ज़रा बोलता है ।
वक़्त खोलता है ।
डूबती यादों से ,
आज तोलता है ।
वक़्त के किनारों पे ,
समन्दर डोलता है ।
रेत के घरोंदों को,
लहरों से तोड़ता है ।
भोर के भानू पे ,
शशि सा खेलता है ।
ढलती साँझ में,
तिमिर घोलता है ।
ज़ीवन की परिभाषा,
यूँ ज़रा बोलता है ।
यूँ ज़रा बोलता है ।
.... विवेक दुबे "विवेक"©...
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