वक़्त अहसास के बदलते रहे ।
ज़िस्म सँग साँस के चलते रहे ।
थमतीं रहीं निगाहें बार बार ,
अश्क़ कोरों से अपनी ढलते रहे ।
किनारे भी रूठे रहे अक़्सर ,
दरिया भी जिनके सँग चलते रहे ।
न थे क़तरे वो शबनम के ,
अश्क़ क़तरे जमीं पलते रहे ।
लो खो रही सुबह फिर ,
सँग साँझ के चलते रहे ।
सँग सा था वो तो "निश्चल" ,
अश्क़ जज़्बात पिघलते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
ज़िस्म सँग साँस के चलते रहे ।
थमतीं रहीं निगाहें बार बार ,
अश्क़ कोरों से अपनी ढलते रहे ।
किनारे भी रूठे रहे अक़्सर ,
दरिया भी जिनके सँग चलते रहे ।
न थे क़तरे वो शबनम के ,
अश्क़ क़तरे जमीं पलते रहे ।
लो खो रही सुबह फिर ,
सँग साँझ के चलते रहे ।
सँग सा था वो तो "निश्चल" ,
अश्क़ जज़्बात पिघलते रहे ।
....विवेक दुबे"निश्चल"@...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें