शनिवार, 8 जून 2019

मुक्तक 752 से 755

752
वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।
आप को कर अंधेरों के हवाले ।
होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,
नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।
......
753
मेरे हर सब्र की, कीमत अदा होगी ।
कभी तो कुदरत ,मुझ पे फिदा होगी ।
करता नही रब,  न-इंसाफ़ीयाँ कभी ,
दौलत रब-ए-रजा, ही मेरी सदा होगी ।
....
754
गुरेज़ नही कोई अल्फ़ाज़ से ।
ढूंढता रहा लफ्ज़ आगाज़ से ।
सुनाकर तज़किरा महफ़िल में ,
लिखता रहा हर्फ़ अंदाज से ।
... .
756
एक स्याह समंदर सा ।
ये नजरों का मंजर सा ।
डूबती तिश्नगी साहिल पे ,
चुभता मौजों का खंजर सा ।

....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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