वो दिन भी कितने खुदी के थे ।
जब थोड़े से हम खुद ही के थे ।
होती मुलाक़त अक़्सर खुद से ,
लम्हे लम्हे ज़ज्बात ख़ुशी के थे ।
मुस्कुरातीं थी वो तनहाइयाँ भी ,
जो थोड़े से हम हुए दुखी से थे ।
खोये थे ख़ुद ही ख़ुद में हम ,
तब रंज नही कहीं तजंगी के थे ।
परवाह नही थी कल की कोई ,
बे- फिक्र हम जो जिंदगी से थे ।
उठते थे हाथ चाहत बगैर के ,
कुछ यूँ आलम बन्दगी के थे ।
अरमां न कोई पहचान के वास्ते
फाकें भी वो उम्र सादगी के थे ।
थी नही शान अहसान की कोई
"निश्चल"दिन नही तब रजंगी के थे ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
एक धूल भरा दिनकर सा ।
अस्तित्व हीन सा कंकर सा ।
खोज रहा ख़ुद को ख़ुद में ,
अन्तस् मन स्वयं पिरोकर सा ।
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