कुछ यूँ टूटे से मकां सजाते रहे ।
जरूरतों के अस्तर लगाते रहे ।
कुछ धूप आती रही दरारों से ,
किनारों में खुद को छुपाते रहे ।
सर्द मौसम उस रात का ,
सिकुड़कर रात बिताते रहे ।
टपकती बूंदे उधड़ी छत से ,
हर टपक पर बर्तन लगाते रहे ।
कटता रहा सफ़र जिंदगी का ,
हर अस्र मंज़िल बनाते रहे ।
चलकर भी न चला "निश्चल"
कुछ यूँ बुत से नजर आते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
जरूरतों के अस्तर लगाते रहे ।
कुछ धूप आती रही दरारों से ,
किनारों में खुद को छुपाते रहे ।
सर्द मौसम उस रात का ,
सिकुड़कर रात बिताते रहे ।
टपकती बूंदे उधड़ी छत से ,
हर टपक पर बर्तन लगाते रहे ।
कटता रहा सफ़र जिंदगी का ,
हर अस्र मंज़िल बनाते रहे ।
चलकर भी न चला "निश्चल"
कुछ यूँ बुत से नजर आते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
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