है ।
निकल दूर बहुत अपनों से ,
दिल अपनों का दुखाना है ।
लौटूँगा फिर एक दिन में ,
जब एकाकी हो जाना है ।
स्वप्निल स्वप्न सजाना है ,
वापस मुझको फिर आना है।
नींद तो एक बहाना है ।
माटी को माटी हो जाना है।
मौत तो एक बहाना है,
जीवन एक ठिकाना है ।
आना है और जाना है ,
साश्वत सत्य पुराना है ।
हाँ मुझे बहुत आँगे जाना है ।
... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
वक़्त चलता है इंसान का ।
आता है कभी भगवान सा ।
मंजिल चली आती चलकर,
लगता जीवन आसान सा ।
आता है कभी शैतान सा ।
हर सहारा भी बे-काम सा ।
छूटता सहारा बीच राह में ,
गुम होता हर मुक़ाम सा ।
......
आता अगला पल अगले पल ।
बीत रहे यूँ ही पल हर पल।
सरगम सजती साँसों की ।
जीवन के कुछ मधुर पल ।
जीते हैं पल प्रति पल ।
याद नही बीता कल ।
याद नही आता कल ।
जीवन एक सरिता सा ,
बहता कल कल "निश्चल" ।
..... विवेक दुबे"निश्चल" ...
जीवन संग्रामों से हार नही मानूँगा ।
दुर्गम राहों पर विश्राम नही मागूँगा ।
चलता हूँ अथक निरन्तर पथ पर ,
ज़ीवन पथ से मुक़ाम नही मागूँगा ।
हार रहीं है प्रति पल अभिलाषाएं ,
आशाओं से प्रमाण नही मागूँगा ।
मैं ज़ीवन को जीने की खातिर ,
ज़ीवन को अभिमान नही मानूँगा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
वक़्त नही था जब मुझ पर ,
देख रहा था वो मुड़ मुड़कर ।
पास नही जब कुछ खोने को ,
मांग रहा कुछ मुझसे देने को ।
कैसे दूँ मैं उत्तर कुछ जीवन पश्नो के ,
बे-उत्तर रहने दो कुछ जीवन प्रश्नों को ।
ढल रही है अब स्वर्णिम सन्ध्या ,
खुश होने दो भोर तले दिनकर को ।
ले मौन चला पथ पर यह जीवन ,
मस्त किलोल होने दो जीवन को ।
इस सन्ध्या से उस सन्ध्या तक ,
जगमग होने दो दिनकर को ।
जीवन की ख़ातिर खोने दो जीवन को ।
जीवन का बस होने दो जीवन को ।
सतत क्रम यही नियत नियति का ,
नियत निरन्तर होने दो नियति को ।
...... विवेक दुबे"निश्चल"@...
चलता तू जिस पथ पर ।
पुष्प लगता तू उस पथ पर।
कांटे चुनता तू उस पथ के ।
चुनता पत्थर उस पथ पर ।
कदम कदम सजाता तू ,
सहज सहज पग रखता पथ पर ।
मन्दिर कई बनाता तू ,
वन बाग सजाता तू पथ पर ।
कोई पथिक जो आए कभी ,
बिताए कुछ पल इस पथ पर ।
पा जाये कुछ विश्राम यही ,
आसान सफ़र बने इस पथ पर ।
फिर भी है एकाकी तू ,
चलता अपनी धुन में तू इस पथ पर ।
खोया खोया अपने एकाकीपन में ।
कुछ अपनी कुछ पथ की उलझन में ।
हाँ एकाकी तू , बस एकाकी तू ।
तू अपने इस जीवन पथ पर ।
......विवेक दुबे "विवेक"©....
जीवन के इस पड़ाव पर।
तिनको से बिखराब पर ।
हर दिन मिलते ज़ख्म नए,
कुछ अन सूखे घाव पर ।
सूख न पाया पिछला ही ,
मिलता नया जख़्म घाव पर ।
अभी ज़ख्म था भरा नही ,
मरहम लगाने के भाव पर ,
चलती फिर नर्म हवा ,
बनता ज़ख्म दोहराब पर ।
वो खुरच गए फिर ज़ख्म बही
दे गए ज़ख्म नया घाव पर ।
..... विवेक ..
एक प्रेत जगा अभिलाषाओं का ।
कुछ मृत आस पिपासाओं का ।
आ कर बैठा है जो कांधों पर ,
प्रश्न पूछता आधे छूटे वादों का ।
ले मौन , चला मंज़िल अपनी ,
हृदय मन फ़ौलाद इरादों सा ।
मार दिए जो सपने उसने अपने ,
ठोकर कदमों से ख़ाक उड़ाता सा ।
...
ले आशाएँ अभिलाषाओं सँग जागा सा।
लेकर जीवन को "निश्चल" वो भागा सा ।
ठहरी नही कभी जो "निश्चल" रहकर ,
जीवन को जीवन से वो देता काँधा सा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
आशाएँ अभिलाषाएँ ही जागतीं हैं ।
यह ज़िंदगी तो "निश्चल" भागती है ।
ठहरती नही कभी निश्चल रहकर ,
ज़िंदगी को ज़िंदगी कब बांधती है ।
....
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज अंबर भी झुकता है ।
भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
सूरज जिस बीच मचलता है ।
एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
सूरज भी अस्तांचल चलता है ।
जीवन कहीं राह रुका नही,
राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
जीवन तो फिर भी चलता है ।
साहिल की चाहत में हरदम ,
सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
मिलने चँदा साँझ निकलता है ।
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
न यह मन कचोटता है ।
न यह दिल ममोसता है ।
चलता था उजालों सँग ,
साँझ सँग जीवन लौटता है ।
क्या पाया क्या खोया ,
हाथ नही अब कुछ ।
जीवन सँग यादों के ,
बस यादों में लौटता है ।
.....
पूछता लिखकर कुछ सवाल ।
हिसाब का हिसाब पूछता है ।
याद न हुए हिसाब कभी ,
जीवन दो का भाग पूछता है।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
जलता सूरज चलता सूरज ।
उगता सूरज ढ़लता सूरज।
मिलन निशा तरसा सूरज।
संध्या सँग भटका सूरज।
अंबर पर चलता चँदा।
पल पल रूप बदलता चँदा।
ढ़लता फिर खिलता चँदा।
छलता बस छलता चँदा।
क्यों बल खाती धरती।
साँझ सबेरे भरमाती धरती।
शीतल तरल सरल कभी,
क्यों तप जाती धरती।
प्रश्न घनेरे मिलते हैं ।
प्रश्न नही क्यों सुलझे हैं।
एक जीवन की खातिर,
जीवन में क्यों उलझे हैं।
...विवेक दुबे"निश्चल"@....
भाव लिए अखण्ड डूबा कंठ कंठ ।
लिखे गीत प्रीत के बिखरे खंड खंड।
नीर बहा श्याम सा नैनन अभिराम सा,
हर गीत की प्रीत के पूर्ण विराम सा ।
जागा भाव कलम के विश्राम का ।
अंत यही जीवन के हर संग्राम का ।
जीवन के हर संग्राम का .....!!
... "निश्चल" *विवेक* ....©
हारा चलते चलते ,
राह गुमी मंजिल से मिल के ।
बीत रहा जीवन ,
जीवन को छलते छलते ।
पाँव तले जमीं न थी तब ,
पाँव जमीं से थे न मिलते ।
खोज रहा है आज जमीं वो ,
पाँव थके हैं अब चलते चलते ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
न कोई आशा
न अभिलाषा
न कोई निराशा
न मन भरमाता
न तू बौराता
न घबराता
बस जीवन पथ पर
चलता जाता
चलता जाता
ओ पथिक तू
मंजिल पा जाता
मंजिल पा जाता
.....विवेक...
जय पराजय से रहें परे ।
नित आगे ही बढ़ते रहें ।
बिन हारे थके बिन चलें।
नव प्रभात के आँचल तले ।
एक आस जगे उत्साह मिलें ।
नव जीवन के आयाम मिलें ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"©...
भटका चलते चलते जीवन की गलियों में।
खोज रहा खुद को मैं मन की गलियों में।
जटिल बड़ी भूल भुलैया इस जीवन की ,
कैसे गुजरुँ जीवन की उलझी गलियों में।
प्रश्न यही एक आता हर चौराहे पर,
कब तक गुजरुँ फिर इन गलियों में ।
आता जाता फिर मुड़ मुड़ जाता ,
आंत हीन जीवन की गलियों में।
भटका चलते चलते..
..."विवेक दुबे"निश्चल"@....
चलता जाता तू जिस पथ पर,
पुष्प लगाता तू उस पथ पर ।
चुनता जाता पग-पग काँटे ,
निष्कंटक करता तू हर पथ ।
चलता जा निःस्वार्थ भाव से ,
पल हर पल तू जीवन पथ पर ।
विश्राम न करना हे मानव,
"निश्चल" इस जीवन पथ पर ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@...
साध्य से साधना ,
आराध्य से आराधना ।
भाव से भावना ,
प्रेम से प्रार्थना ।
हृदय से पुकारना ,
उसे ना बिसराना ।
बन जायेगा तब ,
जीवन मन भावना ।
......विवेक दुबे"निश्चल'©.....
सहसा पसरता मौन नही ,
मौन के अंदर मौन नही ।
ध्वनित हुआ एकाकीपन ,
अंतर् उतरी एक हलचल ।
जाना तब उस महान को ।
क्षण भंगुर जीवन ज्ञान को ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
एक स्मृति मेरी माँ
जिसकी स्मृतियाँ ही शेष हैं ।
उसके बस यही अवशेष हैं ।
जी गई जीवन संघर्षो को ,
सर पे आशीष अब शेष है
उसके बारे में लिखने को ,
पास मेरे शब्द नही शेष हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
माँ की दुआओं के, यूँ असर होते हैं ।
ठाँव खुद चलकर ,पास नजर होते हैं ।
तपती धूप जब , जीवन राहों की ,
बन माँ का बन आँचल , बादल होते हैं ।
हो जाता शीतल , चाँद सा सूरज भी ,
जो दखल माँ के , आशीषों के होते हैं ।
ललायित है, स्वयं विधाता भी ,
अवतरित माँ के ,आँचल जो होते है ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
.15
.... वात्सल्य माँ का ...
चलती वो अँधियारों संग ,
अपने अँधियारे लेकर ।
चलती अथक भाव से ,
उजियारों की ख़ातिर ,
उजियारों से लड़कर ।
पिसती जीवन की ख़ातिर ,
जीवन में खुद घिसकर ।
हँसती ही रहती हर दम ,
अपने अश्रु स्वेद पीकर ।
वात्सल्य मयी मूरत ममता की,
सो जाती रातों को पानी पीकर ।
खोती अपने सपनो को ,
लोरी संग सपने देकर ।
सोई नही कितनी रातों को ,
वो मुझको थपकी देकर ।
चुनकर लाती फूलों को ,
कांटो पर वो चलकर ।
रहे सदा ही पथ रोशन ,
उजियारे खोती उजियारे देकर ।
देती शीतल छाया आँचल की ,
खुद अपनी छाया खोकर ।
स्तब्ध निगाहें भर आतीं ,
देखे जो हल्की सी ठोकर ।
हँसती ही रहती हरदम वो,
चुपके से रातों में रो कर ।
बहती हर पल सरिता सी ,
ममता की सरिता बनकर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
17
मनचाहा बरदान मांग लो ।
अनचाहा अभय दान माँग लो ।।
होंठो की मुस्कान माँग लो ।
जीवन का संग्राम माँग लो ।।
सारा पौरुष श्रृंगार माँग लो ।
साँसों से प्राण माँग लो ।।
बस हँसते हँसते हाँ ।
कभी न निकले ना ।।
कुछ ऐसा होता है पिता ।
क्या हम हो सकेंगे कभी ?
इस ईस्वर के आस पास कहीं ..
शायद समझ सकें ,
तब कुछ हम भी ,
क्या होता है पिता ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@....
जन्म न व्यर्थ बेकार करें ।
मानवता का श्रृंगार करें ।
तिमिर तले कुछ प्रकाश गढ़ें ,
ऐसे हम कुछ प्रयास करें ।
जलकर अपने स्वार्थ तले ,
जीवन अपना न बर्वाद करें ।
निकलें हम कूप कुंठाओं से ,
नदिया नीर सा विस्तार करें ।
बहकर कल कल हर पल ,
जलधि का हम श्रृंगार करें ।
खोकर अचल जल अंनत में ,
"निश्चल" वर्षा बूंदों का आधार बनें ।
जन्म न व्यर्थ बेकार करें ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
675
शब्द हीन संवाद गढ़े है ।
दृष्टि ने कुछ भाव पढ़े है ।
प्रणय निवेदन सी चितवन,
नयनों से वो नयन लड़े हैं ।
झंकारित सुर ताल हृदय के ,
वो दो पल अनमोल बड़े हैं ।
रिक्त नही मन उपवन कोना ,
मन आँगन कुसुम सुगंध झड़े हैं ।
बंधन ये जनम जनम के ,
पल्लब फिर एक हाथ जड़े हैं ।
मिलन नया फिर इस जीवन का ,
"निश्चल"मन तन साथ सँग बड़े है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
(पल्लब/ एक तरह का कंगन)
.. जीवन संगनी तू ..
रागनी तू अनुगामनी तू।
राग तू अनुरागनी तू ।
चारणी तू सहचारणी तू।
शुभ तू शुभगामनी तू।
नैया तू पतवार तू ।
सागर तू किनार तू ।
प्रणय प्रेम फुहार तू ।
प्रकृति सा आधार तू ।
प्रीत का प्रसाद तू ।
सुखद सा प्रकाश तू ।
खुशियों का आकाश तू।
"विवेक" का विश्वास तू ।
सँग तू साथ तू ,साँस साँस तू ।
हृदय भरा "निश्चल" उल्लास तू ।
सजीव जीवन संगनी तू ।
सुखी जीवन आधार तू।
.. विवेक दुबे "निश्चल"©,...
जीवन की इस
मृग मरीचिका का ,आकर्षण।
तेरा मन, मेरा मन,यह पागलपन ।
कैसी यह ,
मन की ,मन से उलझन ।
उठती गिरती साँसे ,
घटती बढ़ती धड़कन ।
सूनी आँखे ,नेह भरी आँखे ।
कैसे सुलझे यह उलझन
तेरा मन, मेरा मन ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
...गृहस्थ जीवन...
वो नदिया के दो किनारों से ।
बीच सँग बहती धारों से ।
छूते लहरें धाराओं की ,
कुछ खट्टे मीठे वादों से ।
प्रणय मिलन की यादों सँग,
घटती बढ़तीं धारों से ।
सप्तपदी जीवन नदियाँ में,
टकराती मिश्रित धारों से ।
सहज रहे हैं समेट रहे हैं ,
अपनी स्नेहिल बाहों से ।
भींग रहे हैं पल हर पल ,
लिपटे चिपटे आभासों से ।
वो नदिया के दो किनारों से।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
मुड़ जाना है , बूंद बूंद उड़ जाना है ।
एक ठिकाना है,जीवन आना जाना है ।
करता है क्यों मनमानी तू बन्दे ,
साथ नही कुछ, लेकर जाना है ।
पूंजी यही है बस शब्दों की ,
शब्द शब्द रच बस जाना है ।
याद रहें आते कल तक जो ,
शब्द कोई ऐसे गढ़ जाना है ।
अंबर से आती बूंदों को ,
उर्वी की प्यास बुझाना है ।
सागर की इन बूंदों को ,
फिर साग़र हो जाना है ।
जीवन बस आना जाना है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
चल तेज तेज कदमों से, कदमों के आगे ।
रात धरा से मिलकर ,दिनकर को मांगे ।
सहज रही है साँझे, जिसकी रश्मि को ,
क्षितिज तले भरकर, रातों की बाहें ।
चंद्र चलेगा चंचलता से, जिसको लेकर ,
मचल चाँदनी यौवन ,रूप धरा का मांगे ।
निहार बिखेर चली,यामिनी वसुधा पर ,
रूप सलोना,अंग अंग वसुधा का साजे ।
सकल नियति सृष्टि, सजती पल पल ,
क्षण क्षण रूप नया , सा गढता जावे ।
चलता है एक क्रम ,जीवन का क्रम से ,
कदम कदम ,जीवन जो चलता आगे ।
पाता है जीव ज़रा , जरा लांघकर ,
बाल युवा योवन भी, ढलता जावे ।
खेल रही सतत नियति निरन्तर ,
वो गढ़कर मिट्टी को जीव बैठावे ।
छोड़ चले एक दिन जो मिट्टी को ,
"निश्चल" रूप नया फिर गढ़कर लावे ।
...विवेक "निश्चल"@..
जीवन चलता चल है ।
जीवन भी तो जल है ।
ठहर नही तू छाँव तले ,
साँझ ढ़ले होता कल है ।
ढल जाता चलकर ही ,
आगम अगला पल है ।
सत्य नही ये कुछ भी ,
फ़िर ये कैसा छल है ।
जीवन की सरिता में ,
जीव सदा निर्मल है ।
अबूझ नही प्रश्न कोई ,
प्रश्न सभी का हल है ।
भृम भान यही भरता ,
निर्गम भी "निश्चल" है ।
......
बातों की ही बस बातें हैं ।
उलटे पड़ते अब पांसे है ।
करते बातें मीठी मीठी ,
समझ रहे सब झांसे है ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@...
उसमे भी तो जीवन था ।
जीव नही जिस तन था ।
शृंगार रहा वो भी सृष्टि को ,
धूल धरा सा रजः कण था ।
नीर झरे उठके अंबर से ,
प्रणय मिलन सा तन मन था ।
पोषित करता अंग अंग को ,
पोषण भी तो एक जीवन था ।
पूर्ण रही सतत नियति नियम से ,
पूर्ण सभी नही कही अकिंचन था ।
"निश्चल"स्थिर निज भाव सदा ,
गतिमान हरदम अन्तर्मन था ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
अकिंचन/महत्वहीन
कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।
उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।
शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।
लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।
सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।
बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।
हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।
टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।
भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
चलो साथ किनारों पे ।
अपनो के दुलारों से ।
पार हुआ हर दरिया ,
तिनको से सहारों से ।
..
सँग मिला दिन भर ,
ताप मिले नजारों से ।
साँझ ढ़ले घर लौटें ,
अपनी सी पुकारो से ।
जीवन की बगियाँ में ,
पुष्प यहीं बहारों से ।
खोज रहे है गुपचुप ,
तन मन के इशारों से ।
चलो साथ किनारों पे ।
अपनो के दुलारों से ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
सबकी अपनी अपनी व्यथा है ।
ये जीवन एक तार्किक कथा है ।
रिक्त रहा कुछ मन मौन धरा है ।
एक तन उजला व्योम भरा है ।
रंग रंग से हर रंग सटा है ।
जीवन रंगों की रंगीन लता है ।
है रंग अधूरी कही कोई छटा है ।
हम जाने कैसे कौन रंग घटा है ।
कब कुछ क्या होता है ।
कुछ क्या कब होना है ।
छूट रहे कुछ प्रश्नों में ,
एक प्रश्न यही संजोना है ।
गूढ़ नही कही कुछ कोई ,
रजः को रजः पे सोना है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
615
पल पल के पल ।
पलको पर ये पल ।
आज तले वो बीते ,
गुजरे आते जो कल ।
छिटक चाँदनी चँदा से,
निहार चली जमीं तल ।
कर शीत हृदय धरा का ,
रुन्दी कदम अगले पल ।
पल पल के पल ।
पलको पर ये पल ।
उदित चला दिनकर ,
लेकर नव चेतन बल ।
दे चेतन जड़ चेतन को,
साँझ तले जाता छल ।
पल पल के पल ।
पलको पर ये पल ।
जीवन भृमित आभा से ,
खो जाता जीवन में ढल ।
सत्य मिला जब कोई ,
जीवन जीव गया निकल ।
पल पल के पल ।
पलको पर ये पल ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
614
कुछ कर लें ,
अपने मन की ।
डगर कठिन है,
इस जीवन की।
राह बदलतीं है ,
चौराहों पर ,
एक अनबन सी,
मन से तन की ।
दीप्त रहे फिर भी ,
ज्योत जले जीवन की ।
सिमेट चले तम को ,
दीप तले तम सी ।
आशाओं के हाथों ,
जीत हर से ,
खेल रही है ,
पल पल सी ।
डगर कठिन है ,
इस जीवन की।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
612
प्रफुल्लित हुए नयन ,
जब जब उसको देखा ।
शब्दों की शब्दो के,
बीच रही फिर भी रेखा ।
नेह निमंत्रण नयनों का ,
नयनो ने नयनों को टोका ।
मूक रहे अधर हरदम ही ,
शब्दों ने शब्दो को रोका ।
भाव विकल पल मन के ,
पल पल छण को खोता ।
नयन रहे नम हर दम ही ,
पलकों ने नम को सोखा ।
फूटें नव अंकुर भावों के ,
भाव तले मन को वोता ।
जीव चला जीवन लेकर ,
"निश्चल" चल देता मौका ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
दौड़ रहे हैं अश्व मन आशाओं के ।
हाथ लिए ध्वज अभिलाषाओं के ।
उड़ती रजः इच्छाओं की टापों से ।
धूमिल नभ पथ पडता पद चापों से ।
राह जटिल है लक्ष्य कठिन है ।
जूझ रहा है मन झंझावातों से ।
काट रहा उलझी राह लता बेल को ,
वो अश्व आरोही आपने ही हाथों से ।
खोज रहा एक लक्ष्य नया फिर ,
खोकर नव जीवन की चाहों में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
596
क्रम जन्म जन्म चलता रहा ।
जीवन से जीवन मिलता रहा ।
एक आकार निराकार सा ,
स-आकार बदलता रहा ।
वसुधा पोषित सम भाव सभी ,
कण कण शृष्टि से पलता रहा ।
क्रम नियत यही नियंता का ,
रजः रजः में घुल मिलता रहा ।
घटना बदलती रही दृष्टि टलती रही ।
शृष्टि अपने ही क्रम से चलती रही ।
न आई वो घड़ी लौटकर फिर कभी ,
नियति हर पल करवट बदलती रही ।
लेती रही अद्भुत रूप हर पल शृष्टि ,
अनुपल विपल पल घड़ी चलती रही ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
नव बंदनवार लगाते रहे ।
स्वास्तिक द्वार सजाते रहे ।
दीप धरे कुछ द्वारे में ,
दृष्टि पसरे उजियारे रहे ।
नव जीवन की आशा में ,
बुझते दीप बने सहारे रहे ।
बीती गहन निशा धीरे से ,
उज्वल से कुछ भुनसारे रहे ।
प्रखर चेतना चेतन मन की ,
पर दीप तले अंधियारे रहे ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
वो हारता नही हालात से ।
वो जीतता सच्चे प्रयास से ।
नर्म हवाओं की पुकार से ।
फूट पड़ा अंकुर इस्पात से ।
जीवन भी कुछ ऐसे ही चलता है ।
सौ सौ तालों से जम जकड़ता है ।
कोशिश हर पल प्रतिकार की ।
चाहत एक ठंडी सी फुहार की ।
निकल जीवन दुर्गम राहों से ।
सजती सृष्टि रचना संसार की ।
चाहत एक जीवन की ख़ातिर ,
कोशिश फौलाद पर प्रहार की ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
1045
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
आश्रयहीन अभिलाषाएं ।
नभ विचरित पँख फैलाएं ।
निःश्वास प्राण सांसों में ।
लम्पित लता बांसों में ।
बस आशाएँ अभिलाषाएं ।
ओर छोर न पा पाएं ।
मन निर्बाध विचारों में ।
जीवन के सहज किनारों में ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
जब शशि गगन में आए ।
निशि तरुणी रूप सजाए ।
विधु भरता बाहों में ।
विखरें दृग कण आहों में ।
प्रफुल्लित धरा शिराएं ।
तृण कण जीवन पाएं ।
अचल रहा दिनकर राहों में ।
नव चेतन भर कर प्रानो में ।
नित माप रहे पथ की दूरी को ।
छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।
ये सतत नियति निरन्तर सी ।
काल तले करती न अंतर सी ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
392
.. जिंदगी....
आशाओं संग अभिलाषाओं से हारी है ।
नित् नए स्वप्न सजा दुल्हन सी साजी है ।
हो रहे पग घायल , पग घुंघरू बाँधे बाँधे ,
घुँघरू की थिरकन पर घुँघरू सी बाजी है ।
नित नित नव श्रृंगार सजाकर यह ,
आशाओं संग रक्कासा सी नाची है।
....
आशाओं सँग अभिलाषाओं से हारी है ।
...
लुटती है घुटती है यह हर थिरकन पर ,
अपनी थिरकन से फिर भी न हारी है ।
रूप रंग भर नव चेतन का तन मन में ,
प्रणय निवेदन सी पल पल जागी है ।
टूट रहीं छूट रही डोरे सांसों की ,
फिर भी जीवन चाहों में बाँकी है ।
....
नित नित नव श्रृंगार सजाकर ,
आशाओं संग रक्कासा सी नाची है।
...
आशाओं संग अभिलाषाओं से हारी है ।
नित् नए स्वप्न सजा दुल्हन सी साजी है ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
447
चल रात सिरहाने रखते है ।
उजियारों को हम तकते है ।
दूर गगन में झिलमिल तारे ,
चँदा से स्वप्न सुहाने बुनते है ।
सोई नही अभिलाषा अब भी ,
नव आशाओं को गढ़ते है ।
चल रात सिरहाने ...
थकता है दिनकर भी तो ,
साँझ तले क्षितिज मिलते है ।
नव प्रभात की आशा से ,
तारे चँदा के संग चलते है ।
टूट रहे अंधियारे धीरे धीरे ,
उजियारे तम में ही मिलते है ।
चल रात सिरहाने ...
जीवन की हर आशा को ,
दिनकर सा हम गढ़ते है ।
नव प्रभात की भोर तले ,
दिनकर सा हम चलते है ।
चल रात सिरहाने ..
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
वो रात बड़ी यह दिन छोटे से ।
वादों के अहसासों को खोते से ।
वादों के इस बंजर में ही ,
यादों को अक्सर बोते से ।
तप्त नीर नयन सींचे जिनको ,
कुछ कुम्हलाये अंकुर खोते से ।
सपनों के रैन बसेरों में ,
भोर भए तक रहते से ।
सांझ चली आने के पहले ,
पग पग ही चलते रहते से ।
हर सांझ एक नया ठिकाना ,
फिर नई सहर होने पहले से
बढ़ता चल यूँ ही मंजिल पे ,
सफ़र तमाम होने पहले से ।
जीवन की इन राहों में ,
"निश्चल"नही बिछौने से ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।
सहजे शब्द शब्द गढ़ कर ।
कुछ संग चले समय से ।
चले कुछ परे परे रह कर ।
कुछ आधे कटते अक्षर ।
पूर्ण हुए कुछ जुड़कर ।
कुछ धुंध हुए मिटते से ,
उभर रहे कुछ मिटकर।
जीवन की इन राहो पर ,
चलते हम यूँ ही अक्सर ।
अक्षर अक्षर सा कटता ,
जीवन का शब्द सफ़ऱ ।
कुछ बिखरे बिखरे अक्षर ।
... विवेक दुबे@...
468
मुखरित अविरल धाराएँ ,
आज हिमालय की ।
टूट रहीं हैं मर्यादाएं ,
अब मदिरालय सी।
खंडित आज हिमालय,
विस्मृत जल धाराएँ हैं ।
जीवन की ख़ातिर जीवन को,
आज भुलाएँ है ।
दृश्य तम नभ व्योम सी ,
रिक्त पड़ी अभिलाषाएं है ।
स्तब्ध श्वांस बस प्राणों में ,
रक्त हीन सी हुई शिराएँ है ।
ढलते दिनकर सी ,
क्षितिज तले अब आशाएँ है ।
भोर नही अब दूर तलक ,
गहन निशा बाँह फैलाए है ।
दिनकर के ही उजियारों में ,
दिनकर के ही अब साए है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
473
सूरज की साँझ तले ,
नया सबेरा गढ़ते है ।
गिरकर जो फिर उठ ,
भोर तले चल पड़ते हैं ।
जीवन पथ के अवसादों से ,
निर्भीक सदा रहा करते हैं ।
कंटक पथ पर चलकर जो ,
नव चेतन सृजन करा करते है ।
धेय्य यही बस बढ़ते रहना ,
वो विश्राम कहाँ करते हैं ।
वो सूरज की साँझ तले ,
फिर नया सबेरा गढ़ते हैं ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
17
घनश्याम छंद
विधान- [जगण जगण भगण भगण भगण गुरु]
(121 121, 211 211 211 2)
16 वर्ण, यति 6,10 वर्णों पर, 4 चरण,
2-2 चरण समतुकांत।
चला चल जीव, ये बस जीवन साधन हो ।
खिलें बस फूल, ये हर जीवन पावन हो ।
मिलें पथ मीत, तो क्षण ये मन भावन सो ।
बसे हर जीव, तो कण ये मन मोहन सो ।
बसी मन प्रीत, चाह नही अब ये कम हो ।
रचे मन गीत, साथ चलें जब प्रीतम हों ।
पिया मन झूम, साज गढ़े सुर ये तन तो ।
हिया मन मीत, दूर नही अब ये मन तो ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@.....
कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।
उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।
शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।
लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।
सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।
बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।
हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।
टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।
भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
ये मैं हूँ या वो मैं हूँ ।
वो मैं हूँ के जो मैं हूँ ।
जो मैं हूँ क्या वो मैं हूँ ।
वो मैं हूँ क्या जो मैं हूँ ।
गुंजित मन प्रश्न यही ,
कुछ छूट रहा यही कहीं ।
कुछ पा जाने की चाहत में ,
पाया ठौर नही कहीं ।
अभिलाषा के दिनकर सँग ,
प्रतिफ़ल की साँझ तले ।
ज़ीवन के इस परिपथ पर ,
ज़ीवन की हर साँझ ढ़ले ।
कुछ खोता हूँ, कुछ पाता हूँ ।
कुछ लाता हूँ, कुछ दे आता हूँ ।
एक प्रश्न यही पर मन मे ,
क्या पाता हूँ , क्या खो आता हूँ ।
इस एकाकी जीवन पथ पर ,
एकाकी ही तो आता जाता हूँ ।
एकाकी ही तो आता जाता हूँ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
जार जार जो हर बार चला है ।
फिर वो जो एक बार चला है ।
पी कर घूँट हलाहल मधु का ,
जीवन के भी जो पार चला है ।
निखर रहा है भोर तले भानु ,
किरण पथ को श्रृंगार चला है ।
तम की अभिलाषा में भी,
चँदा तारों का हार मिला है ।
चलकर पथ जीवन पर ही ,
स्वीकारित प्रतिकार मिला है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
बरस उठी बदरी बन बादल से ।
आस्तित्व खोजती वो क्षण में ।
उतर धरा पर जीवन कण में ।
छितरी बार बार बिन साजन के ।
बाँटा जीवन अवनि तन मन में ।
बहती चली फिर नदिया बन के ।
मिलने साजन सागर के तन से ।
लुप्त हुई अपने साजन तन में ।
जा पहुँची साजन सागर मन मे ।
बून्द चली मिलने तन साजन से ।
..... विवेक दुबे "निश्चल"©.....
..
वो नैना मन भावन से ।
कारे कजरारे सावन से ।
झपकें पलकें साजन की ।
बिजुरी चमके सावन सी ।
वो केश घनेरे काजल से ।
लहराते गहरे बदला से ।
भींगी लट जो साजन की ।
लहराती तब नागिन सी ।
खनकी पायल साजन की ।
रिमझिम बूंदे सी सावन सी ।
वो चितवन जीवन की ।
धडक़त मन चेतन सी ।
वो नैना मन भावन से ।
कारे कजरारे सावन से ।
... *विवेक दुबे"निश्चल* "@.
पाकर जिसने मुझको ,
खुद को खोया था ।
जीवन की खातिर ,
जीवन को खोया था ।
सजल नयन थे कितने ,
दृग कण भी रोया था ।
मुस्कान भरे अधरों पर ,
शब्द शब्द में खोया था ।
जीवन की खातिर ,...
छोड़ चले पग चिन्ह ही अपने ,
चिन्हों ने कदमों को खोया था ।
लिपटी दृष्टि बार बार यादों में ,
वादों ने यादों को खोया था ।
जीवन की खातिर ,...
छूटा वो आँचल आँगन भी ,
आँचल ने जिसे संजोया था ।
बातों को अब आँगन की ,
उसने यादों में बोया था ।
ज़ीवन की खातिर,..
छूटा आँचल माता का ।
छूटा आँगन प्यारा सा ।(पिता)
छूटीं सखी सहेली सब,
इतना ही नाता भ्राता का ।
याद रही बस बातों में ।
अहसास बसे सांसों में ।
यह कैसा रिश्ता साजन का ।
छोड़ चला घर माँ आँगन का ।
पाकर जिसने मुझको ,
खुद को भी खोया सा ।
जीवन की खातिर ...
जीवन को बोया सा ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@...
1021
जीवन नही कही सरल ।
चलना ही जिसका हल ।
घटता कुछ व्योम अंतरिक्ष में भी,
सागर तल में भी होती हलचल ।
घूम रही है ,वसुंधरा धूरी पर ,
परिपथ में,जाने कैसा बल ।
आई रजनी दिनकर के जाते ही,
चंदा सँग तारों की झिलमिल ।
नव प्रभात की ,आशा में ,
रजनी से भी, होता छल ।
बदल रहे है दिन, दिन से ही ,
यूँ होता, हर दिन का कल ।
जीवन नही कही सरल ।
चलना ही जिसका हल ।
....."निश्चल"@..
728
परिपथ पर जो , बढ़ता चलता है ।
दिन रात वही तो, गढ़ता चलता है ।
घूम रही धरती, अपनी ही धूरी पर ,
परिपथ साथ सदा, मढ़ता चलता है ।
चलती ही है यह, नियति निरंतर ,
जीवन पाठ यही, पढ़ता चलता है ।
जीव चले शृंगारित, ज़ीवन पथ पर ,
नित रतन नये , जड़ता चलता है ।
एक स्वर्णिम आभा, क्षितिज तले ,
साँझ तले जीव, बिछड़ता चलता है ।
पूर्ण हुआ पथ , जब चलते चलते ,
बनता न तब कुछ ,बिगड़ता चलता है ।
"निश्चल"अटल अचल है दिनकर तो ,
पर सचल सदा जड़ता करता चलता है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
1045
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
आश्रयहीन अभिलाषाएं ।
नभ विचरित पँख फैलाएं ।
निःश्वास प्राण सांसों में ।
लम्पित लता बांसों में ।
बस आशाएँ अभिलाषाएं ।
ओर छोर न पा पाएं ।
मन निर्बाध विचारों में ।
जीवन के सहज किनारों में ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
जब शशि गगन में आए ।
निशि तरुणी रूप सजाए ।
विधु भरता बाहों में ।
विखरें दृग कण आहों में ।
प्रफुल्लित धरा शिराएं ।
तृण कण जीवन पाएं ।
अचल रहा दिनकर राहों में ।
नव चेतन भर कर प्रानो में ।
नित माप रहे पथ की दूरी को ।
छोड़ रहे न जो अपनी धुरी को।
ये सतत नियति निरन्तर सी ।
काल तले करती न अंतर सी ।
एक विस्तृत नभ सम ।
भू धरा धरित रजः सम ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@....
बार बार प्रतिकार मिला ।
अपनो से ये उपहार मिला ।
संघर्षित इस जीवन पथ पर ,
पारितोषित बस हार मिला ।
स्वार्थ भरे रिश्ते नातों में ,
कुटिल नयन दुलार मिला ।
अपनो से अपनो के संवादों में,
शब्द शब्द व्यापार मिला ।
हर कांक्षित आकांक्षा में ,
अस्वीकारित स्वीकार मिला ।
पार चला जब मजधारो के ,
तब तट पर इस पार मिला ।
बार बार प्रतिकार मिला ।
अपनो से ये उपहार मिला ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
1039
खोजा करता हस्ति अपनी ,
पथ पर अपने चलता जाता ।
साँझ तले दिनकर छुपता ,
अँधियारो में मैं खो जाता।
उजियारों से थककर वो ,
अंधियारों में थकान मिटाता ।
हर रात निशा के आँचल में ,
वो जीवन फिर पा जाता।
सहज रही स्याह निशा उसको ,
अपनी छाया से भी छुप जाता ।
हार नही मानूँगा फिर भी मैं ,
खुद को अहसास दिलाता ।
कभी हार नही कभी जीत नही ,
जीवन में बस इतना ही पाता ।
चलना ही तो जीवन है ,
"निश्चल"भानू चलता जाता ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.
683
एक रजः कण यूँ तो अपूर्ण रहा ।
पर स्वयं में स्वयं वो परिपूर्ण रहा ।
घूणित द्रव्यमान अंतर् में जिसके ,
अंतर्मन ब्रह्मांड एक सम्पूर्ण रहा ।
करता जो हरदम श्रम क्षमता से ,
स्थिर केंद्र गतिमान वो घूर्ण रहा ।
थकित नही जो नियति नियम से ,
जीवन एक वो ही तो पूर्ण रहा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
775
रिश्तों के इस जंगल में ,
अभिलाषाओं के अंधड़ चलते ।
आश्रयहीन आशाओं से ,
स्वयं को स्वयं से छलते ।
भोर तले छूटे स्वप्न अधूरे से ,
साँझ तले निराशाओं में पलते ।
कुंठित है मर्यादाएँ रिश्तों की ,
नातों के आधार सभी हिलते ।
कम्पित है साँसे साँसों में ,
आकर जाते यौवन के ढलते ।
जीवन उपवन है काँटो का ,
फूल कम ही इसमें है खिलते ।
क्या सार यही है जीवन का ,
सब कुछ छूट गया मिलके ।
पाकर भी न पाया जैसे कुछ,
"निश्चल"खाली हाथ रहे मलते ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@...
मैं चलता रहा ।
वो चलाता रहा ।
जीवन से बस कुछ,
इतना ही नाता रहा ।
हँसता रहा हर दम ,
दर्द होंठों पे सजाता रहा ।
बाँट के खुशियां दुनियाँ को ,
दर्द दिल में छुपाता रहा ।
होती रही निगाहें नम ,
अश्क़ दरिया बहाता रहा ।
जाता रहा दर पे रिश्तों के
पर न किसी को भाता रहा ।
हो सके न मुकम्मिल रिश्ते ,
रिश्तों को रिश्तों से मनाता रहा ।
"निश्चल" बस बास्ते दुनियाँ के ,
अपनो को अपना दिखाता रहा ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
789
अपने ही प्रश्नों को हल करता हूँ ।
प्रयास सदा प्रति पल करता हूँ ।
पा जाऊँगा हल जीवन प्रश्नों का,
ख़ुद ही ख़ुद से छल करता हूँ ।
हार नही मानेगा जीव जनम से ,
जीवन का ऐसा फ़ल करता हूँ ।
स्वर्णिम कल की अभिलाषा में ,
स्नेहिल नयन सजल करता हूँ ।
काटेगें तम को फिर उजियारे ,
प्रयासों को उज्ज्वल करता हूँ ।
तरल रहे जीवन नीर नदी सा ,
जीवन को बहता जल करता हूँ ।
ठहराव नही हो कोई जीवन में ,
"निश्चल"जीवन को चल करता हूँ ।
अपने ही प्रश्नों को हल करता हूँ ।
प्रयास सदा प्रति पल करता हूँ ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
चकित हुआ चलकर ,
मोन तले बैठा सन्नाटा ।
आते कल की आशा में,
जीवन कटता ही पाता ।
ज़ीवन के इस पथ पर ,
ज़ीवन एकाकी आता ।
खोता है कुछ पाकर ,
खोकर फिर पा जाता ।
गूंध चला आशाओं को ,
ले अभिलाषाओं की गाथा ।
आश्रयहीन रहा नही कभी ,
देता जाता आश्रय वो दाता ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
696
चलती राहों का एक मुहाना होना है ।
गहरी रातों का भोर सुहाना होना है ।
इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।
अहसासों की इन उलझी डोरों में ,
डोर कोई अब नई नही पिरोना है ।
जीवन के मनके मन के धागों से ,
अब जीवन मन में ही पिरोना है ।
चल अब तुझको खुद का होना है ।
अहंकार के इस बियावान वन में ,
अब स्वाभिमान तुझे संजोना है ।
हार रहा तू नाते रिश्ते चलते चलते ,
जीत तले स्वयं को स्वयं का होना है ।
इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
राग नही हो कोई द्वेष नही मन में ,
अब राग रहित ही तुझको होना है ।
खोकर दुनियाँ को दुनियाँ में ही ,
अब ख़ुद को ख़ुद में ही खोना है ।
भटक रहा जो मन चलते चलते ,
"निश्चल"मन अब तुझको होना है ।
इस दुनियाँ का होकर देख लिया ,
चल अब तुझको खुद का होना है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
721
कुछ बांधे बंधन ।
कुछ काटे बंधन ।
जीवन की आशा में,
दग्ध हृदय तपता तन ।
एक साँझ तले ,
मिलता जीवन ।
तरुवर की छाँया में ,
शीतल उर "निश्चल"मन ।
...विवेक दुबे "निश्चल"@..
तरुवर-- परमात्मा ब्रम्ह
उर -- हृदय
703
ये क्या है ,जो ये क्या है ।
वो क्या है ,जो वो क्या है ।
सब सत्य नही जीवन के ,
नही कहीं कुछ तो क्या है ।
खोज यही नित मन की ,
मन पार चलें जो क्या है ।
जीत रहा मन जीवन को ,
जीव ढ़ले होता सो क्या है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
740
तब कहाँ चला रे तू ।
अब कहाँ मिला रे तू ।
खोता ज़ीवन से जीवन ,
ज़ीवन से कहाँ भरा रे तू ।
कटती है ये रात सुहानी ,
भोर तले कहाँ ढला रे तू ।
जब ढ़लता है साँझ तले ,
ताप अधूरा कहाँ धरा रे तू ।
सुनता है मौन सभी को ,
मन शब्दों को कहाँ भरा रे तू ।
कह न पाए बात ज़ुबानी,
"निश्चल" रहा कहाँ खरा रे तू ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
769
मेरा मन्दिर मेरे आंगन में ।
तेरा मन्दिर तेरे आंगन में ।
बरसे कृपा उसकी हरदम ,
जैसे बूंदे बरसें सावन में ।
वो नाप रहा है भांप रहा है ,
उतरा कितना मन वर्तन में ।
समय लगा है क्षण भर का ही,
भरने कृपा उसकी जीवन में ।
साथ चला है वो हरदम तेरे ,
न ला संसय तू कोई मन में ।
बीतेगा ये कठिन समय भी ,
"निश्चल"फूल खिलेंगे मधुवन में ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
आशाओं के एहसासों से ,
अभिलाषाओं की भोर खिली ।
स्वप्न संजोने उज्वल कल के,
साँझ किनारे रात मिली ।
गुजर चला जीवन जीवन मे से ,
"निश्चल" मन बनकर ,
दूर क्षितिज की स्वर्णिम आभा ,
नव जीवन की आस बनी ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
खत्म हुआ अब सब ,
बस फ़र्ज निभाना बाँकी है ।
जीवन के मयखाने में तू ,
खुद ही खुद का साकी है ।
मदहोश नही है रिंद यहाँ ,
फिर भी उसको होश नही ,
सुध खोई रिश्तों की मय पीकर ,
बस इतना ही ग़ाफ़िल काफी है ।
सोमपान सा रिश्तों का रस ,
जिस मद के अपने ही साथी है ।
आती मयख़ाने में रूह रात बिताने को,
लगती जिस्मों में रिश्ते नातों की झाँकी है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@....
1006
प्यार का इज़हार कर न सका ।
दर्द का व्यापार कर न सका ।
हारता रहा हालात से हरदम,
झूँठ पे इख्तियार कर न सका ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@...
411
कम शब्दों को लिखकर मैं ,
गहरे भाव सजाता हूँ ।
खोजा करता हस्ति अपनी ,
दिनकर सँग चलता जाता हूँ ।
साँझ तले दिनकर छुपता ,
अँधियारो में मैं खो जाता हूँ ।
उजियारों से थककर मैं ,
अंधियारों में थकान मिटाता हूँ ।
हर रात निशा के आँचल में ,
मैं जीवन फिर पा जाता हूँ ।
सहज रही स्याह निशा मुझको ,
अपनी छाया से भी छुप जाता हूँ ।
हार नही मानूँगा फिर भी मैं ,
खुद को अहसास दिलाता हूँ ।
कभी हार नही कभी जीत नही ,
जीवन में बस इतना ही तो पाता हूँ ।
चलना ही तो जीवन है ,
"निश्चल" चलता ही जाता हूँ ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@..
788
जय पराजय से परे चलें ।
नित आगे पग धरे चलें ।
एक आस जगे उत्साह मिलें ।
नव जीवन के आयाम मिलें ।
बिन हारे थके निश्चल चलें।
नव प्रभात के आँचल तले ।
पथ प्रशस्त की भोर खिले ।
उज्वल कल की और चलें ।
अभिलाषाओं के फ़ूल खिले ।
नव आशाओं के दीप जले ।
कुंठाओं को हम जीत चले ।
पुलकित मन नव वर्ष तले ।
....विवेक दुबे "निश्चल"@..
नव बंदनवार लगाते है ।
स्वास्तिक द्वार सजाते है ।
दीप धरे कुछ द्वारे में ,
दृष्टि पसरे उजियारे है।
नव जीवन की आशा में ,
बुझते दीप बने सहारे है ।
गहन निशा बीते धीरे से ,
उज्वल से कुछ भुनसारे है ।
प्रखर चेतना चेतन मन की ,
पर दीप तले अंधियारे है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
भद्र सभ्यता अभद्रता पर पर्दा डाल चली सी।
भृमित सभ्यता भटक राह चली सी ।
होकर पथ भ्रष्ट अपने पावन पथ से ,
दानव सी मानव को काट चली सी ।
जूझ रहीं है सांस सांस प्राणों से ,
जैसे प्राणों की अब सांझ ढली सी ।
प्रश्न खड़ा है अब आगे मानव तेरे ,
क्यो तूने अपने जीवन पे घात चली सी ।
भूल गया तू अपनी ही सीमा को ,
रेखा लक्ष्मण की तू ने पार करी सी ।
मौन खड़ा है अब नियति नियंता भी,
"निश्चल"नियंता को तेरी बात खली सी ।
भद्र सभ्यता अभद्रता पर पर्दा डाल चली सी।
भृमित सभ्यता भटक राह चली सी ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@....
691
गुजर गया जो वो जाने दो ।
नव आगंतुक को आने दो ।
टीस रहे न कोई मन में ,
एक जशन नया मनाने दो ।
गुजरे से आधे किस्सों से ,
फिर रिस्ता नया बनाने दो ।
नेह नयन के सागर से ,
प्रीत सीप चुन लाने दो ।
बैर भाव को तज कर ,
प्रेम राग गीत गाने दो ।
नये बरस की छांव तले ,
नव पल सुखद बिताने दो ।
धूप सुनहरे जीवन में ,
जीवन को बिसराने दो ।
आने दो आकर जाने दो ,
"निश्चल"चल कहलाने दो।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
705
मैं शोर नही मंचो का ,
नही कही मैं बजती ताली हूँ ।
फूल नही मैं मधुवन का,
नही कही मैं कोई माली हूँ ।
शब्दों के इस उपवन का,
मैं छोटा सा एक हाली हूँ ।
मैं प्याला हूँ शब्दों का,
नही कभी भावो से खाली हूँ ।
सहज रहा हूँ शब्द शब्द को ,
अन्तर्मन की भरता प्याली हूँ ।
-----
चल कलम तले कागज़ पर ,
मैं मौन सदा कहलाता हूँ ।
भरकर भाव भरे मन को,
भावों को मैं जीता जाता हूँ ।
टीस उठे जब मन में कोई ,
मैं शब्दों से मन बहलाता हूँ ।
घाव मिले व्यंगों के बाणों से ,
शब्दो से घावों को सहलाता हूँ ।
गरल भरे इस जीवन पथ पर ,
"निश्चल"शब्द सुधा पीता जाता हूँ ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें