वो बातें थीं बस नारों की ।
आजादी थी बस नारों की ।
बसन्त की रातें भी अब ,
पोष की सर्द रातों सी ।
स्वार्थ की नीतियों तले ,
दब गए सारे परमार्थ ।
खाते फूँक फूँक कर,
हम अब वासी भात ।
वो भीड़ का बवंडर कैसा था ।
मेरे शहर का मंज़र कैसा था ।
था रंग लहू का एक सा सभी ,
फिर यह लहू किसने फेंका था ।
नफ़रत धर्म की ,
पांसा जात का ,
जिसने खेला था ।
बहा जो लहू वो ,
नहीं अकेला था ।
ले गया संग बहुत कुछ,
साथ आज तक जो ,
अपनों सा मेला था ।
प्रश्न उनका हमसे ...
सपनों का भारत कैसा हो ?
एक प्रश्न हमारा उनसे ...
देख सकें स्वप्न यामनी संग,
बैसा आज सबेरा तो हो ।
फेंको तुम औद्योगिक कचरा खूब नदी समन्दर में ।
कहते हो गणपति विसर्जन करना है घर अंदर में ।
फैलता है प्रदूषण कुछ मूर्तियों के विसर्जन से ,
क्या अमृत घुला है उद्योगों के कचरा उत्सर्जन में ।
आज महंगाई बनी डायन है ।
खाली थाली सूना आँगन है ।
बुझे बुझे दिये दीवाली के ,
सूना सूना अब सावन है ।
टूट रहे स्वप्न सितारों जैसे,
चन्दा से भी अनबन है ।
भोर तले सूरज ऐसा ,
जैसे करता संध्या बंदन है ।
निशा अंधियारी ऐसी छाई,
दिखती नही प्रभात किरण है ।
मंहगाई के बोझ तले दबे ऐसे ,
महँगा जीवन मरण सरल है ।
..... विवेक दुबे ©....
ब्लॉग 13/7/17
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