मंगलवार, 9 जनवरी 2018

वो पल

जब तुम कुछ पल को रोए थे ।
 वो दोनों सारी रात न सोये थे ।
 उठा गोद नंगे पांव ही दोनों दौड़े थे ।
 वैध हकीम डॉक्टर सब टटोले थे ।
  किए सारे पुण्य समर्पित एक पल में ,
 एक दुःख की खातिर ख़ुद को वो भूले थे । 
 कैसे वक़्त बदलता है,होले होले चलता है ।
 फूलों में भी काँटा मिलता है ।
 चुभता है जैसे ही ,
 फूलों को छूने का मन करता है  ।
 आज खड़े असहाय बहुत ,
 फिर भी होते देख देख खुश ।
  सोचें बस गुपचुप गुपचुप ,
 देते आएं है आज तक कुछ न कुछ ,
 माँगे कैसे आज उनसे वो कुछ । 
 शायद यही नियति यही भाग्य है ,
  खून को खून से हुआ बैराग्य है ।
   ......©विवेक दुबे ......

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