गुरुवार, 26 अप्रैल 2018

भरता अपने अंगारो से ही

 भरता अपने अंगारों से ही आंचल है ।
जलता अपनी चिंगारी से ही आंगन है ।

  घुट रही धरती जलता सावन है ।
  अम्बर रोता थकते भी बादल हैं ।

  जलज जलधि को भी  ,
   नवल नीर की चाहत है ।

   लुप्त हुई वो तटिनी भी  , (सरिता)
   सागर को जिसकी आदत है ।

  अब रीत रहे  मन भी ,
  मन से मन ही आहत है ।

  स्तब्ध हुआ यह "निश्चल" भी ,
  चलना ही जिसकी आदत है ।

  .... विवेक दूबे"निश्चल"@..

  

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