मंगलवार, 9 जनवरी 2018

तुम

 मस्त हवाओं सा अभिमान बनो।
 नदिया की धारा सा संग्राम बनो।
 चिरो पर्वत के सीनों को तुम ,
 महकी खुशबू सा श्रंगार बनो ।
...
 मेरे सायों के साये ,
  अपनो से घबराए।
   चलकर सँग उजियारों में,
   अँधियारों में बिसराएँ ।

   पुकारते हम रहे ।
   बिसारते तुम रहे।
   बसे ख़यालों में तुम,
   ख़्वाब में आते रहे।

  ..."निश्चल" विवेक दुबे ©....

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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