शिला पत्थर तोड़ता वो ।
स्वेद कण जोड़ता वो ।
तर तन परिश्रम धार से ।
टूटता पत्थर एक प्रहार से ।
लीन अपने पुरुषार्थ में ।
भावहीन वो हर भाव में ।
हार कर अपने श्रम को,
झोंकता पेट की आग में ।
टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
लगा नित इसी प्रतिकार में ।
टूटतीं आशाएँ हर प्रहार से,
बदलतीं कंकर के आकार में ।
खो गया वो पाषाण में
ज्यो निष्प्राण वो प्राण में
पाषाण हुआ वो भी ,
कंकर की झंकार में ।
..... विवेक दुबे ©.....
2-
पाषाण शिला तोड़ता वो ।
ललाट स्वेद जोड़ता वो ।
तर तन परिश्रम धार वो।
लिप्त अपने पुरुषार्थ वो ।
टूटता पाषाण एक प्रहार में ।
वो भावहीन हर भाव में।
हार कर अपने श्रम को,
झोंकता पेट की आग में।
टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
लगा नित इसी प्रतिकार में ।
आशाएँ देता हर प्रहार को ,
बदलता शिला को आकार में ।
खो गया पाषाण में ।
कंकड़ की झंकार में ।
सहता हर प्रहार को ,
निष्प्राण ज्यो प्राण में ।
.... विवेक दुबे ©.....
1/2/18
3- वो कंकड़ ,
ठुकराया सा ,
बिसराया सा ,
उसे निरंतर ।
टूटा आघातों से ,
आ पड़ा धरा पर ।
जूझा तृसकारो से ,
लड़ता हालातों से ,
धुमिर धूल धरा पर ।
जल लहरों में सँग थपेड़ों के ,
बहकर आया एक तट पर ।
शांत पड़ा निष्कांत पड़ा ,
शून्य हुआ वो घिसकर ।
आए कोई एक दिन तट पर ,
सहज सवारे फिर घिसकर ।
पूजे फिर निष्काम भाव से ,
शायद वो हो जाए शँकर।
... विवेक दुबे©.....
Blog post 1/2/18
स्वेद कण जोड़ता वो ।
तर तन परिश्रम धार से ।
टूटता पत्थर एक प्रहार से ।
लीन अपने पुरुषार्थ में ।
भावहीन वो हर भाव में ।
हार कर अपने श्रम को,
झोंकता पेट की आग में ।
टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
लगा नित इसी प्रतिकार में ।
टूटतीं आशाएँ हर प्रहार से,
बदलतीं कंकर के आकार में ।
खो गया वो पाषाण में
ज्यो निष्प्राण वो प्राण में
पाषाण हुआ वो भी ,
कंकर की झंकार में ।
..... विवेक दुबे ©.....
2-
पाषाण शिला तोड़ता वो ।
ललाट स्वेद जोड़ता वो ।
तर तन परिश्रम धार वो।
लिप्त अपने पुरुषार्थ वो ।
टूटता पाषाण एक प्रहार में ।
वो भावहीन हर भाव में।
हार कर अपने श्रम को,
झोंकता पेट की आग में।
टूटता स्वार्थ के सँसार में ।
लगा नित इसी प्रतिकार में ।
आशाएँ देता हर प्रहार को ,
बदलता शिला को आकार में ।
खो गया पाषाण में ।
कंकड़ की झंकार में ।
सहता हर प्रहार को ,
निष्प्राण ज्यो प्राण में ।
.... विवेक दुबे ©.....
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3- वो कंकड़ ,
ठुकराया सा ,
बिसराया सा ,
उसे निरंतर ।
टूटा आघातों से ,
आ पड़ा धरा पर ।
जूझा तृसकारो से ,
लड़ता हालातों से ,
धुमिर धूल धरा पर ।
जल लहरों में सँग थपेड़ों के ,
बहकर आया एक तट पर ।
शांत पड़ा निष्कांत पड़ा ,
शून्य हुआ वो घिसकर ।
आए कोई एक दिन तट पर ,
सहज सवारे फिर घिसकर ।
पूजे फिर निष्काम भाव से ,
शायद वो हो जाए शँकर।
... विवेक दुबे©.....
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