बुधवार, 31 जुलाई 2019

mमुक्तक 811/819

811
बस निकल चल ।
      निगाह फिसल चल ।

खुदगर्ज है दुनियाँ ,
     देखता असल चल ।

राह मुड़ी चौराहे पर ,
      रास्ते ना बदल चल ।

 लुभाते हैं यह नजारे ,
       ना ठहर "निश्चल"चल ।
.....
812
हालात से जो हार जाता है ।
 वक्त से वो नहीं पार पाता है ।

चला चलता जो अपनी लगन से ,
वो ही तो समय के पार आता है ।

चला चल तू अपनी ही लगन से ,
ये समय ही तो हर बार आता है ।
.......
813
   
 चलते रहे सँग वो दीवाने बहाने से ।
 रूह लिए सँग दो जिस्म पुराने से ।
 खिलते रहे अश्क़ फ़ूल बनकर ,
 मिलकर अपनी ही पहचानों से ।
......
814
साथ चला समय मेरे ,प्रहरी बनकर ।
भोर पहर रात कटी , गहरी बनकर ।
स्वप्न सजे इन ,   जगती आंखों में ,
आशित कांक्षाओं की, देहरी बनकर ।

.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....

815
कुछ फैसले कुदरत के ।
मोहताज़ रहे शोहरत के ।
बहता रहा दर्या वक़्त का,
ग़ुम हुये पल मोहलत के ।
......
816
अपने पराये पे गोर न कर ।
जज़्ब इरादों को और न कर ।
बदलती है दुनियाँ हालात से,
साँझ धुंधलके का शोर न कर ।
.......
817
अक़्स तलाशता आदमी ।
निग़ाह सँवारता आदमी ।
इन फ़रेब के आईनों में ,
 क्युं सच उभारता आदमी ।
.......
818
 एक उम्र ठहर सी रही है ।
 ज़िन्दगी निखर सी रही है ।
 छुड़ाकर दामन हसरतों का ,
 अब चाहतों से डर सी रही है ।
........
819
 ज़िस्म ज़ुदा न जान से रहे ।
 यूँ रूह तले पहचान से रहे ।
 हसरत-ए-जिंदगी की ख़ातिर ,
 चाहतों के भी अहसान से रहे ।
... विवेक दुबे "निश्चल"@...

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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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