शनिवार, 15 जुलाई 2017

फिर मात खा रहे


उजालों को अँधेरे खा रहे ।
 अंधेरों से फिर मात खा रहे ।

 उठाए थे हाथ दुआओं में जिनकी ख़ातिर ,
 वही आज नासूर नज़र बन तड़फा रहे ।

 जिंदा थे कल तलक जैसे तैसे,
 आज होश-ओ-हवास खोते जा रहे ।

 मैं दर्द बयां करूँ तो करूँ किससे,
 जब अपने ही जख़्म देते जा रहे ।

  हर दवा भी बेअसर हुई अब ,
 प्याले दवा ज़हर भरते जा रहे ।

  बेचैन है साँसे नमुक्मिल आज ,
 तलाश-ऐ-ज़िंदगी में हम कहाँ जा रहे ।

 पिलाकर नस्लों को घूंटी पश्चिम की ,
 हम क्यों आज पूरब को भुलाते जा रहे ।

 उजालों को अँधेरे खा रहे ।
 अँधेरों से फिर मात खा रहे ।

   ...... विवेक दुबे "विवेक"© ...

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