1
गिरा चश्म अश्क़, हेफ बेमतलब ।
सिमटी निग़ाह में, सिसकियाँ कही ।
.... ..हैफ़ / अफसोस
1
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
1
बैचेनियाँ दिल निगाह झलक लाए हैं ।
लफ्ज़ बेजुवां आँख छलक आए हैं ।
2
आँख बंद करने से अंधेरा घटता नहीं ।
आता भोर का सबेरा अंधेरा टिकता नही ।
3
एक दोष रहा मेरे होने का ।
कुछ पाकर कुछ खोने का ।
साँझ ढ़ले बोझिल आँखें ,
भोर तले स्वप्न पिरोने का ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
3
जब जीवन की साँझ ढली ।
तब जाकर आँख खुली ।
सोचूँ अब क्या खोया क्या पाया,
क्यों ज़ीवन व्यर्थ गवांया ।
3
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने
4
वो इल्म क्यूँ भार सा रहा ।
वो हुनर से ही हारता रहा ।
क़तरे थे आब के आँखों मे ,
वो खमोश नज़्र निहारता रहा ।
4
यह निश्चल नयन सजल से ।
बह जाते थोड़े से अपने पन से।
कह जातीं यह आँखे सब कुछ ,
बरसी जब जब सावन बन के ।
5
एक यही कमी रही मुझमे ।
आँखों की नमी रही मुझमे ।
कहता जमाना संग के माफ़िक ,
निग़ाह न उसने पढ़ी मुझमे ।
....5
समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
6
कह जातीं कुछ कह जातीं आँखे ।
अहसासों को झलकातीं आँखे ।
बह कर झर झर निर्झर निर्झर ,
कह जातीं सब कह जातीं आँखे ।
.......
6
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
7
जागती आँखों से ख़्वाब देखता हूँ ।
ऐ चाँद मैं तुझे बे-हिसाब देखता हूँ ।
उतरता नही तू क्यों जमीं पर कभी,
तुझे निग़ाह-ऐ-आस- पास देखता हूँ ।
... 7
ख़्वाबों के तसब्बुर में कुछ जज्बात लपेटे हुए।
अहसासों के तन पे वक़्त के हालात लपेटे हुए ।
गुज़र गए इस बारिश से उस बारिश तक ,
आँखों में अश्कों की सौगात लपेटे हुए ।
......विवेक दुबे"निश्चल"@...
8
वक़्त ही वक़्त को ,हालात से ठेलता है ।
आज ये कौन,आँख मिचौली खेलता है ।
बहा आब क़तरा ,दरिया से समंदर तक ,
ठोकरे यह ज़िस्म, तन्हा तन्हा झेलता है।
9
झाँकता रहा आईने में अपने ।
बुनता रहा सुनहरे से सपने ।
सजते आँख में मोती कुछ ,
ढलक जमीं टूटते से सपने ।
9
हादसे ये हालात के,अश्क पलकों पे उतरने नहीं देते ।
टूटकर हालात-ऐ-हक़ीक़त,ज़मीं पे बिखरने नहीं देते ।
हुआ है ख़ुश्क अब तो, मुसलसल आँख का दर्या भी ,
ये कोर पलकों पे ,अब मौजों को ठहरने नहीं देते ।
......
9
आँख मूंदने से रात नही होती ।
झूंठे की कोई साख नही होती ।
उड़ान कितनी भी हो ऊँची ,
आसमान में सुराख नही होती ।
---
10
दुनियाँ कमतर ही आँकती रही।
चुभते तिनके से आँख सी रही ।
फैलते रहे दरिया से किनारे पे ,
दुनियाँ इतनी ही साथ सी रही ।
....
11
ग़ुम हुए साये भी यहाँ इस कदर ।
पराया सा लगता है अपना शहर ।
है नही आब आँख में अब कोई ,
बेअसर सा हुआ हर निग़ाह असर ।
12
आँखों में भरे अश्क़ बहाये न गये ।
रूठ कर आज अपने मनाये न गये ।
कह गये बात तल्ख़ लहज़े में वो ,
नर्म अल्फ़ाज़ जुवां पे सजाये न गये ।
उठाते रहे हर नाज़ बड़े सलीक़े से ,
अहसास फ़र्ज़ कभी दिलाये न गये ।
हो गये गैर अपने गैर की ख़ातिर ,
अपने कभी मग़र भुलाये न गये ।
सह गये हर चोट बड़े अदब से हम ,
ज़ख्म "निश्चल" कभी दिखाये न गये ।
...."निश्चल"@.
13
687
सच हर किसी को बताया नही जाता ।
बे-बजह कहीं मुस्कुराया नही जाता ।
मेरे न आने की शिकायत न करना ,
बिन बुलाये कहीं जाया नही जाता ।
माना के हैं बड़ी रौनकें तेरी इस महफ़िल में ,
यूँ मगर सामने से शमा को उठाया नही जाता ।
बह कर जाने दे आँख अश्क़ क़तरों को ,
रोककर इन्हें निग़ाह में सताया नही जाता ।
कहता हूँ हर ग़जल खुशियों की ख़ातिर,
दर्द दिल में अब और बसाया नही जाता ।
लूटती ही रही मुझे दुनियाँ अहसानों से ,
ईमान कोई मुझसे अब लुटाया नही जाता ।
छूटता नही दामन भलाई का "निश्चल"
सिला नेकी का असर ज़ाया नही जाता ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
14
बह्र -- 212 212 212
रुक नहीं हार से मिल जरा ।
चल चले राह पे दिल जरा ।
मुश्किलें जीतता ही रहे ,
ख़ाक में फूल सा खिल जरा ।
उधड़ते ख़्याल ख्वाब तले ,
खोल दे बात लफ्ज़ सिल जरा ।
आँख से दूर है अश्क़ क्युं ,
फ़िक़्र से देख नज़्र हिल जरा ।
खोजतीं ही रही जिंदगी ,
दूर सी पास वो मंजिल जरा ।
हारता क्युं रहा आप से ,
होंसला जीत अब "निश्चल"जरा ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
15
कितना सच्चा सरल लिखा उसने ।
जीवन को एक गरल लिखा उसने ।
उस ठहरी हुई कलम से ,
शब्द शब्द सचल लिखा उसने ।
शुष्क हुई उन आँखों में ,
भर भाव सजल लिखा उसने ।
लिख भाषा रिश्ते नातो की ,
सम्बंधो का सकल लिखा उसने ।
सार लिखा है ज़ीवन का ,
नही कहीं नकल लिखा उसने ।
बदल रहे पल में रिश्ते ,
हर रिश्ता अचल लिखा उसने ।
हार गया अपनो के आगे ,
और जीवन सफल लिखा उसने ।
टालकर हर सवाल को ,
हर जवाब अटल लिखा उसने ।
भर मन शान्त भाव को ,
"निश्चल" विकल लिखा उसने ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@......
16
हर बह्र से खारिज ग़जल मेरी ।
कुछ कहती निग़ाह मचल मेरी ।
उठते जो तूफ़ान रूह समंदर में ,
अल्फ़ाज़ को छूती हलचल मेरी ।
आँख के गिरते क़तरे क़तरे को ,
ज़ज्ब कर जाती कलम चल मेरी ,
खो गया क़तरा सा समंदर में ,
बस इतनी ही एक दखल मेरी ।
मिल गया वाह जिसे अंजाम में ,
हो गई वो ग़जल मुकम्मल मेरी ।
मिलता रहा साँझ सा भोर से ,
हर राह ही रही "निश्चल" मेरी ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
17
वो खमोशी के मंजर भी,
गहरे से हो जाते है ।
मेरे आँसू जब जब उसकी,
आँखों में आ जाते हैं ।
दर्द छुपे इस मन के ,
उन आँखों में छा जाते है ।
रिश्ते अन्तर्मन से ,
पुष्पित पूजित हो जाते हैं ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
18
610
उसे देख देख वो ठहर गया ।
देकर जो यूँ कुछ नजर गया ।
दूर था कल तक निग़ाह के ,
धड़कन बन आज उतर गया ।
सजाकर महफ़िल दिल की ,
क़तरा क़तरा सा निखर गया ।
गिरा न क़तरा आँख से कभी ,
एक अश्क़ निग़ाह सँवर गया ।
करता रहा फरियाद मुंसिफ़ भी ।
दौर ज़िरह का यूँ मुकर गया ।
ग़ुम हुए हर्फ़ हर्फ़ किताबों से ,
रफ्ता रफ्ता लफ्ज़ असर गया ।
...विवेक दुबे"निश्चल"@..
19
599
निखर चला चल , मन भीतर से ।
श्रृंगारित छण बन , मन भीतर से ।
आत्म भाव गुन , मन भीतर से ।
अवचेतन धुन सुन, मन भीतर से ।
बैर रहे न , राग द्वेष रहे कोई ,
"निश्चल" बन जा , मन भीतर से ।
ज्योत जलेगी तब , अन्तर्मन में ,
प्रगट हरि जब , मन भीतर से ।
न मचल लहरों पे ।
डूब जा किनारों पे ।
कर यक़ीन इतना ,
डूबने के इरादों पे ।
मिल जाएगी मंजिल ,
छोड़ते ही सहारों के ।
है निग़ाह तू हरदम ,
है उसके दुलारों में ।
तू आँख तो मिला ,
बस उसके नजारों से ।
.. विवेक दुबे"निश्चल"@...
20
589
शांत साँझ सुप्त निशा है ।
दिनकर भी लुप्त हुआ है ।
टूट रहे तारे भी अब अंबर से ,
अंधियारों ने अभिमान छुआ है ।
बस उठे हुए है हाथ हवा में ,
आँखों में अब नही दुआ है ।
धरती की आशाओं को ,
धीरे धीरे बैराग्य हुआ है ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
21
580
ठहर जरा इनायत का करार है ।
क्युं नज़्र निग़ाहों को इंतज़ार है ।
ठहर जरा, इनायत का इतना करार है ।
क्युं निग़ाहों का,निग़ाहों को इंतज़ार है ।
है सँग निग़ाह, संग सा सख्त जो ,
क्युं दिल को, उसका इख़्तियार है ।
जला है जो, मेरे वास्ते अंधेरों में ,
क्युं यही उसका, इश्क़ इक़रार है ।
सुखाता रहा , आब आँख में अपनी ,
क्युं करता नही ,दर्द अपना इज़हार है ।
चलता है जो, साथ सख़्त राहों पर ,
क्युं मंजिल का, वो भी तलबगार है ।
लिखता रहा , सफ़े वास्ते जिसके,
क्युं सुनता,वो मुझे मेरे अशआर है ।(दोहे)
करती रही , बयां,हालात को सूरत ,
"निश्चल" नही , चेहरा-ए-असरार है ।(रहस्मय)
... विवेक दुबे"निश्चल"@..
22
557
कुछ शब्दों की सिकुड़न सी ।
कुछ भावों की जकड़न सी ।
आश नही कोई आँखों में ,
भूखी आंतो की कतरन सी ।
.
सिहर उठा हिमालय भी ,
धड़की जब धड़कन सी ।
नींद नही अब आँखों में ,
निग़ाह थमी तड़फन सी ।
रीत रहा दिनकर दिन से ,
सांझ नही अब दुल्हन सी ।
उठतीं लहरें सागर तट से ,
लौट चली अब बेमन सी ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@...
23
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा,तापित तन ।
भोली सी इन आँखों से ,
खोता है क्यों चंचलपन ।
वांट रहे हैं,जात धर्म को ,
कैसा यह दीवाना पन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।
रूठ रही है हवा हवा से ,
सांसों की सांसों में जकड़न ।
ज्वार उठा सागर तट पे ,
सागर की साहिल से अनबन ।
इस नीर भरे अंबर से ,
गिरते रक्त मिले से कण ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।
भान नही कल का कल सा ,
आज टले , कल आये बन ।
खींचों ना तुम तस्वीरें ऐसी ,
भयभीत रहे जिससे जन ।
छुब्ध हृदय, शंकित मन ।
तप्त धरा सा, तापित तन ।
लाओ गढ़कर कुछ ऐसा ,
चहक उठे ये जन गण मन ।
झुके नहीं भाल हिमालय का,
सागर करता जिसका अर्चन ।
राष्ट्र वही है देश वही है ।
सुखी रहे जिसमे जन जन ।
छुब्ध हृदय , शंकित मन ।
तप्त धरा सा , तापित तन ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@....
24
खो गए निग़ाह से अहसास दे कर ।
रात के साथ दिन की आस दे कर ।
खोजता रहा क़तरा क़तरा वो ,
जो ग़ुम हुआ आँख से खो कर ।
ना मिल सका समंदर से वो दरिया ,
आया था बड़ी दूर से जो बह कर ।
वो चलता था उजालों के साये में ,
खा बैठा रोशनियों से वो ठो कर ।
हंसता ही रहा हर हाल पर जो ,
हँसता है वो आज भी हँसकर ।
"निश्चल" ना चल राह पर और आंगे ,
मंजिल मिले नही राह को खो कर ।
... विवेक दुबे"निश्चल"@.
25
कोई घायल हुआ ।
कोई कायल हुआ ।
छोड़कर आँख को ,
बहता काजल हुआ ।
ढलक रुख़सार से ,
ज़ज्ब आँचल हुआ ।
उड़ गया बूंद सा ,
आसमां बादल हुआ ।
जीतकर हालात को ,
अश्क़ "निश्चल" हुआ ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@..
26
तृष्णा मन की आज,
उजागर कर दी,आँखों ने ।
सकल ब्रम्हांड सरीखी,
झलकी इन आँखों से ।
.
प्रारम्भ शून्य अंत शून्य है ,
तुझमे ही रहना है ।
बस तुझमे ही तो खोना है ।
.
मिथ्या सब कुछ है यह ,
जगत सपन सलोना है ।
निकल शून्य से ,
शून्य ही फिर होना है ।
.....विवेक दुबे...
27
खामोशी कहतीं अक्सर ।
लिखता मिटता सा अक्षर ।
सजाकर रात सुहाने तारों से ,
आँख चुराता चँदा अक्सर ।
देख रहा वो आँख मिचौली ,
दूर छिपा नभ बैठा दिनकर ।
चाहत में झिलमिल तारो की,
वो आ जाता अक्सर ।
दिन के उजियारों में भी ,
चाँद नजर आता अक़्सर ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
28
जीवन की इस
मृग मरीचिका का ,आकर्षण।
तेरा मन, मेरा मन,यह पागलपन ।
कैसी यह ,
मन की ,मन से उलझन ।
उठती गिरती साँसे ,
घटती बढ़ती धड़कन ।
सूनी आँखे ,नेह भरी आँखे ।
कैसे सुलझे यह उलझन
तेरा मन, मेरा मन ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
29
खुशियों के गीत लिखूं ।
............. यादों के संगीत लिखूं ।
विरह भरी वो रात लिखूं ।
........मधुर मिलन की याद लिखूं ।
.
स्वप्न संजोती साँझ लिखूं ।
.... भुंसारे की अलसाई आँख लिखूं ।
अहसासों के हर अहसास लिखूं।
..............खासों में तू खास लिखूं ।
.
तुझ पर फिर एक गीत लिखूं ।
......हृदय बसा हर एहसास लिखूं।
स्वप्न सलोनी वो याद लिखूं।
......... प्रियतम से फ़रियाद लिखूं।
.
तुझको मन मीत लिखूं ।
...............कैसी यह प्रीत लिखूं।
खुशियों के गीत लिखूं ।
..............यादों के संगीत लिखूं ।
....विवेक..
30
समंदर आँखों का नम था ।
काजल आँखों का कम था ।
उठे थे तूफ़ां उस दरिया मैं ,
होंसला साहिल बे-दम था ।
..31
हालात दिलों के तुम दिखा क्यों नही देते ।
येअश्क़ निगाहों से तुम गिरा क्यों नही देते ।
उठता है समंदर में तूफान जो कोई ,
साहिल से उसे तुम मिला क्यों नही देते ।
अरमान उठा जो आज उस दिल में ,
इस ज़िस्म में तुम गला क्यों नही देते ।
छेड़कर नग़मे प्यार के फिर कोई ,
जज़्बात दिलों के तुम जगा क्यों नही देते ।
ठहरा हूँ साहिल पर समंदर की चाह में ,
आँखों से अपनी दरिया पिला क्यों नही देते ।
आज बरस जाऊँ बून्द बून्द सा मैं ,
बारिश सा तुम मुझे सिला क्यों नही देते ।
"निश्चल" ही रहा हूँ अब तलक मैं ,
मुसाफ़िर तुम मुझे बना क्यों नही देते ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@....
32
बदलते रहे वक़्त अहसास के ।
चलते रहे ज़िस्म सँग सांस के ।
थमती रहीं निगाहें बार बार ,
अपनी कोरों में अश्क़ लाद के ।
किनारे भी रूठे रहे अक्सर,
दरिया भी जिनके साथ के ।
न क़तरा था वो शबनम का ,
थे अश्क़ वो किसी आँख के ।
लो खो रही सुबह फिर ,
हो साथ अपनी शाम के ।
सँग सा था वो तो "निश्चल" ,
बरसे अश्क़ क्युं जज़्बात के ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
33
आँख की नमी से समंदर नम था ।
होंसला इतना चट्टानों सा दम था ।
वो था अकेला काफ़िला मुकम्मल ।
हारता हर घड़ी जीतने धरता कदम था ।
राह की ठोकरों को बनाता मरहम ।
वो न था कोई और मेरा हम था ।
..... विवेक दुबे"निश्चल"@ ..
34
मेरी तीरगी-ऐ-रोशन उजाले न हुए ।
सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।
छोड़ गए वो दामन लम्हा लम्हा ,
वो अश्क़ आँख के निवाले न हुए ।
ख़ामोश है अब आज लब भी ये ,
तबस्सुम के जिनको सहारे न हुए ।
न रहा रंज भी पास अब कोई ,
जो ग़म के हम हवाले न हुए ।
छुपता नही रोशनी की ख़ातिर ,
यह अँधेरे ही मेरे पुराने न हए ।
गुमां न था मुझे मेरे ऐतवार पर ,
हालात मगर मेरे दीवाने न हुए ।
सम्हले हुए हालात सम्हाले न हुए ।
.... विवेक दुबे"निश्चल"@...
35
स्वप्न सलोने , जागे कुछ सोए से ,
यादों के बदल , खोए खोए से ।
पोर नयन तन , कुछ मोती ढलके ,
कुछ हँसते से, कुछ रोए रोए से ।
जीत लिया सब , जिसकी खातिर ,
उसकी ही ख़ातिर , हार पिरोए से ।
सँग सबेरे उठ , फिर चलना होगा ,
रात अँधेरी , आँखे भर रोए रोए से ।
.... विवेक दुबे "निश्चल"@....
36
चुप रहने का भी ,
हुनर सिखाती आँखे।
चुप रह कर भी,
सब कह जातीं आँखे।
शब्द गुंजातीं साँसों में ।
नज़र आते आँखों में ।
उठती पलकें ,गिरती पलकें ।
भींगी पलकें, सूखी पलकें ।
शून्य में कुछ लिखती आँखें।
भावों को बरसाती आँखें ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@ ...
37
भेद भाव करतीं आँखें।
मन भरमातीं आँखें ।
साँझ तले के मौन से ,
निशा गहरतीं आँखे ।
भेद भाव करती आँखे ।
भावों में बंट जातीं आँखे।
दर्द घनेरे बादल से,
पीर नीर छलकाती आँखे।
भेद भाव करतीं आँखे ।
पल में भेद बतातीं आँखे।
गहन निशा तम संग,
जुगनू बन जाती आँखे ।
भेद भाव करतीं आँखे।
सब कह जाती आँखें।
खुशियों के झोंकों में,
मौन तले मुस्काती आँखे।
भेद भाव करतीं आँखे ।
.....विवेक दुबे"निश्चल"@..
38
आशा के गीत सुनाती आँखें ।
खुशियों के भाव सजतीं आँखें ।
सोच खुश हो जातीं आँखें ।
जो कुछ पा जातीं आँखें ।
मोती फ़ूल झराती आँखें।
सब कह जातीं आँखे ।
यादों मे खो जातीं आँखे ।
भर तर हो जातीं आँखे ।
खुशियों से मुस्काती आँखे ।
जब स्वप्न सजाती आँखे ।
ठेस लगी सूनी हो जातीं आँखें ।
निराशा बादल बरस जातीं आँखें ।
यह आँखे तेरी आँखे ।
यह आँखे मेरी आँखें ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@..
39
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