गुरुवार, 23 अगस्त 2018

भारत सुघड

*सुरेन्द छंद*
यगण मगन नगण नगण गुरु
12 2   22 2  ,  111  111 2
5,8 यति
  
  भरे हाथों का ,  मैं अब गरल धरूँ ।
  सजा भावों को, ये कटु हृदय तजूँ ।
  कड़े साजों को,  मैं अब सरल करूँ ।
  लिखे गीतों में  , ही नित नमन भरूँ ।

 नया ऐसा मैं , भारत सुघड़ गढ चलूँ  ।
 नहीं हो कोई ,  हो अलग मुझसे ।
 मिला प्राणों को , मैं अब निखर चलूँ
 उठूँ ऊंचा सा , छा कर शिखर बनूँ 
  
मिला प्राणों को, आज प्रण यह करूँ ।
मिला घ्राणों में ,घ्राण खिलकर बनूँ ।
सजे साजों में, गा सज बिखर चलूँ ।
 रचें रागों में ,  भा रच सभी।

... विवेक दुबे"निश्चल"@...





*सुरेन्द छंद*
यगण मगन नगण नगण गुरु
12 2   22 2  ,  111  111 2
5,8 यति
  
  भरे हाथों का ,  ये अब गरल धरें ।
  सजा भावों को, वो कटु हृदय तजें ।
  कड़े साजों को,  निर्मल सरल करें ।
  लिखे गीतों में  , वंदन नमन भरें ।

 नया ऐसा ये ,   भारत सुघड़ बसे ।
 नहीं हो कोई ,  पृथक अब हम से ।
 मिला प्राणों को , आ अब निखर चलें
 उठें ऊंचा सा , छा कर शिखर बनें
  
मिला प्राणों को, आ अब सपथ करें ।
मिला घ्राणों में ,  घ्राण सुरभित भरें ।
सजे साजों से , गीत सजकर तभी ।
 रचे रागों को ,  शेष तजकर सभी।

... विवेक दुबे"निश्चल"@....


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