शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

शेर

159
डूबता रहा साँझ के मंजर सा ।
सफ़र जिंदगी रहा समंदर सा । 

160
कुछ टूटे ख्वाब ,ख़यालों से निकले ।
कुछ उलझे ज़वाब ,सवालों से निकले ।
 .....
161
वक़्त से इतना ही मरासिम रहा ।
वक़्त मेरे वक़्त का कासिम रहा ।

.... मरासिम-रिश्ता
  कासिम- विभाजित करने बाला
.....
162
हर फ़र्ज़ निभाए ,
बड़ी शिद्दत के से मैंने।
 यह और है रास न आया मैं,
  ज़िंदगी-ए-मुक़द्दार को ।
....
163
तराशने की चाह में , 
शाख-दर-शाख छंटते रहे ।
इस तरह कुछ हम  ,
 अपनी ही छाँव से घटते रहे ।
.....
164
हालात ने उम्र दराज बना दिया मुझे ।
यूँ तो शौक बचकाना अभी भी है मेरे ।
....
....विवेक दुबे"निश्चल"@....
Blog post 17/8/18

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