रविवार, 24 जून 2018

बदलते रहें

वक़्त अहसास के बदलते रहे ।
ज़िस्म सँग साँस के चलते रहे ।

थमतीं रहीं निगाहें बार बार ,
अश्क़ कोरों से अपनी ढलते रहे ।

किनारे भी रूठे रहे अक़्सर ,
दरिया भी जिनके सँग चलते रहे ।

न थे क़तरे वो शबनम के ,
अश्क़ क़तरे जमीं पलते रहे ।

लो खो रही सुबह फिर ,
सँग साँझ के चलते रहे ।

सँग सा था वो तो "निश्चल" ,
अश्क़ जज़्बात पिघलते रहे ।


....विवेक दुबे"निश्चल"@...

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