वक़्त वही रहता इंसान बदलते हैं ।
पाषाण वही रहता भगवान बदलते हैं ।
होती है हाथों में ------ लकीरें सबके ,
फिर भी हाथों के अंजाम बदलते हैं ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
इंसान को इंसान का चेहरा चाहिए ।
हर चेहरे पर अपना पहरा चाहिए ।
झुकती है वो निग़ाह ही अदब से ,
उसकी शान में कुछ अदा चाहिए ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
इंसान बदल जाता है ,
या वक़्त बदलता है ।
ये फैसला भी क्यों ,
वक़्त पर टलता है ।
बदलती है करबट ,
धरा ही सामने जिसके ,
वो सूरज तो ठहरा है ,
लगता जो चलता है ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.....
अपने अरमानों से अब डर लगता है ।
अपनी पहचानो से अब डर लगता है ।
आदम जात नही जानी पहचानी सी ,
इंसानी इमानो से अब डर लगता है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।
यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
कहला सका न आदमी वो कभी ,
वो भी तो आखिर एक इंसान था ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
हर्फ़ हर्फ़ जिंदा ना रहे ।
इतना वो शर्मिंदा रहे ।
कह गए हालात-ए-हक़ीक़त,
इंसान मगर संजीदा ना रहे ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
चल आ वर्तमान के सफर पर ।
इंसान की पहचान के सफर पर ।
छोड़ ख़याल ख़्वाब के पिंजरे में ,
बढ़ता चल ईमान के सफर पर ।
........ विवेक दुबे"निश्चल"@..
कह गया बात वो,
ईमान से ईमान की ।
नही कोई जात,
इंसान की पहचान की ।
बदलता है रंग ,
अक्सर खुदगर्ज़ी के वो ,
है नही फ़िक़्र उसे ,
क्यों उस जहान की ।
-----.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
यूँ बदलता रंगत , इंसान गया ।
जो बदलता , अहसान गया ।
रह गया दौर , ख़ुदगर्ज़ी का ,
क्यूँ जात इंसां से, ईमान गया
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
पाता रहे सहारा , इंसान आदमी का ।
होता रहे दुलारा , ईमान आदमी का ।
रंगीन रौशनी से , हो कायनात सारी ,
पाता रहे किनारा,गुमान आदमी का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
इंसान ज़िस्म तेरी,चाहत नही बदलती ।
ईमान रूह मेरी,सोवत नही बदलती ।
करती रही सफ़र,यूँ ही जिंदगी अधूरा ,
ये शौक हैं पुराने,आदत नही बदलती ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
वक़्त चलता है इंसान का ।
आता है कभी भगवान सा ।
मंजिल चली आती चलकर,
लगता जीवन आसान सा ।
आता है कभी शैतान सा ।
हर सहारा भी बे-काम सा ।
छूटता सहारा बीच राह में ,
गुम होता हर मुक़ाम सा ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
चेहरे ही बयां करते है,
इंसान के हुनर को ।
नजरें ही पढा करतीं हैं ,
हर एक नज़र को ।
क्यों इल्ज़ाम फिर लगाएँ ,
इस मासूम से ज़िगर को ।
दिल झेलता है फिर भी,
दर्द के हर कहर को ।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।
शब्दों ही ,ने उलझाया ,
शब्दों के असर को ।
मिलें सब जिस नज़र में ,
कहाँ ढूंढे उस नज़र को ।
मासूमियत ने देखो ,
किया ख़त्म , हर असर को।
चेहरे ही बयां करते हैं ,
इंसान के हुनर को ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
दोष देता इंसान इंसान को ।
जान मान बैठा बस जान को ।
भूल कर उस भगवान को ।
रचा है जिसने सारे जहां को ।
कर प्यार बस तू उस महान को ।
सुधार दे जो इस जहां उस जहां को ।
हृदय बसा बस उस भगवान को ।
प्यार दे उस विधाता महान को ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@....
इंसान वही जो , चल पड़ता है ।
अपनी रहें जो , खुद गढ़ता है ।
व्यथित नही , थकित नही वो ,
लड़कर , विषम हालातों से ,
पुलकित प्रयास,सदा करता है ।
पा विजय वरण , प्रयासों से ,
एक नया मुकाम , रचता है ।
मंजिल तो , वो खुद बनता है ।
… विवेक दुबे”निश्चल”@....
रोशनी साँझ की ,
गुम हुए मुक़ाम सी ।
ठौर बस रात की ,
भोर नए मुक़ाम सी ।
बसर बस नाम की ,
चाँद पैगाम सी ।
मंजिल उजालों की ,
स्याह मुक़ाम सी ।
चाहत इंसान की ,
काँटे बियावान सी ।
ज़िंदगी नाम की ,
हसरतें पैगाम सी ।
हसरत मुक़ाम की ,
रही बे-अंजाम सी ।
कदमों की आहटें ,
खोजतीं निशान सी ।
... विवेक दुबे ''निश्चल"@....
उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।
सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।
सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।
आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।
हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।
चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।
ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।
ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी
उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....
यहाँ साजिशों के मौसम है ।
यहाँ रंजिशों के मौसम है ।
यहाँ नफरतों की बारिशों में ,
शैतानियत के मौसम है ।
यहाँ पतझड़ है शराफ़त की,
बीते भाई चारे के मौसम है ।
नही अब यहाँ चैन-ओ-अमन ,
यहाँ शख़्स को शख़्स से चुभन है ।
यहाँ आँधियाँ हैं नफरत की,
उड़ता गुबार-ओ-सितम है ।
इंसान-ए-ईमा हुआ अब ख़त्म है।
यहाँ साजिशों के मौसम है ।
क्या यही मेरा अहल-ए-वतन है ।
......विवेक दुबे "निश्चल"@......
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज अंबर भी झुकता है ।
भोर साँझ आधा दामन बांटे ,
सूरज जिस बीच मचलता है ।
एक साँझ निशा की ख़ातिर ,
सूरज भी अस्तांचल चलता है ।
जीवन कहीं राह रुका नही,
राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।
थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,
जीवन तो फिर भी चलता है ।
साहिल की चाहत में हरदम ,
सागर ही खुद ऊपर उठता है ।
तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,
मिलने चँदा साँझ निकलता है ।
इंसान वही जो चल पड़ता है ।
पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।
पा जाने धरती की चाहत को ।
दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
शब्द गिरे है कट कट कर ,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी ।
धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,
सूखी अर्थो की फुलवारी ।
अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,
शब्दों से शब्दों की लाचारी ।
मन हुये मरू वन जैसे ,
दिल में भी बहार नहीं ,
गुलशन को गुल से ,
क्यों अब प्यार नहीं ।
इंसानों की बस्ती में,
यह कैसी आग लगी ।
अपनों ने अपनों को ,
शब्दों से ही भरमाया ।
शब्द वही पर अर्थ नया ,
हर बार निकल कर आया ।
सूखे रिश्ते टूटे नाते ,
रिश्तों का मान नहीं ।
रिश्तों की नातों से अब ,
पहले सी पहचान नही ।
शब्द गिरे है कट कट कर,
कविता लहूलुहान पड़ी ।
इंसानो की बस्ती में ,
यह कैसी आग लगी। .
..विवेक दुबे"निश्चल"@....
मन पशुता पलती रहेगी ।
यह वेदना खलती रहेगी ।
गली चौराहे सड़क पर,
निर्भया मिलती रहेगी ।
जीत लिया ईमान शैतान ने ।
अभय वर दिया बे-ईमान ने ।
शस्त्र लिए जो पाखण्डों के ,
पूजा आज उसे इंसान ने ।
मासूम नही जो न भोला है ।
पहना छद्म बेस का चोला है ।
छल करता धर्म की आड़ में ,
दुराचारी मन भीतर डोला है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।
बिकने को ईमान चला ।
देश भक्ति की कसमें खाता,
चाल कुटिल शैतान चला ।
मर्यादाएँ लांघी अपनी सारी ,
हवस दरिंदा शैतान चला ।
वासना भरा वो अतिचारी ,
अबोध बालपन रौंद चला ।
सुरक्षित रहे कहाँ अब नारी ,
रिश्तों ने ही जब चीर हरा ।
चुप क्यों सभा सद सभी ,
दुर्योधन फिर चाल चला ।
अबला ही रही नारी बेचारी ,
सबला कहता इंसान चला ।
शैतानों के इस मरु वन में ,
लाचार फिर इंसान खड़ा ।
वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
आज कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।
राम कहीं तो कहीं रहमान खो गया ।
करते रहे सजदे जाते रहे शिवाला ,
नजरों में मगर सम्मान खो गया ।
बदल रही है रौनके पाक रिश्तों की ,
घर घर से आज मेहमान खो गया ।
मिलते रहे गले लोग मुर्दार की तरह ,
जिंदगी से जिंदा अरमान खो गया ।
खुदगर्ज बने खुद खुदी के लिये ,
हर फ़र्ज़ अपनी पहचान खो गया ।
करते नही खुशी उस खुशी के लिये ,
"निश्चल" कहाँ वो अहसान खो गया ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@......
गढ़ता रहा क़सीदे अपनी ही शान में ।
एक मेहमान जो रहा इस जहान में ।
एक तआरुफ़ वो हिसाब से देता रहा ,
चैन खोया रहा अपनी ही पहचान में ।
..
एक गुजरता कारवां मैं उम्र सा रहा ,
वक़्त सा सिमटता रहा अरमान में ।
एक टूटती सी हसरत जोड़ता रहा ,
हालात से निपटता रहा अहसान में ।
....
एक हाल-ए-ज़ज्ब ज़ज्बात सा रहा ,
ज़िस्म रूह से लिपटता रहा इंसान में ।
एक सवाल कुछ मेरे उसूलों का रहा ।
यूँ क़ायम रहा मैं "निश्चल" ईमान में ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
अंजाम से अपने वो अंजान हैं ।
हाथ में नही तनिक भी ईमान है ।
चलते हैं साथ ले नस्लें इंसान की ,
इतना ही इंसानियत का गुमान है ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@...
एक किस्मत ये है इंसान की ।
एक किस्मत वो है इंसान की ।
मिलता रहा सब उसे मुकद्दर से ,
एक मोहताज रही पहचान की ।
...."निश्चल"@....
उठ गया भरोषा इंसान की इंसानियत से ।
मिलाता नही निगाह कोई नेक नियत से ।
बदलता रंग जमाना सुबह से शाम तक,
होती है सियासत आज यहाँ तबियत से ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@.
उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।
सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।
सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।
आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।
हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।
चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।
ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।
ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी
उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।
.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....
मैं सही नही या ज़माना सही नही है ।
दिल ने दिल से एक ये बात कही है ।
घूम रहे है झूठ के इर्द गिर्द सभी ,
लगती एक बात मुझे यही सही है ।
खो गया इंसान खुदगर्ज़ ज़माने में ,
चाहतों में चाहतें नही दिख रही है ।
चले है गैर तक चाहतों की चाह में ,
देखो अपने भी तो आस पास यही है ।
दौड़ है मंजिल की तलाश में"निश्चल",
रास्ता है नया पर मंजिल तो बही है ।
....विवेक"निश्चल"@ ....
हम तो अदने नादान से ।
गुमनामी की पहचान से ।
आये है एक नज़्म कहने को,
तेरी महफ़िल में मेहमान से ।
चश्म चढ़ाये मोहोब्बत का ,
चाह लिए मिलने इंसान से ।
देता रहा आवाज़ जमीं पे ,
उतरा नही कोई नीचे गुमान से।
खोजती रही चाह राह के वास्ते,
दौर है ये दुनियां एक शैतान का ,
बात कहता है"निश्चल"ईमान से ।
..विवेक दुबे"निश्चल"@...
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