रविवार, 24 दिसंबर 2023

इंसान




 वक़्त वही रहता इंसान बदलते हैं ।

पाषाण वही रहता भगवान बदलते हैं ।

होती है हाथों में ------ लकीरें सबके ,

 फिर भी हाथों के अंजाम बदलते हैं ।

    ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


इंसान को इंसान का चेहरा चाहिए ।

 हर चेहरे पर अपना पहरा चाहिए ।

  झुकती है वो निग़ाह ही अदब से ,

 उसकी शान में कुछ अदा चाहिए ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


इंसान बदल जाता है , 

या वक़्त बदलता है ।

ये फैसला भी क्यों , 

वक़्त पर टलता है ।

बदलती है करबट , 

धरा ही सामने जिसके ,

वो सूरज तो ठहरा है , 

लगता जो चलता है ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@.....


अपने अरमानों से अब डर लगता है ।

अपनी पहचानो से अब डर लगता है ।

 आदम जात नही जानी पहचानी सी ,

 इंसानी इमानो से अब डर लगता है ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


तहज़ीब ही हुनर-ए-तमीज़ है ।

 यूँ तो इंसान बहुत बदतमीज है ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


 कहला सका न आदमी वो कभी ,

 वो भी तो आखिर एक इंसान था ।

 ... विवेक दुबे"निश्चल"@...


हर्फ़ हर्फ़ जिंदा ना रहे ।

इतना वो शर्मिंदा रहे ।

कह गए हालात-ए-हक़ीक़त,

इंसान मगर संजीदा ना रहे ।

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...


चल आ वर्तमान के सफर पर ।

इंसान की पहचान के सफर पर ।

छोड़ ख़याल ख़्वाब के पिंजरे में ,

बढ़ता चल ईमान के सफर पर ।

........ विवेक दुबे"निश्चल"@..


कह गया बात वो, 

           ईमान से ईमान की ।

नही कोई जात, 

           इंसान की पहचान की ।

बदलता है रंग , 

          अक्सर खुदगर्ज़ी के वो ,

है नही फ़िक़्र उसे , 

          क्यों उस जहान की ।

-----.. विवेक दुबे"निश्चल"@...


यूँ बदलता रंगत , इंसान गया ।

जो बदलता  , अहसान गया ।

रह गया दौर  ,   ख़ुदगर्ज़ी का ,

क्यूँ जात इंसां से,  ईमान गया 

.. विवेक दुबे"निश्चल"@...


पाता रहे सहारा , इंसान आदमी का ।

होता रहे दुलारा , ईमान आदमी का ।

रंगीन रौशनी से , हो कायनात सारी  ,

पाता रहे किनारा,गुमान आदमी का ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


इंसान ज़िस्म तेरी,चाहत नही बदलती ।

ईमान रूह मेरी,सोवत नही बदलती ।

करती रही सफ़र,यूँ ही जिंदगी अधूरा ,

ये शौक हैं पुराने,आदत नही बदलती ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@..


वक़्त चलता है इंसान का ।

 आता है कभी भगवान सा ।

 मंजिल चली आती चलकर,

 लगता जीवन आसान सा ।

 आता है कभी शैतान सा ।

 हर सहारा भी बे-काम सा ।

  छूटता सहारा बीच राह में ,

   गुम होता हर मुक़ाम सा ।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...


चेहरे ही बयां करते है,

               इंसान के हुनर को ।

नजरें ही पढा करतीं हैं ,

               हर एक नज़र को ।

क्यों इल्ज़ाम फिर लगाएँ ,

               इस मासूम से ज़िगर को ।

 दिल झेलता है फिर भी,

                   दर्द के हर कहर को ।

 चेहरे ही बयां करते हैं ,

                   इंसान के हुनर को  ।

शब्दों ही ,ने उलझाया ,

                 शब्दों के असर को ।

 मिलें सब जिस नज़र में ,

                कहाँ ढूंढे उस नज़र को ।

 मासूमियत ने देखो ,

          किया ख़त्म , हर असर को।

चेहरे ही बयां करते हैं ,

              इंसान के हुनर को ।

    ....विवेक दुबे"निश्चल"@..



दोष देता इंसान इंसान को ।

जान मान बैठा बस जान को ।

   भूल कर उस भगवान को ।

    रचा है जिसने सारे जहां को ।

 कर प्यार बस तू उस महान को ।

 सुधार दे जो इस जहां उस जहां को ।

 हृदय बसा बस उस भगवान को ।

   प्यार दे उस विधाता महान को ।

.....विवेक दुबे"निश्चल"@....


इंसान वही जो , चल पड़ता है ।

अपनी रहें जो , खुद गढ़ता है ।


      व्यथित नही , थकित नही वो ,

      लड़कर , विषम हालातों से ,

      पुलकित प्रयास,सदा करता है ।


पा विजय वरण , प्रयासों से ,

एक नया मुकाम , रचता है ।

मंजिल तो , वो खुद बनता है ।

   … विवेक दुबे”निश्चल”@....



 रोशनी साँझ की , 

    गुम हुए मुक़ाम सी ।

 ठौर बस रात की , 

  भोर नए मुक़ाम सी ।


बसर बस नाम की , 

   चाँद पैगाम सी ।

 मंजिल उजालों की , 

    स्याह मुक़ाम सी ।

 

  चाहत इंसान की , 

     काँटे बियावान सी ।

 ज़िंदगी नाम की  , 

      हसरतें पैगाम सी ।


  हसरत मुक़ाम की , 

     रही बे-अंजाम सी ।

   कदमों की आहटें  ,

     खोजतीं निशान सी ।

   ... विवेक दुबे ''निश्चल"@....


उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।


 सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।

 सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।


 आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।

  हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।


  चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।

  ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।

 

  ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी

   उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....


 यहाँ साजिशों के मौसम है ।

 यहाँ रंजिशों के मौसम है ।


 यहाँ नफरतों की बारिशों में ,

 शैतानियत के मौसम है ।


 यहाँ पतझड़ है शराफ़त की, 

 बीते भाई चारे के मौसम है ।


 नही अब यहाँ चैन-ओ-अमन ,

 यहाँ शख़्स को शख़्स से चुभन है  ।


 यहाँ आँधियाँ हैं नफरत की, 

  उड़ता गुबार-ओ-सितम है ।


  इंसान-ए-ईमा हुआ अब ख़त्म है।

   यहाँ साजिशों के मौसम है ।


 क्या यही मेरा अहल-ए-वतन है ।

     ......विवेक दुबे "निश्चल"@......


इंसान वही जो चल पड़ता है ।

पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।

 पा जाने धरती की चाहत को ।

दूर क्षितिज अंबर भी झुकता है ।


भोर साँझ आधा दामन बांटे ,

 सूरज जिस बीच मचलता है ।

 एक साँझ निशा की ख़ातिर ,

 सूरज भी अस्तांचल चलता है ।


 जीवन कहीं राह रुका नही,

 राह विपत्ति में भी गढ़ता है ।

 थम जाएँ क़दम कहीं कभी ,

 जीवन तो फिर भी चलता है ।


 साहिल की चाहत में हरदम ,

 सागर ही खुद ऊपर उठता है ।

 तारे छाए "निश्चल" अंबर पर ,

 मिलने चँदा साँझ निकलता है ।


इंसान वही जो चल पड़ता है ।

पाषाण वही जो धरा गढ़ता है ।

 पा जाने धरती की चाहत को ।

दूर क्षितिज भी अंबर झुकता है ।

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@..


शब्द गिरे है कट कट कर , 

कविता लहूलुहान पड़ी ।

 इंसानो की बस्ती में ,

 यह कैसी आग लगी ।


     धूमिल हुई भावनाएँ सारी ,

    सूखी अर्थो की फुलवारी ।

    अर्थ अर्थ के अर्थ बदलते ,

    शब्दों से शब्दों की लाचारी ।


मन हुये मरू वन जैसे ,

दिल में भी बहार नहीं ,

गुलशन को गुल से ,

 क्यों अब प्यार नहीं ।


       इंसानों की बस्ती में,

     यह कैसी आग लगी ।


अपनों ने अपनों को ,

 शब्दों से ही भरमाया  ।

शब्द वही पर अर्थ नया ,

हर बार निकल कर आया  ।


       सूखे रिश्ते टूटे नाते ,

        रिश्तों का मान नहीं ।

        रिश्तों की नातों से अब ,

        पहले सी पहचान नही ।

 

   शब्द गिरे है कट कट कर,

   कविता लहूलुहान पड़ी ।

   इंसानो की बस्ती में ,

    यह कैसी आग लगी। .

     ..विवेक दुबे"निश्चल"@....


मन पशुता पलती रहेगी ।

यह वेदना खलती रहेगी ।

 गली चौराहे सड़क पर,

 निर्भया मिलती रहेगी ।

  

  जीत लिया ईमान शैतान ने ।

  अभय वर दिया बे-ईमान ने ।

   शस्त्र लिए जो पाखण्डों के ,

    पूजा आज उसे इंसान ने ।  


  मासूम नही जो न भोला है ।

 पहना छद्म बेस का चोला है ।

  छल करता धर्म की आड़ में ,

  दुराचारी मन भीतर डोला है ।

   .... विवेक दुबे"निश्चल"@...


वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।

 बिकने को ईमान चला ।

  देश भक्ति की कसमें खाता,

  चाल कुटिल शैतान चला ।

 

    मर्यादाएँ लांघी अपनी सारी ,

   हवस दरिंदा शैतान चला ।

    वासना भरा वो अतिचारी ,

   अबोध बालपन रौंद चला ।


   सुरक्षित रहे कहाँ अब नारी ,

   रिश्तों ने ही जब चीर हरा ।

   चुप क्यों सभा सद सभी ,

   दुर्योधन फिर चाल चला ।


    अबला ही रही नारी बेचारी ,

    सबला कहता इंसान चला ।

    शैतानों के इस मरु वन में ,

     लाचार फिर इंसान खड़ा ।

  

   वक़्त बड़ा परवान चढ़ा ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@....


आज कहाँ इंसान से ईमान खो गया ।

राम कहीं तो कहीं रहमान खो गया ।


करते रहे सजदे जाते रहे शिवाला ,

 नजरों में मगर सम्मान खो गया ।


बदल रही है रौनके पाक रिश्तों की ,

घर घर से आज मेहमान खो गया ।


 मिलते रहे गले लोग मुर्दार की तरह ,

 जिंदगी से जिंदा अरमान खो गया ।


 खुदगर्ज बने खुद खुदी के लिये ,

 हर फ़र्ज़ अपनी पहचान खो गया ।


करते नही खुशी उस खुशी के लिये ,

"निश्चल" कहाँ वो अहसान खो गया ।


..... विवेक दुबे"निश्चल"@......


गढ़ता रहा क़सीदे अपनी ही शान में ।

एक मेहमान जो रहा इस जहान में ।


एक तआरुफ़ वो हिसाब से देता रहा ,

चैन खोया रहा अपनी ही पहचान में ।

..

एक गुजरता कारवां मैं उम्र सा रहा ,

वक़्त सा सिमटता रहा अरमान में ।


 एक टूटती सी हसरत जोड़ता रहा ,

 हालात से निपटता रहा अहसान में ।

....

 एक हाल-ए-ज़ज्ब ज़ज्बात सा रहा ,

 ज़िस्म रूह से लिपटता रहा इंसान में ।

एक सवाल कुछ मेरे उसूलों का रहा ।

यूँ क़ायम रहा मैं "निश्चल" ईमान में ।

    .... विवेक दुबे"निश्चल"@...


अंजाम से अपने वो अंजान हैं ।

हाथ में नही तनिक भी ईमान है ।

चलते हैं साथ ले नस्लें इंसान की ,

इतना ही इंसानियत का गुमान है ।

...विवेक दुबे"निश्चल"@...


एक किस्मत ये है इंसान की ।

एक किस्मत वो है इंसान की ।

मिलता रहा सब उसे मुकद्दर से ,

एक मोहताज रही पहचान की ।

...."निश्चल"@....


उठ गया भरोषा इंसान की इंसानियत से ।

मिलाता नही निगाह कोई नेक नियत से ।

बदलता रंग जमाना सुबह से शाम तक,

होती है सियासत आज यहाँ तबियत से ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@.


उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

चाहते ज़ाम भी, हसरते पैगाम सी ।


 सितारों की चाह भी, चाँद पैगाम सी ।

 सफ़र रोशनी भी , स्याह मुक़ाम सी।


 आहटें कदमों की, खोजतीं निशान सी ।

  हसरतें मुक़ाम की ,रहीं बे-निशान सी ।

  चाहतें इंसान की , काँटे बियावान सी ।

  ज़िंदगी नाम की, लगती बे-अंज़ाम सी ।


  ठौर बस रात की ,भोर नए मुक़ाम सी

   उजली साँझ भी , गुम होते मुक़ाम सी।

.... विवेक दुबे ''निश्चल"@.....


मैं सही नही या ज़माना सही नही है ।

दिल ने दिल से एक ये बात कही है ।

घूम रहे है झूठ के इर्द गिर्द सभी ,

लगती एक बात मुझे यही सही है ।

खो गया इंसान खुदगर्ज़ ज़माने में ,

चाहतों में चाहतें नही दिख रही है ।

 चले है गैर तक चाहतों की चाह में ,

 देखो अपने भी तो आस पास यही है ।

दौड़ है मंजिल की तलाश में"निश्चल",

 रास्ता है नया पर मंजिल तो बही है ।

....विवेक"निश्चल"@ ....


हम तो अदने नादान से ।

गुमनामी की पहचान से ।


आये है एक नज़्म कहने को,

तेरी महफ़िल में मेहमान से ।


चश्म चढ़ाये मोहोब्बत का ,

चाह लिए मिलने इंसान से ।


देता रहा आवाज़ जमीं पे ,

उतरा नही कोई नीचे गुमान से।


खोजती रही चाह राह के वास्ते,


 दौर है ये दुनियां एक शैतान का ,

 बात कहता है"निश्चल"ईमान से ।


    ..विवेक दुबे"निश्चल"@...


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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

सम्मान पत्र

  मान मिला सम्मान मिला।  अपनो में स्थान मिला ।  खिली कलम कमल सी,  शब्दों को स्वाभिमान मिला। मेरी यूँ आदतें आदत बनती गई ।  शब्द जागते...