बुधवार, 13 सितंबर 2017

कुछ दृश्य


 वो बातें थीं बस नारों की ।
आजादी थी बस नारों की ।
 बसन्त की रातें भी अब ,
 पोष की सर्द रातों सी ।

स्वार्थ की नीतियों तले ,
 दब गए सारे परमार्थ ।
 खाते फूँक फूँक कर,
 हम अब वासी भात ।


वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
 मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
 था रंग लहू का एक सा सभी ,
 फिर यह लहू किसने फेंका था ।

 नफ़रत धर्म की ,
  पांसा जात का ,
 जिसने खेला था ।
  बहा जो लहू वो ,
 नहीं अकेला था ।
 ले गया संग बहुत कुछ,
 साथ आज तक जो ,
 अपनों सा मेला था ।
प्रश्न उनका हमसे ...
 सपनों का भारत कैसा हो ?

 एक प्रश्न हमारा उनसे ...

 देख सकें स्वप्न यामनी संग,
    बैसा आज सबेरा तो हो  ।
 

फेंको तुम औद्योगिक कचरा खूब नदी समन्दर में ।
 कहते हो गणपति विसर्जन करना है घर अंदर में ।
 फैलता है प्रदूषण कुछ मूर्तियों के विसर्जन से ,
 क्या अमृत घुला है उद्योगों के कचरा उत्सर्जन में ।


आज महंगाई बनी डायन है ।
 खाली थाली सूना आँगन है ।
 बुझे बुझे दिये दीवाली के ,
 सूना सूना अब सावन है ।
  टूट रहे स्वप्न सितारों जैसे,
  चन्दा से भी अनबन है ।
  भोर तले सूरज ऐसा ,
 जैसे करता संध्या बंदन है ।
  निशा अंधियारी ऐसी छाई,
 दिखती नही प्रभात किरण है ।
 मंहगाई के बोझ तले दबे ऐसे ,
  महँगा जीवन मरण सरल है ।
 
   ..... विवेक दुबे ©....
ब्लॉग 13/7/17


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