बुधवार, 1 मई 2019

मूक्तक 728/737

 728
गिरा चश्म अश्क़,  हेफ बेमतलब ।
 सिमटी निग़ाह में, सिसकियाँ कही ।
.... ..हैफ़ / अफसोस
.....
729
कहता रहा कुछ सहता रहा ।
वक़्त के तूफ़ां में बहता रहा ।
ठहरा न अश्क़ एक पल को,
आब चश्म सा जो रहता रहा ।
.... ....
730
घटता है जो वो घट जाने दो ।
ज़ीवन ज़ीवन से कट जाने दो ।
हो जायेगा दृष्ट स्पष्ट सभी ,
घुँध जरा सी तुम हट जाने दो ।
.......
731
कैसे समझूँ"निश्चल" बात जरा सी ।
बहती सागर तक सरिता प्यासी ।
छोड़ चली निशि अपने तम को ,
भोर मिले अरुणिमा की साथी ।
.... 
732
 है सब कुछ खेल नसीबों में ।
उलझे फिर भी तरकीबों में ।
सिमट रहे है अब रिश्ते नाते ,
राजा सब मन की जागीरों में।
......
733
राह जिंदगी में इतने ख़म रहे ।
हवा जिधर उधर न हम रहे ।
खिला कर ख़्याल-ऐ-खुशियाँ,
साथ साथ चलते ही गम रहे ।
.... ...
734
क्या खूब तमाशा  , बा-खूब तमाशा है।
पल पल बढ़कर जीवन,घटता जाता है।
ख़बर नही पल को , अगले ही पल की ,
हरी-भरी फिर भी ,  कल की आशा है।
      ........
735
बदलते रहे दर-ओ-दीवार भी ।
टूटते रहे कुछ इख़्तियार भी ।
 एक चाहत-ए-गुल की ख़ातिर ,
करते ही रहे कुछ इक़रार भी ।
.... ....
736
बदले जा रहे है, दर-ओ-दीवार अब तो ।
टूटते आ रहे है, कुछ इख़्तियार अब तो ।
एक चाहत-ऐ-चमन-ओ-अमन की ख़ातिर ,
करते ही जा रहे है, गुल इक़रार अब तो ।
.... ....
737
वक़्त ही वक़्त को ,हालात से ठेलता है ।
आज ये कौन,आँख मिचौली खेलता है ।
बहा आब क़तरा ,दरिया से समंदर तक ,
ठोकरे यह ज़िस्म, तन्हा तन्हा झेलता है ।

      .... विवेक दुबे"निश्चल"@.....
डायरी 3

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