बुधवार, 31 जुलाई 2019

Muktak 828/833

 828
अशआर-ए-हालात लिखता रहा ।
 लिपटकर शब्दों से दिखता रहा ।
 सिमेटकर ज़िस्म ख़्वाब ख्यालो का ,
 एक रूह-ए-कशिश मिटता रहा।
........
829
दिखाता रहा कैफ़ियत अपनी ,
कुछ दर्द मलाल इस तरह रहा ।
न बदल सका हालात आपनी ,
वो मुतमईन हाल इस तरह रहा ।
.... 
830
लफ्ज़ लफ्ज़ बेचैन है ।
बस इतना ही चैन है ।
बदलते है हालात तो ,
होती भोर की भी रेन है ।
.... ..
831
 वो चराग़ उगलते रहे उजाले  ।
आप को कर अंधेरों के हवाले ।
होती रहीं नाफ़रमानीयाँ उम्र की ,
नुक़्स जिंदगी से न गये निकाले ।
...
832
आइनों में नुक़्स निकाले न गये ।
ऐब हमसे कभी सम्हाले न गये ।
कहता रहा हर बात बे-वाकी से ,
इल्ज़ाम बे-बजह उछाले न गये ।
.....
*दुर्मिल सवैया*

चलती इक रात सदा भरने  , 
नभ का आँचल अपने तम से ।
जगती रजनी सजती क्षितिज़ा , 
मिलने चलती अपने नभ से ।
सजता नव रूप निशाकर का, 
खिलता भरता तन योवन से , 
घटता बढ़ता नित ही विधु भी, 
सजता नभ ही तारक तन से  ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....


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कलम चलती है शब्द जागते हैं।

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