बुधवार, 13 सितंबर 2017

ज़रा *******


ज़रा बोलता है ।
 वक़्त खोलता है ।
 डूबती यादों से ,
 आज तोलता है ।
 वक़्त के किनारों पे ,
 समन्दर डोलता है ।
 रेत के घरोंदों को,
 लहरों से तोड़ता है ।
 भोर के भानू पे ,
 शशि सा खेलता है ।
  ढलती साँझ में,
  तिमिर घोलता है ।
  ज़ीवन की परिभाषा,
 यूँ ज़रा बोलता है ।
  यूँ ज़रा बोलता है ।
  .... विवेक दुबे "विवेक"©...

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