शनिवार, 8 जून 2019

मुक्तक 747/751

747
 रूबरू ज़िंदगी ,घूमती रही ।
 रूह की तिश्नगी, ढूँढती रही ।
रहा सफ़र दर्या का, दर्या तक,
मौज साहिल को ,चूमती रही 
.....
748

अपने आप को यूँ खोता रहा ।
वक़्त हालात को बोता रहा ।
चलता रहा साथ जज़बात के ,
ये ज़िस्म रूह को ढोता रहा ।
.....
749
अपने आप से यूँ भी सौदा रहा।
ज़िन्दगी का यूँ भी मसौदा रहा।
चलता रहा साथ हालात का ,
ये ज़िस्म रूह का घरोंदा रहा ।
....
750
लफ्ज़ लफ्ज़ निहाल हो गया ।
जश्न महफ़िल मलाल हो गया ।
मैं कहता रहा ग़जल अदब से ,
 वो जाने क्युं बे-ख़्याल हो गया ।
...
751
अपनी पहचानो को वो मान चला ।
अपनी पहचानो को पहचान चला  ।
जीवन के दामन में भरकर जीवन ,
अपने जीवन को जीवन जान चला ।

 .....विवेक दुबे"निश्चल"@..
डायरी 3

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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