738
चलता रहा कल तक, आज की खातिर ।
बजता रहा साज भी ,आवाज की खातिर ।
उतरती रहीं कुछ नज़्में, ख़्वाब जमीं पर ,
देतीं रहीं हसरतें हवा , नाज की ख़ातिर ।
....
739
वो बदलता ही रहा , वक़्त से हालात सा ।
बिखेरकर क़तरा-ऐ-शबनम,हसीं रात सा ।
वो चाँद चलता ही रहा,अस्र से सेहर तक ,
न मुक़म्मिल सफ़र दरकार-ऐ-ख्यालात सा ।
...
740
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
......
741
गिनता रहा मैं पत्ते बरगद के पेड़ के ।
कुछ शाख़ पे हरे से कुछ जमीं ढ़ेर के ।
टूटकर बिखरते ही रहे शाख़ से यूँ पत्ते ,
जिस तरह बिखरे अल्फ़ाज़ मेरे शेर के ।
.......
742
मैं कहीं एक , बस्ती ढूंढता सा ।
मैं कहीं अपनी, हस्ती ढूंढता सा ।
एक चमन-ओ-अमन की चाहत में ,
नज़्र निग़ाह की , मस्ती ढूंढता सा ।
.....
743
महज़ इस्तेमाल होता है आदमी ।
फक़त ख़्याल खोता है आदमी।
चलकर सँग जमीन पे अपनो के,
हसरते आसमां पे सोता है आदमी ।
.......
744
सामने से जो गुजरते हैं जिंदा बुत ।
हाँ दर्द होता है उस वक़्त पर बहुत ।
क्या कहूँ अंदाज नज़रें अंदाज को मैं ,
जो निगाहें चुरा बदलते खुद-बा-खुद ।
.... ..
745
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
... ....
746
जिंदगी जिंदा लकीरों सी ।
उलझती रही जमीरों सी ।
बदलते रहे हालात हरदम ,
मौसीक़ी ज़ज्ब फकीरों सी ।
... ... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
चलता रहा कल तक, आज की खातिर ।
बजता रहा साज भी ,आवाज की खातिर ।
उतरती रहीं कुछ नज़्में, ख़्वाब जमीं पर ,
देतीं रहीं हसरतें हवा , नाज की ख़ातिर ।
....
739
वो बदलता ही रहा , वक़्त से हालात सा ।
बिखेरकर क़तरा-ऐ-शबनम,हसीं रात सा ।
वो चाँद चलता ही रहा,अस्र से सेहर तक ,
न मुक़म्मिल सफ़र दरकार-ऐ-ख्यालात सा ।
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740
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
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741
गिनता रहा मैं पत्ते बरगद के पेड़ के ।
कुछ शाख़ पे हरे से कुछ जमीं ढ़ेर के ।
टूटकर बिखरते ही रहे शाख़ से यूँ पत्ते ,
जिस तरह बिखरे अल्फ़ाज़ मेरे शेर के ।
.......
742
मैं कहीं एक , बस्ती ढूंढता सा ।
मैं कहीं अपनी, हस्ती ढूंढता सा ।
एक चमन-ओ-अमन की चाहत में ,
नज़्र निग़ाह की , मस्ती ढूंढता सा ।
.....
743
महज़ इस्तेमाल होता है आदमी ।
फक़त ख़्याल खोता है आदमी।
चलकर सँग जमीन पे अपनो के,
हसरते आसमां पे सोता है आदमी ।
.......
744
सामने से जो गुजरते हैं जिंदा बुत ।
हाँ दर्द होता है उस वक़्त पर बहुत ।
क्या कहूँ अंदाज नज़रें अंदाज को मैं ,
जो निगाहें चुरा बदलते खुद-बा-खुद ।
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745
जिंदगी आईने सी कर दो ।
परछाइयाँ ही सामने धर दो ।
न सिमेटो कुछ भीतर अपने,
निग़ाह अक़्स मायने भर दो।
... ....
746
जिंदगी जिंदा लकीरों सी ।
उलझती रही जमीरों सी ।
बदलते रहे हालात हरदम ,
मौसीक़ी ज़ज्ब फकीरों सी ।
... ... विवेक दुबे"निश्चल"@...
डायरी 3
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