उजालों को अँधेरे खा रहे ।
अंधेरों से फिर मात खा रहे ।
उठाए थे हाथ दुआओं में जिनकी ख़ातिर ,
वही आज नासूर नज़र बन तड़फा रहे ।
जिंदा थे कल तलक जैसे तैसे,
आज होश-ओ-हवास खोते जा रहे ।
मैं दर्द बयां करूँ तो करूँ किससे,
जब अपने ही जख़्म देते जा रहे ।
हर दवा भी बेअसर हुई अब ,
प्याले दवा ज़हर भरते जा रहे ।
बेचैन है साँसे नमुक्मिल आज ,
तलाश-ऐ-ज़िंदगी में हम कहाँ जा रहे ।
पिलाकर नस्लों को घूंटी पश्चिम की ,
हम क्यों आज पूरब को भुलाते जा रहे ।
उजालों को अँधेरे खा रहे ।
अँधेरों से फिर मात खा रहे ।
...... विवेक दुबे "विवेक"© ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें